उदारवादी दृष्टि के आसन्न अवसान की व्याख्या काफी हद तक स्वीकार्य दो आदर्शों की सरलता से बेहतर कोई भी चीज नहीं कर सकती है। पहला आदर्श एडम स्मिथ का वह वक्तव्य है जिसके मुताबिक, 'यह किसी कसाई, शराब बनाने वाले या किसी बेकरी वाले की सदाशयता नहीं है बल्कि भोजन प्रक्रिया का अंग होना उनके ही हित में है। हम खुद को मानवता से नहीं बल्कि उनके आत्म-प्रेम से निर्धारित करते हैं और हम उनसे कभी भी अपनी जरूरतों के बारे में नहीं बल्कि उनके फायदे के बारे में बात करते हैं।' दूसरा आदर्श फ्रांसीसी क्रांति का इससे भी अधिक मासूम नारा है: स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व। हमारे अपने संविधान की प्रस्तावना में भी इन शब्दों को मुख्य रूप से स्थान मिला हुआ है और अक्सर उदारवादी असहमति जताने वालों के प्रति नफरत फैलाते समय भी इन शब्दों का जिक्र करते हैं। अब एडम स्मिथ के वक्तव्य में शामिल कसाई, शराब-निर्माता एवं बेकरी की जगह गूगल, ऐपल एवं एमेजॉन को रखकर देखिए कि क्या यह वाक्य आज की अन्यायपूर्ण दुनिया में कोई मायने रखता है? निश्चित रूप से स्व-हित वृद्धि का एक महत्त्वपूर्ण चालक है लेकिन व्यापक समुदाय के हितों की स्वीकृति से लागू नियंत्रणों के बगैर आर्थिक स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी। जहां तक फ्रांसीसी क्रांति के सामाजिक-राजनीतिक आदर्शों का सवाल है तो बहुत कम समाज ही इन मापदंडों पर खरा उतरने का दावा कर सकते हैं। ये आदर्श इस धारणा पर बने हुए थे कि अतीत की सारी संस्थाएं- परिवार, कबीला, धर्म, जाति और राष्टï्रवादी राज्य एक व्यक्ति का दमन करती थीं। इसलिए व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को अधिकतम करने और पुरानी संस्थाओं को नष्ट करने या काबू में करने से मानव-जाति अपनी पूरी क्षमता तक विकास के लिए स्वतंत्र हो पाएगी। लेकिन इन आदर्शों को सिर्फ छोटे या असामान्य रूप से एकल-सांस्कृतिक समाजों में ही हकीकत में बदला जा सका है। नॉर्डिक समाज, जर्मनी, एवं जापान के अलावा इजरायल एवं दक्षिण कोरिया जैसे कुछ लोकतांत्रिक एशियाई देशों में ही ऐसा हो पाया है। लेकिन इन देशों में भी प्रवासियों की संख्या बढऩे के साथ आगे चलकर बंद-गली जैसे हालात ही बन जाएंगे। उनकी अनवरत सफलता उनके एकल-सांस्कृतिक समाज बने रहने पर ही निर्भर करती है। उदारवाद अपनी चमक खोता जा रहा है और इसकी वजह यह है कि इसने मानव स्वभाव के बुनियादी तौर पर दोषपूर्ण स्वभाव को अच्छे एवं बुरे दोनों ही मामलों में गलत मान लिया है। उदारवाद की दुनियावी नजर में अतीत के सामुदायिक संस्थान वाजिब वजहों से दमनकारी थे और उनके उन्मूलन या निष्प्रभावी कर दिए जाने के बाद स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के विचार किसी भी समाज में जड़ें जमा सकते हैं।नॉट्रेडम यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर पैट्रिक डेनीन ने अपनी पुस्तक 'व्हाई लिबरलिज्म फेल्ड' में उदारवादी अवधारणा के पटरी से उतरने के कारणों की पड़ताल की है। इस पुस्तक के अनुसार, 'उदार' नीतियों के प्रत्यक्ष लाभार्थियों द्वारा संचालित समाज में बाकी लोग पीछे छूटते गए। प्रोफेसर डेनीन उदारवाद एवं उसके साथ ही लेवियाथन राज्य के विकास के बीच बुनियादी विरोधाभास को रेखांकित करते हैं। चाहे आप शास्त्रीय बाजार उदारवादी हों जो आर्थिक मामलों में राज्य के कम हस्तक्षेप और कारोबारों के ग्राहकों के लिए प्रतिस्पद्र्धा करने के पक्षधर हैं या फिर आप एक सामाजिक उदारवादी हों जो राज्य से यह सुनिश्चित कराना चाहता है कि हरेकव्यक्ति अपनी असली क्षमता के हिसाब से ही विकास करता है, दोनों ही तरह के लोग अलग-अलग कारणों से आखिरकार राज्य की बड़ी भूमिका की ही नींव तैयार करते हैं। लेकिन समाज के बाजारवादी अर्थव्यवस्था एवं लेवियाथन राज्य से प्यार करने का इकलौता तरीका यही है कि दोनों मिलकर अंतहीन विकास पैदा करें या असीमित उपभोक्ता विकल्प मौजूद हों। हम 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के समय देख चुके