बदलता विश्व | टी. एन. नाइनन | | संपादकीय / August 21, 2021 | | | | |
आर्थिक इतिहासकार चाल्र्स किंडलबर्गर की दलील है कि मौद्रिक स्थिरता के लिए एक मजबूत शक्ति द्वारा नियम निर्धारण जरूरी है। उनके इस 'आधिपत्य स्थिरता सिद्धांत' को व्यापक आर्थिक परिदृश्य पर तथा अर्थव्यवस्थाओं से परे भी लागू किया गया। उदाहरण के लिए कहा गया कि दो विश्वयुद्धों के बीच की अवधि में जो अस्थिरता आई थी वह इसलिए थी क्योंकि ब्रिटेन का पराभव हो रहा था और एकांतवादी अमेरिका नया वैश्विक मुखिया बनने का इच्छुक नहीं था। तब से अमेरिकियों ने स्वयं से तथा दूसरों से यही कहा है कि बीते 75 वर्षों की नियम आधारित वैश्विक व्यवस्था दरअसल उनका निर्माण है। इस विचार में काफी सच्चाई है, हालांकि कई बार अमेरिकी रुख में इन तयशुदा नियमों से विचलन भी देखा गया है।
आज इस आधिपत्य को चुनौती मिल रही है। अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी उसी तर्ज पर है जैसे उसे सीरिया में हार का सामना करना पड़ा जहां उसने देश के गृहयुद्ध में निरर्थक हस्तक्षेप किया, 2003 में इराक में सद्दाम हुसैन को सत्ता से हटाने के बाद सत्ता के स्थानीय ढांचे को तहस-नहस किया, रूस का मामला जहां 2000 में पुतिन ने एक अपमानित देश का नेतृत्व संभाला, ईरान जहां अमेरिका सन 1979 में इस्लामिक नियंत्रण का अनुमान लगाने में नाकाम रहा और वियतनाम जहां स्थानीय सेना को हस्तांतरण नाकाम नीति साबित हुआ। इस बीच अरब उभार भी खत्म हो गया।
यह चौथाई सदी पहले की तुलना में एकदम अलग है। सोवियत संघ के पतन के बाद कुछ समय के लिए दुनिया में केवल एक महाशक्ति थी और फॉरेन अफेयर्स पत्रिका (अमेरिकी विदेश संबंध परिषद द्वारा प्रकाशित) एक नए अमेरिकी साम्राज्य को लेकर विजयी दृष्टिकोण पेश कर रही थी। आज उसी पत्रिका के स्वर में बदलाव चकित करने वाला है। हालांकि कुछ लेखक अभी भी कह रहे हैं कि चीन की ताकत को बढ़ाचढ़ाकर पेश किया जा रहा है और 21वीं सदी भी अमेरिका की सदी साबित होगी। बुश सीनियर से लेकर बुश जूनियर और जो बाइडन तक एक के बाद एक अमेरिकी राष्ट्रपति नाकाबिल साबित हुए, विदेशी जमीन पर अमेरिका की भ्रमिक स्थिति भी चीन के नेतृत्व के एकदम विपरीत है जो एकसूत्री ढंग से संपत्ति और सत्ता एकत्रित करने में लगा हुआ है। इसलिए अब पुराने प्रतिमान पहले की तरह कामयाब नहीं हैं। कई देशों में अधिनायकवाद लोकतांत्रिक प्रणाली को हड़प रहे हैं जबकि राष्ट्रवादी नीतियों ने विश्ववादी आवाजों को खामोश कर दिया है।
चीन के प्रभुत्व ने दक्षिण पूर्व एशिया के छोटे देशों को प्रभावहीन कर दिया है। चीन का प्रभाव मध्य एशिया तक फैल गया है जबकि रूस ने अपना दावा आसपास के देशों तक सीमित कर लिया है, और वह भूमध्यसागर क्षेत्र में कारक बन चुका है। यदि अमेरिका, चीन और रूस के समक्ष और कमजोर पड़ता है तो संभावना यही है कि उसका प्रभुत्व कमजोर पड़ेगा।
थिंक टैंकों का अनुमान है कि ऐसी स्थिति बनेगी जिसे 'थ्यूसिडिडीज ट्रैप' का नाम दिया जा सकता है जहां स्थापित शक्ति (प्राचीन ग्रीस में स्पार्टा) उभरती शक्ति (एथेंस) से खतरा महसूस करती है और जंग होती है। एक गिनती के मुताबिक 16 में से 12 बड़े शक्ति परिवर्तन का नतीजा जंग के रूप में सामने आया है। इसमें पहला विश्वयुद्ध शामिल है जब ब्रिटेन और रूस जर्मनी के उभार से भयभीत थे। लेकिन 1904 में जापान ने जहां कूटनीति नाकाम होने के बाद साहस दिखाते हुए रूस पर हमला कर दिया था, वहीं चीन खुद से कह सकता है कि खुला संघर्ष अनावश्यक है क्योंकि चीजें खुद ही उसके मुताबिक हो रही हैं।
चीन का बाजार एक अहम कारक है। ज्यादातर देशों का चीन के साथ कारोबार अमेरिका के साथ कारोबार से अधिक है। अमेरिका के बड़े कारोबारियों ने भी हाल ही में राष्ट्रपति बाइडन पर दबाव बनाया है कि चीन के साथ व्यापार वार्ता दोबारा शुरू हो। क्वाड के कम से कम दो देशों ऑस्ट्रेलिया और भारत को चीन का ताप महसूस हो रहा है। ऑस्ट्रेलिया आर्थिक तथा भारत आर्थिक और सैन्य दोनों तरह के तनाव महसूस कर रहा है। वर्षों की निष्क्रियता के बाद क्वाड की शुरुआत के पीछे दलील यह है अमेरिका को भी अब अपने सहयोगियों की उतनी ही जरूरत है जितनी उन्हें उसकी। इससे यह साझेदारी मजबूत होती है।
दूसरी ओर, अफगानिस्तान के घटनाक्रम के बीच ताइवान के रक्षा मंत्री ने कहा है कि उनका देश अमेरिका के बजाय अपने रक्षा तंत्र पर अधिक भरोसा करेगा। यदि अमेरिका के अन्य साझेदार ऐसा सोचते हैं तो अमेरिकी प्रभुत्व समापन की ओर है।
वापस किंडलबर्गर की बात कर करें तो यदि सत्ता में बदलाव के दौर में प्रभुत्ववादी देश का खिंचाव कमजोर हुआ तो भारत अस्थिर समय में अपनी राह कैसे निकालेगा? क्या देश की अर्थव्यवस्था, सेना और कूटनीति इस काम के लिए तैयार है?
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