महामारी के काल में आए बदलाव | रथिन रॉय / August 24, 2021 | | | | |
कोविड-19 ने उस दुनिया को बदलकर रख दिया है जिसे हम पहले जानते थे। मेरे हिसाब से पांच महत्त्वपूर्ण तरीके से ऐसा घटित हुआ है।
एशियाई असाधारणवाद
पिछले 50 वर्षों की बड़ी आर्थिक कहानी एशिया के उदय की रही है। पहले जापान, फिर ताइवान, कोरिया एवं चीन। इस उदय का आख्यान राजनीतिक संघर्ष एवं प्रतिरोध की निरर्थकता के इर्दगिर्द बुना गया था।
उदार तानाशाही वाले इन एशियाई देशों को सक्षम एवं बदलावकारी के तौर पर देखा गया। एशिया के अभ्युदय की कहानी बयां करने वाली किताबों ने इसे कंफ्यूशियाई मूल्यों, अनुशासन और सामूहिक कार्य की उच्च असरकारिता का नतीजा बताया। शुरुआती दौर में महामारी पर काबू पाने की एशियाई प्रयासों को मिली सफलता ने इस धारणा को पुख्ता करने का ही काम किया। लेकिन हालात खराब होने के साथ एशियाई टाइगर कहे जाने वाले इन देशों को भी अपनी जनसंख्या के टीकाकरण एवं आर्थिक प्रगति की रफ्तार बनाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ा। इस दौरान चीन की विशिष्टता में उछाल आई लेकिन इसे वैश्विक समृद्धि में किसी तरह के अंशदान के बजाय चीनी आधिपत्य स्थापित करने की 'वुल्फ वॉरियर' रणनीतियों के तौर पर ही देखा जा रहा है।
दोहरी रफ्तार वाली दुनिया
भूमंडलीकरण के दौर की पहचान सतत सम्मिलन की एक धारणा थी। भूमंडलीकरण की रफ्तार एवं उसकी वैश्विक पहुंच का विस्तार होने के साथ दुनिया भर में संपन्नता को अनवरत बढ़ते हुए देखा गया जिसमें एक सिरे पर अत्यधिक गरीबी थी और देशों के बीच असमानता में भी लगातार ह्रास आता गया। महामारी ने इन सपनों का अंत कर दिया है। अंतरराष्टï्रीय मुद्राकोष की मुख्य आर्थिक सलाहकार गीता गोपीनाथ कहती हैं कि केवल अमेरिका और चीन ही इस साल के अंत तक महामारी-पूर्व के स्तर तक पहुंच पाएंगे। अधिकांश देशों के लिए 2023 से पहले ऐसा होने की संभावना नहीं है। अगले चार वर्षों में प्रति व्यक्ति आय का महामारी-पूर्व की तुलना में औसत वार्षिक ह्रास विकसित देशों के लिए 2.3 फीसदी रहने का अनुमान है जबकि उभरते बाजारों के लिए यह 4.7 फीसदी और निम्न आय वाले देशों के लिए 5.7 फीसदी रहने का अनुमान लगाया गया है। सिर्फ 2020 में ही दुनिया भर में करीब 9.5 करोड़ अतिरिक्त लोगों के बेहद गरीब हो जाने की बात भी कही गई है।
वृहत-आर्थिक नीति-निर्माण का औंधा पडऩा
इसकी शुरुआत 2008 के वित्तीय संकट के समय ही हो गई थी। परंपरागत वृहत-आर्थिक नीति को तिलांजलि देने का काम अब पूरा हो चुका है। ईएमएफ के औसत दर्जे के अर्थशास्त्री और विकासशील देशों में मौजूद उनके जैसे लोग इन नीतियों के संपादन में जुटे रहते थे। पिछले साल तक भारत के कुछ अर्थशास्त्री महामारी से निपटने के लिए किए जा रहे प्रयासों को प्रति-चक्रीय प्रयास बताने में जुटे थे। इस तरह के लचर विश्लेषण की अब कोई मांग नहीं रह गई है।
महामारी ने तथाकथित आंकड़ा-चालित अर्थशास्त्र की पहेली का भी राज खोल दिया है। दरअसल अब अतीत की घटनाओं के आधार पर सटीक अनुमान लगा पाना मुमकिन नहीं रह गया है, चाहे ब्रिटेन में घरों की कीमतों का मामला हो या फिर भारत में मुद्रास्फीति बढ़ाने वाले कारकों का हो। सैद्धांतिक तौर पर सिर्फ अर्थमितीय कवायदें अब खोखली हो चुकी हैं। इसी तरह ऋण गतिशीलता के बारे में तीसरे दर्जे के अनुभववाद पर आधारित राजकोषीय सशक्तीकरण की चर्चा भी बहुत चिढ़ पैदा करती है। तीन अंकों में जा पहुंचे ऋण एवं जीडीपी अनुपात के ही दम पर अब राजकोषीय विवेक के बारे में नीतिगत निर्णय नहीं लिए जाते हैं। इसके बजाय मैं 2008 से ही इसकी वकालत करता रहा हूं कि ऋण का इस्तेमाल किस तरह किया जा रहा है और उधार ली गई रकम के राजकोषीय विकास का परिणाम कैसा रहा है? राजकोषीय विवेक के बारे में दुकानदारी जैसी सोच से अब वृहत-राजकोषीय ढांचा नहीं खड़ा हो पाता है। उत्कृष्ट उत्पाद मुहैया कराने और आमदनी एवं रोजगार को बचाए रखने के लिए सार्वजनिक व्यय को आज के दौर में कर कटौती एवं घाटे पर काबू पाने जैसे उपायों पर तरजीह दी जाती है। राजकोषीय नीति को तभी अच्छा माना जाता है जब यह महामारी के बुरे असर से निजात दिलाने में कारगर होती है।
