देश की श्रम शक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी की दशा | महेश व्यास / August 26, 2021 | | | | |
अशोक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अश्विनी देशपांडे और जितेंद्र सिंह का शोध बताता है कि देश में महिलाओं की कम और गिरती हुई श्रम भागीदारी दर इसलिए नहीं है कि वे शिक्षा पर अधिक खर्च कर रही हैं या उनकी पारिवारिक स्थिति इतनी अच्छी है कि उन्हें काम नहीं करना पड़ रहा है। उन्होंने पाया कि महिलाएं काम करना चाहती हैं और वे काम छोडऩे के बाद भी बार-बार काम की तलाश में श्रम बाजारों में आती हैं। जो महिलाएं किसी न किसी समय श्रम बाजार का हिस्सा रही हैं उन्होंने 2016 से 2019 तक यानी चार वर्ष चले इस अध्ययन के बाद कम से कम दो बार इस बाजार में आवाजाही की है।
बेहद कम समय में श्रम बाजार में इस प्रकार आवागमन यही संकेत देता है कि महिलाएं न तो हिचकिचा रही हैं और न ही श्रम बाजार से निकलने के बाद उन्होंने कहीं कोई बेहतर काम शुरू किया है। महिलाओं के लिए श्रम बाजार की स्थितियां बहुत कठिन हैं। लेकिन यह बात उन्हें एक बार बाहर निकलने के बाद भी रोजगार की तलाश में बार-बार श्रम बाजार में वापसी से नहीं रोक पाती। अपने पर्चे, 'ड्रॉपिंग आउट, बीइंग पुश्ड आउट ऑर कान्ट गेट इन? डिकोडिंग डिक्लाइनिंग लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन ऑफ इंडियन वीमन' में लेखकों ने सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी (सीएमआईई) के कंज्यूमर पिरामिड हाउसहोल्ड सर्वे (सीपीएचएस) के उच्च तीव्रता वाली प्रकृति के आंकड़ों की मदद ली है ताकि देश की श्रम शक्ति में महिलाओं की कमतर भागीदारी की जटिल समस्या को समझाया जा सके। उन्होंने सर्वथा नए निष्कर्ष पेश किए हैं।
लेखक कहते हैं, 'उच्च तीव्रता वाले घरेलू पैनल सर्वेक्षण के 12 दौर का इस्तेमाल करके हमने दिखाया कि भारतीय महिलाओं की श्रम बाजार भागीदारी काफी अस्थिर है क्योंकि वे अत्यंत कम समय में कई बार श्रम बाजार में शामिल होती हैं या बाहर जाती हैं। इसकी वजह शादी, बच्चे के जन्म या पारिवारिक आय में आए बदलाव से इतर होती हैं।'
लेखकों का कहना है कि देश में लंबे समय से यह सोच व्याप्त है कि महिलाएं स्वेच्छा से श्रम बाजार से बाहर जाती हैं क्योंकि उनके परिवार की आय में बढ़ोतरी होती है। कई बार ऐसा रूढि़वादी सामाजिक मानकों की वजह से भी होता है। लेखकों ने आपूर्ति क्षेत्र की बाधाओं पर ध्यान केंद्रित किया है जो महिलाओं को श्रम बाजार में शामिल होने से रोकती है।
इसमें हिंसा, लांछन और रूढि़वादी मानक प्रमुख हैं। बहरहाल, यदि महिलाएं बहुत कम अंतराल पर बार-बार श्रम बाजार में आएंगी और बाहर जाएंगी तो ये स्पष्टीकरण उचित नहीं लगेंगे क्योंकि लांछन और सामाजिक मानक बहुत अल्प अवधि में आगे-पीछे नहीं होते। सामाजिक और सांस्कृतिक मानकों की प्रकृति ढांचागत होती है और वे व्यवहार में शामिल होते हैं। उनमें तेजी से बदलाव नहीं आता इसलिए वे श्रम बाजार में महिलाओं के शामिल होने या बाहर जाने के प्रभावी कारक नहीं हो सकते। लेखक यह दर्शाते हैं कि श्रम शक्ति में महिलाओं की अनियमित और अल्पावधि की संलिप्तता के कारण आकलन की समस्या आती है। खासतौर पर उन्होंने पाया कि श्रम शक्ति भागीदारी दर के आकलन का पारंपरिक तरीका महिलाओं की श्रम बाजार में हिस्सेदारी की इच्छा को कम करके आंकता है।