हैं कि वामपंथी एवं दक्षिणपंथी दोनों ही विचारधाराओं के अर्थशास्त्री राज्य के अधिक हस्तक्षेप की पुरजोर वकालत कर रहे थे। ऐसे में यह सवाल खड़ा होता है कि अगर राज्य अधिक और अधिक शक्तिशाली होता जा रहा है तो फिर उदारवाद खुद कैसे बचा रहेगा? आखिरकार एक उदार व्यवस्था में क्या राज्य समेत हरेक अंग से व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा की अपेक्षा नहीं की जाती है? निश्चित रूप से इसका जवाब निष्पक्ष नियम एवं कानून का शासन ही होगा। लेकिन कानून लागू करने के लिए राज्य को अधिक संसाधनों की भी जरूरत पड़ेगी। और किसी का भी लिखा हुआ कानून हो, वह दुनिया में कहीं भी निहित स्वार्थों के असर से बच नहीं पाया है। ताकतवर समूहों की आवाज हमेशा ही कानून-निर्माण में ज्यादा सुनी जाती है। प्रोफेसर डेनीन का मानना है कि ऐसी स्थिति में उदारवादी लोग सर्वाधिकारवादी साधनों के जरिये शासन करते रहेंगे। हमने इसकी झलकियां उस समय देखीं जब सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने अमेरिका के तत्कालीन राष्टï्रपति को रातोरात अपने प्लेटफॉर्म से हटा दिया। निष्कर्ष एकदम सरल है। व्यक्ति एवं राज्य के बीच समुदाय की भूमिका कहीं अधिक सशक्त होनी चाहिए ताकि वह अधिकारों को सीमित कर निगरानी रख सके। कोई भी सच्चा मुक्त समाज अकेले निजी अधिकारों के दम पर नहीं बनाया जा सकता है। रघुराम राजन ने भी अपनी पुस्तक 'द थर्ड पिलर' में इस मुद्दे को उठाने की कोशिशें की हैं। उनका कहना है कि उदारवादी पश्चिमी दुनिया में राज्य और बाजार तो ताकतवर हैं लेकिन समुदाय कमजोर हो चुके हैं। सामुदायिक बंधन एवं कार्य करने की क्षमता रूपी इस तीसरे खंभे के बगैर आप अपराध एवं हिंसा की चपेट में फंसे गरीब पड़ोस की मदद नहीं कर सकते हैं। भारत में समस्या कुछ दूसरी तरह की है। हमारा सामुदायिक ढांचा अब भी सशक्त है जबकि राज्य की क्षमता कमजोर है और बाजार अपने कामकाज की जगह पर भी अपूर्ण हैं। इसके बावजूद उदारवादी हमारे पक्ष में जा रही उस चीज को खत्म कर देना चाहते हैं जो कि समुदाय को लेकर हमारे भीतर मौजूद मजबूत अहसास है। परिवार से लेकर जाति और धार्मिक पहचान एवं भाषाई संबद्धता तक समुदाय के अहसास को बनाए हुए हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि हमें अस्तित्वहीन एवं 'महान अतीत' की तरफ लौट जाना चाहिए। यह असल में ताकत की मौजूदगी को पहचानने का आह्वान है। हम समुदायों को कमजोर कर एक सशक्त राज्य एवं सशक्त बाजार नहीं बना सकते हैं। हम राज्य को लेवियाथन बनने से तभी रोक सकते हैं जब हम समुदायों को राज्य का कुछ काम करने के लिए सशक्त बना सकें। और समुदाय से मेरा आशय सिर्फ जाति, धर्म, लिंग, कबीला या भाषाई जुड़ाव के आधार पर बने समूहों से ही नहीं है। कोई भी समूह खुद को एक समुदाय में तब्दील कर सकता है और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने समेत अपने साझा एवं सामान्य हितों की पूर्ति के लिए काम कर सकता है। यूरोप के कई देशों में स्वैच्छिक चर्च करों को कर्मचारियों के वेतन से कर लाभ देकर काटा जा सकता है। मुस्लिमों का जकात भी स्वेच्छा से कर देने का ऐसा ही एक विचार है।एक छोटे एवं प्रभावी राज्य को अपना नियंत्रण खुद करने वाले और स्वैच्छिक कर संसाधनों वाले समुदायों के पूरक की भूमिका निभानी है। कम जनसंख्या वाले डेनमार्क एवं अन्य नॉर्डिक देशों में राज्य इस समुदाय की जगह ले सकता है क्योंकि वहां का समाज एकल-संस्कृति है। हालांकि डेनमार्क जैसी व्यवस्था के लिए जरूरी है कि स्वायत्त स्व-नियमन के प्रभावी होने और सामाजिक सुरक्षा के लिए समुदाय का आकार छोटा हो। उदारवाद और सार्वभौमवाद हमें वहां तक नहीं ले जा रहे हैं क्योंकि उनका निर्धारित लक्ष्य ही विरासत में मिली सामुदायिक पहचान को ध्वस्त करने का है। स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व की यह नामुमकिन तिकड़ी छोटे एवं सरल समुदायों को छोड़कर कहीं भी नहीं हासिल की जा सकती है। (लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)
