संसद के मॉनसून सत्र पर पेगासस जासूसी मामले की छाया इस कदर छाई रही कि इस अधिवेशन में प्रस्तावित अधिकांश विधायी कार्यों के संचालन पर प्रतिकूल असर पड़ा है। बुधवार को संसद की कार्यवाही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी गई। दरअसल विपक्षी दलों की यह मांग रही है कि सरकार देश की तमाम जानी-मानी शख्सियतों की निगरानी के लिए पेगासस सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल की खबरों पर संसद में चर्चा कराए। पेगासस जासूसी के संभावित लक्ष्यों की सूची में कई नेताओं, पत्रकारों एवं अफसरों के नाम भी शामिल रहे हैं। अब तक सत्ता पक्ष एवं विपक्ष से समान दूरी रखने वाले दल भी विपक्ष की मांग का समर्थन करते दिखे हैं। अजीब पसोपेश में फंसी सरकार ने इस प्रकरण में अपनी कोई भूमिका होने से इनकार किया है। समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता घनश्याम तिवारी संसद में बने इस गतिरोध के बारे में कहते हैं, 'ऐसा नहीं है कि हम संसद चलने ही नहीं देना चाहते हैं। हम भी नीति-निर्माण कार्यों में अपनी आवाज बुलंद करना चाहते हैं। लेकिन सरकार पर से हमारा भरोसा ही उठ गया है।' तिवारी अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल जनता दल यूनाइटेड (जदयू) का भी पेगासस मसले पर विपक्षी दलों की मांग के समर्थन में आ जाना उनके रुख के सही साबित होने की तस्दीक करता है। उनका कहना है कि इस समय दो समानांतर प्रक्रियाएं चल रही हैं। तिवारी कहते हैं, 'उच्चतम न्यायालय ने हमारे सवालों को गंभीर माना है और दूसरी तरफ हम संसद में अपनी निजता पर हुए अतिक्रमण का मुद्दा उठा रहे हैं। इतना हमारी बात सुनने के लिए काफी होना चाहिए।' दूसरी तरफ सरकार ने भी अपने रुख को लेकर स्पष्टता दिखाई है। उसने संसद के पटल पर अपनी स्थिति साफ कर दी है और अब वह उसमें कुछ भी नया नहीं जोडऩा चाहती है। सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने संसद में बयान दिया था कि टेलीफोन पर लोगों की बातचीत सुनने से सरकार को रोकने के कानूनी प्रावधान इतने व्यापक एवं जटिल हैं कि इतने बड़े स्तर पर किसी की निजता का उल्लंघन कर पाना लगभग नामुमकिन है। विपक्ष इस बयान एवं अन्य संसदीय साधनों का इस्तेमाल सरकार से संबंधित सवाल पूछने, सरकार से जवाब-तलब करने में कर सकता था। लेकिन ऐसा करने के बजाय उसने कागजात छीनने, शीशे की बनी खिड़कियां तोडऩे और नारेबाजी करने का ही तरीका अपनाया।हालांकि सरकार पर विपक्ष का भरोसा बढ़ पाना मुश्किल लग रहा है। पेगासस मसले पर लगभग पूरे विपक्ष के एक साथ खड़ा हो जाने से सरकार को तमाम विधायी कार्य पूरा करने में किसी तरह की संसदीय बाधा का भी सामना नहीं करना पड़ा है। सरकार ने मौका देखते हुए आनन-फानन में विधेयकों, अध्यादेशों एवं कानूनों पर संसद की मुहर लगवा ली। और निश्चित रूप से विपक्ष को यह कदम रास नहीं आएगा। सरकार के मुखर विरोधी करने वाले तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की सांसद काकोली घोष दस्तीदार कहती हैं, '21 मिनट से भी कम समय में 25 विधेयक पारित कर दिए गए। लोकसभा और राज्यसभा में इन सभी विधेयकों को बिना किसी चर्चा के पारित कराया गया है। अगर यही सिलसिला जारी रहा तो लोकतंत्र खत्म ही हो जाएगा। इस तरह का तानाशाही भरा रवैया कभी नहीं देखा गया है। सरकार अध्यादेशों का तरीका अपना रही है। कार्य मंत्रणा समिति की हालत किसी जनरल स्टोर जैसी हो गई है। हम मूल्य-वृद्धि, कोविड महामारी जैसे मसलों पर बहस चाहते थे लेकिन इन पर कोई चर्चा ही नहीं हुई।'ऐसी स्थिति में विपक्षी दलों के पास क्या विकल्प बचा है? इसके जवाब में तिवारी कहते हैं, 'हमारे पक्ष में सबसे बड़ा कारक हमारी एकता है।' हालांकि इसी से यह सवाल भी खड़ा होता है कि विपक्ष क्या वाकई में एकजुट है? जदयू का अपने सहयोगी दल भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार के खिलाफ खुलकर आना विपक्ष के लिए एक अच्छी खबर हो सकती है। लेकिन बीजू जनता दल (बीजद) इस मुद्दे पर खामोश है। दरअसल ओडिशा में इस समय स्थानीय चुनाव चल रहे हैं जहां पर बीजद एवं भाजपा के बीच जमीनी स्तर पर कड़ा मुकाबला है। राज्यसभा में छह सांसदों वाले अन्नाद्रमुक ने भी पेगासस मसले पर अपना रुख अभी तक साफ नहीं किया है। इसी तरह तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) और वाईएसआर कांग्रेस भी विपक्ष के साथ नहीं आए हैं। वे न तो सरकार के साथ हैं और न ही विपक्ष के साथ। सबसे अजीब स्थिति तो शिरोमणि अकाली दल की है। पंजाब में अगले कुछ महीनों में ही चुनाव होने वाले हैं जहां पर उसे कांग्रेस का मुकाबला करना है। पहले अकाली दल केंद्र सरकार का ही हिस्सा था लेकिन कृषि कानूनों के विरोध में वह अलग हो गया। उसके लिए अब भाजपा के साथ अपने जुड़ाव को सही ठहरा पाना नामुमकिन हो चुका है। लेकिन उसके लिए कांग्रेस के साथ खड़े होना भी उतना ही असंभव है। पंजाब चुनाव में मुख्य मुकाबला इन्हीं दो दलों के बीच होना है। अकाली दल ने खुद को मुख्य विपक्षी ताकत के तौर पर पेश करने के लिए अपने सहयोगी दल बहुजन समाज पार्टी (बसपा), वामदल और कुछ अन्य दलों को लेकर राष्टï्रपति से भी मुलाकात की। इस विपक्षी प्रतिनिधिमंडल ने अपने ज्ञापन में आरोप लगाया कि सरकार विपक्ष की आवाज को अनसुना कर रही है। वैसे अकाली दल की मुश्किल यह है कि सरकार ही नहीं विपक्षी दल भी उसकी बात नहीं सुन रहे हैं। विभिन्न दलों के बीच राज्यों के स्तर पर मौजूद तमाम गतिरोधों के बावजूद मॉनसून सत्र में विपक्षी खेमा काफी हद तक एकजुट नजर आया है। लेकिन अहम सवाल यह है कि इस एकजुटता का क्या कोई मायने भी रह गया है?