बुजुर्गों के हिस्से में विरासत
जंग पुराने को बचाने के लिए नए लोग लड़ते हैं। इस लिहाज से कोविड-19 के संदर्भ में अपनी प्रतिक्रिया को देखें तो वह युद्ध जैसी ही रही है। युवा आबादी को बहुत ज्यादा पीड़ा का सामना करना पड़ा है। बुजुर्गों को बचाने के लिए युवाओं की शिक्षा लगभग रोक दी गई और उनके रोजगार अवसर भी लुप्त हो गए। वहीं बुजुर्ग आबादी फलती-फूलती रही। युवाओं को क्रूर पाबंदियों में रहना पड़ा है जिससे वे दुनिया को जानने-समझने, दोस्त बनाने, प्यार करने एवं नए प्रयोग करने की अपनी क्षमता नहीं दिखा पा रहे हैं। जहां तक बच्चों का सवाल है तो कोविड-19 से अमूमन उनकी मौत नहीं होती है लेकिन वे अपने से बड़ी उम्र के लोगों को संक्रमित कर सकते हैं, लिहाजा उन्हें पृथकवास में रखना जरूरी है।
सपना चकनाचूर
युवा ही समाजों और इस धरती को चरित्र एवं भावना के स्तर पर सामुदायिकता से ओतप्रोत करते हैं। ऐसे में उन पर हद से ज्यादा नकारात्मक असर पडऩे का नतीजा हम सबकी जिंदगियों के अप्रत्याशित सीमा तक चकनाचूर हो जाने के रूप में सामने आया है। महामारी के दौरान आर्थिक, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा से जुड़े कदम इंसानों को एक-दूसरे से अलग करने वाले रहे हैं। ताकतवर एवं संपन्न तबका खुद को बंद दरवाजों के भीतर रखते हुए जीवन की गुणवत्ता बनाए रख पाने में सक्षम है, चाहे वे धनी देश हों या फिर धनी लोग।
भारत में यह विखंडन और भी स्याह रूप में नजर आया जब बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों का न तो स्वागत किया गया और न ही वे अपनी रिहाइश वाली जगह पर सुरक्षित थे। ऐसी स्थिति में उन्होंने अनिश्चितता, बेरोजगारी एवं मुश्किल भरे दौर में अपने-अपने राज्यों के तुलनात्मक रूप से अधिक सुरक्षित माहौल में ही लौटना पसंद किया। लेकिन यह सफर भी आसान नहीं था। लोगों की सुरक्षा के नाम पर जगह-जगह उन्हें पुलिस की ताकत का सामना करना पड़ा। उन्हें परिवहन के सभी आधुनिक साधनों से वंचित रखा गया और वे हजारों किलोमीटर का सफर तपती धूप में पैदल ही करने के लिए मजबूर हो गए। ऐसा लग रहा था कि देश भर में अकाल, भारी गरीबी या जंग के हालात हैं। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि गेट वाली सोसाइटी के भीतर रहने वाले संपन्न लोग मुश्किल के इस दौर में भी अपने साथी नागरिकों की कोई जिम्मेदारी नहीं लेंगे क्योंकि उनके लिए तो वे सिर्फ 'प्रवासी मजदूर' थे।
लॉकडाउन की वजह से कोई काम न होने से इन लोगों की कोई उपयोगिता नहीं रह गई थी। उन्हें इस चीज का भी अहसास था कि सरकार की जिम्मेदारी उन्हें आय समर्थन देने की सीमा तक नहीं आती है। सार्वजनिक संसाधन उस तबके को सस्ता कर्ज देने तक सीमित थे जिनका लाभ पहले से ही खतरे में था। भारत के गरीबों के लिए इसका मतलब चैरिटी से था ताकि उन्हें भोजन से लेकर जीवित रहने दिया जाए। वहीं समृद्ध तबका अपने आय के साधनों में गिरावट और संपन्नता का सपना टूटने को लेकर फिक्रमंद था।
(लेखक थिंकटैंक ओडीआई लंदन के प्रबंध निदेशक हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
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