उन्होंने पाया कि जिन 12 दौर का अध्ययन किया गया उनमें कम से कम 45 प्रतिशत महिलाएं किसी एक दौर में श्रम शक्ति का हिस्सा थीं। इससे पता चलता है कि 45 फीसदी महिलाएं अध्ययन के दौरान श्रम बाजार में हिस्सेदारी करने की इच्छा रखती थीं और इन महिलाओं ने इस अवधि में कभी न कभी श्रम शक्ति में भागीदारी भी की। चूंकि श्रम बाजार में उनकी संबद्धता अनियमित है या उसकी प्रकृति अल्पकालिक है इसलिए उन्हें श्रम शक्ति भागीदारी दर के आकलन में पूरी तरह शामिल नहीं किया जाता। सीपीएचएस के इस्तेमाल के आधार पर निकली श्रम शक्ति भागीदारी दर अध्ययन अवधि में करीब 14.5 फीसदी रही।
शायद यह आकलन की समस्या न हो लेकिन यह देश में श्रम शक्ति भागीदारी में महिलाओं की कम हिस्सेदारी को समझने के क्षेत्र में अहम अंतर्दृष्टि प्रदान करती है। 14.5 फीसदी और 45 फीसदी के बीच के अंतर की व्याख्या हम देशपांडे और सिंह के काम से भी कर सकते हैं। इससे यही संकेत निकलता है कि भारत अपनी वृद्धि को गति देने और अपने नागरिकों की स्थिति में सुधार करने के लिए जिस संभावित श्रम शक्ति का इस्तेमाल कर सकता है वह यही है। यही इकलौता रास्ता है जिसकी मदद से अनुकूल जनांकीय लाभांश का फायदा उठाया जा सकता है।
इस 30.5 फीसदी अतिरिक्त महिला श्रम शक्ति ने काम करने की इच्छा दिखाई है। श्रम बाजार से बाहर होने के बाद बार-बार उनका इसके भीतर आना तथा 45 फीसदी महिलाओं की काम करने की इच्छा यह दर्शाती है कि समस्या आपूर्ति नहीं बल्कि मांग के क्षेत्र में है। लेखकों ने पाया कि अध्ययन अवधि के दौरान उद्योग जगत के रोजगार के घटक में बदलाव यह स्पष्ट नहीं करता है कि महिलाओं के रोजगार में कमी इसलिए आई क्योंकि सभी औद्योगिक समूहों में रोजगारशुदा महिलाएं कम हुई हैं।
महिलाओं को पर्याप्त स्थिर रोजगार न मिलने के कारण अर्थव्यवस्था में उनकी भागीदारी सीमित है। स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था इतने रोजगार नहीं तैयार कर पा रही है कि काम करने की इच्छुक सभी महिलाओं और पुरुषों को रोजगार दिया जा सके।
बीते कुछ वर्षों में कुल रोजगारों की तादाद भी कम हुई है लेकिन उपलब्ध रोजगार मोटे तौर पर महिलाओं के नहीं बल्कि पुरुषों के खाते में जाते हैं। देशपांडे और सिंह ने हमें दिखाया कि ऐसा नहीं है कि महिलाएं काम नहीं करना चाहतीं। तब शायद यह स्पष्ट भेदभाव का मामला भी है। महिलाओं की श्रमशक्तिभागीदारी दर पुरुषों से बहुत कम है। वे पुरुषों से कम शिक्षित नहीं हैं, इसके बावजूद उनकी बेरोजगारी दर उनसे अधिक है। यह भेदभाव का उदाहरण है।
शायद सांस्कृतिक समस्या या सामाजिक कलंक की समस्या आम परिवारों के नहीं बल्कि कामकाजी उपक्रमों की सोच में मौजूद है। आम परिवार महिलाओं को काम पर भेजना चाहते हैं लेकिन उद्यम उन्हें स्थिर रोजगार मुहैया कराने के इच्छुक नहीं हैं।
|