भारतीय प्रतिभा और कारोबारी माहौल के बीच दूरी पाटना जरूरी | जिंदगीनामा | | कनिका दत्ता / August 24, 2021 | | | | |
रिलायंस इंडस्ट्रीज के मुकेश अंबानी ने वर्ष 2020 से कई सौदे किए हैं। ऐसे में डॉयचे टेलीकॉम एजी के नीदरलैंड में कारोबार के लिए संभावित बोली लगाने की खबर पर किसी को बहुत आश्चर्य नहीं हुआ। हालांकि अंबानी की यह पहल कोई छोटी बात भी नहीं होगी क्योंकि यह संकेत दे रहा है कि उनकी कंपनी वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पद्र्धा करने से पीछे नहीं रहना चाहती है। अंबानी की यह पहल भारतीय कारोबार जगत में लंबे समय से चली आ रही एक कमजोरी की तरफ भी इशारा करती है। देश की शीर्ष कंपनियां तुलनात्मक रूप से अधिक खुले प्रतिस्पद्र्धी बाजार में अपनी क्षमता आजमाने की यदा-कदा ही कोशिश करती हैं।
इससे पहले कि टाटा मोटर्स, भारत फोर्ज, भारती, बजाज ऑटो, ए वी बिड़ला ग्रुप, वॉकहार्ट या मदरसन सूमी या सूचना-प्रौद्योगिकी संबद्ध क्षेत्र की किसी कंपनी का नाम लें, एक बात विचारणीय है। ये कंपनियां लोगों का ध्यान इसलिए आकृष्ट करती हैं क्योंकि वे स्थापित मानदंडों के लिहाज से अपवाद हैं। जगुआर लैंड रोवर, वॉकहार्ट और भारती को छोड़कर ज्यादातर कंपनियां बी2बी (बिजनेस टू बिजनेस) क्षेत्र में काम करती हैं जहां भारतीय प्रतिभा ने अपनी अहमियत साबित की है। कुछ दूसरी कंपनियां ऐसे उत्पाद एवं सेवाएं मुहैया कराती हैं जो कम से कम सरकारी हस्तक्षेप वाले बाजारों में वैश्विक ब्रांडों से सीधे लोहा लेती हैं। अमेरिका में शेल एवं गैस परिसंपत्तियों में अंबानी का निवेश एक इसी तरह का मामला था। अंबानी चरणबद्ध तरीके से अब इस कारोबार से बाहर निकल चुके हैं। नीदरलैंड की दूसरी सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनी टी मोबाइल के लिए बोली विदेशी बाजार में में बी2सी खंड में एक बड़ा कदम होगा।
आरआईएल पिछले एक दशक से एक पुरानी अर्थव्यवस्था आधारित कंपनी से हटकर तकनीकी क्षेत्र की एक दिग्गज कंपनी बनने का प्रयास कर रही है। टी मोबाइल के लिए उसकी बोली इसी प्रयास का एक हिस्सा है। भारत में खुदरा एवं दूरसंचार (खिलौना, ऑनलाइन खुदरा इत्यादि) क्षेत्रों में कंपनी का दखल इस बड़ी योजना का ही हिस्सा रहा है। हालांकि वैश्विक उपभोक्ता बाजारों में परिचालन माहौल और नीति अधिक चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं। भारत में जियो नियामक के सहयोग और अत्यधिक सस्ती कॉल दरों एवं डेटा के साथ अपनी पैठ बनाने में सफल रही है लेकिन पश्चिमी बाजारों में ऐसा करना सरल नहीं होगा। खुदरा क्षेत्र के लिए भी यही बात लागू होती है। भारत में विदेशी कंपनियों को तमाम नियामकीय झमेलों से गुजरना होता है और इसका नतीजा यह होता है कि स्थानीय खुदरा कंपनियों के लिए प्रतिस्पद्र्धा कम हो जाती है और उनके कारोबार पर विदेशी कंपनियों का प्रभाव सीधे नहीं पड़ता है।
भारत से बाहर प्रतिस्पद्र्धा करने में पेश आने वाली चुनौती दो बातों की तरफ इशारा करती है। इनमें एक है आर्थिक नीति पर सरकार का दबदबा और दूसरी है इस दबदबे की प्रवृत्ति। आर्थिक नीति एवं गतिविधियों पर सरकार का दबदबा समझने के लिए भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) के सालाना सत्र के लिए समाचार पत्रों में प्रकाशित विज्ञापन पर विचार कर सकते हैं। इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी के अलावा कम से कम 11 मंत्रियों ने भाषण दिए। चार सांसदों ने भी अपने उदगार प्रकट किए। इनमें केवल सांसद कांग्रेस से ताल्लुक रखते थे। 'प्रमुख वक्ताओं' में छह अधिकारी भी शामिल थे। कुल मिलाकर राजनीति-प्रशासन जगत के 22 लोगों ने सीआईआई के सालाना सत्र में अपनी बातें रखीं। तथाकथित उदारीकरण के 30 वर्षों बाद नेताओं एवं अधिकारियों की इतनी बड़ी संख्या में उपस्थिति काफी कुछ कह जाती है। इससे यह भी पता चलता है कि किस तरह कारोबार एवं उद्योग जगत पर सरकार की मजबूत पकड़ कायम है। उद्योग जगत के लोग सरकार की आलोचना नहीं करते दिख रहे हैं। यह भी सरकार के प्रभुत्व का स्पष्ट संकेत है।
जहां तक इस दबदबे के स्वरूप का सवाल है तो चाहे किसी भी दल या विचारधारा वाले लोगों की सरकार क्यों नहीं हो, सांठगांठ वाले पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) के कारण उद्योग जगत में प्रतिस्पद्र्धी कंपनियों के लिए उभर पाना मुश्किल हो जाता है। भारत में 1 अरब डॉलर से अधिक मूल्यांकन वाली स्टार्टअप इकाइयों का उभार स्थिति और स्पष्ट कर देता है। ये सभी इकाइयां एक ऐसे क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं जहां सरकार का हस्तक्षेप कम है। सहचर पूंजीवादी व्यवस्था में कारोबारी सफलता सरकारी अधिकारियों एवं प्रतिनिधियों के साथ संबंधों की मोहताज हो जाती है। मगर यह भी सच है कि सहचर पूंजीवाद के विभिन्न स्वरूपों ने दुनिया में कुछ उन दिग्गज कंपनियों को आगे बढ़ाया है जिन्होंने पश्चिमी देशों की शक्तिशाली कंपनियों को पीछे छोड़ दिया है। सैमसंग, टोयोटा या हुवावे ऐसी ही कंपनियां हैं। दूसरी तरफ भारत में कई ब्रांड 1991 के बाद वैश्विक प्रतिस्पद्र्धा में टिक नहीं पाए।
दुनिया सस्ती कीमतों पर उत्पाद लाकर वैश्विक बाजार में प्रभुत्व स्थापित करने के लिए चीन की कंपनियों की आलोचना कर सकती हैं। मगर इस तरह की क्षमता हासिल के लिए करने के आवश्यक माहौल चीन ने चरणबद्ध तरीके से तैयार किया है और इससे दुनिया की दूसरी कंपनियों को भी लाभ मिला है। उदाहरण के लिए अगर श्याओमी, ओप्पो, वीवो और हायर जैसी चीन की कंपनियां सैसमंग के साथ प्रतिस्पद्र्धा करने में सक्षम रही हैं (जैसा कि भारत में दिख रहा है) तो सैमसंग भी चीन में कम लागत के साथ उत्पादन करने का लाभ उठा चुकी है। अब वियतनाम इस भूमिका में है और वह भी हरेक मामले में चीन के मॉडल का पालन कर रहा है।
दूसरी तरफ, भारत में सहचर पूंजीवाद ने एक भी दिग्गज वैश्विक कंपनी को जन्म नहीं दिया है। भारत में जन्मे और शिक्षित हुए कई लोग इस समय बड़ी वैश्विक कंपनियों की कमान संभाल रहे हैं लेकिन भारत की एक भी कंपनी वैश्विक स्तर पर अपना दबदबा कायम करने में सफल नहीं रही है। इससे भारतीय प्रतिभा और कारोबारी माहौल के बीच दूरी का पता साफ चलता है।
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