वैश्विक कारोबार और जलवायु परिवर्तन की बढ़ती समस्या | जमीनी हकीकत | | सुनीता नारायण / August 10, 2021 | | | | |
क्या भारत को यूरोपीय संघ की कार्बन बॉर्डर टैक्स योजना का विरोध करना चाहिए? इसके तहत उन देशों से आयातित एल्युमीनियम, स्टील, सीमेंट और बिजली जैसी वस्तुओं पर शुल्क लगाया जाना है जिनके यहां ग्रीनहाउस गैस के मानक कम कड़े हैं। इसका जवाब 'हां' और 'नहीं' दोनों हैं। इसकी जटिलताएं मैं आपके सामने स्पष्ट करूंगी क्योंकि वैश्विक व्यापार ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से प्रत्यक्ष तौर पर जुड़ा हुआ है। यूरोपीय संघ ऐसा करके अन्य देशों पर दबाव बनाना चाहता है ताकि वे भी ऐसे ही कर लगाएं ताकि उत्सर्जन में कमी आए। सवाल यह है कि क्या यह योजना जो पहले से असमान विश्व में संरक्षणवाद को बढ़ावा देने वाली है, हमें ऐसे सहकारी विश्व की ओर ले जाएगी जिसकी जरूरत जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए है।
सन 1990 के दशक के आरंभ में जब वैश्विक नेता जलवायु परिवर्तन संबंधी ढांचे पर चर्चा और हस्ताक्षर के लिए साथ आए तो उन्होंने पारिस्थितिकी वैश्वीकरण को पहचाना। यह बात समझी गई कि उत्सर्जन से पृथ्वी की गर्माहट बढ़ेगी और मौसम में ऐसे बदलाव आएंगे जो किसी देश की सीमा नहीं पहचानेंगे। यह बात भी सबको पता चल चुकी थी कि कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में सदियों तक रहने वाली गैस है। यानी सन 1780 के दशक में औद्योगिक क्रांति के आरंभ में उत्सर्जित गैस अभी भी वातावरण में है और तापमान बढ़ाने में योगदान कर रही है।
मैं यह जाना-पहचाना तथ्य इस बात पर जोर देने के लिए दोहरा रही हूं कि पारिस्थितिकी वैश्वीकरण के तहत विभिन्न देशों को एक साथ भी आना होगा और अपने-अपने स्तर पर भी काम करना होगा। जलवायु परिवर्तन से निपटने के क्रम में समता का बहुत महत्त्व था। यह कोई नैतिक प्रश्न नहीं बल्कि एक अनिवार्यता थी। यदि अमीर देशों ने अतीत में उत्सर्जन किया तो गरीब देश अपने विकास के लिए भविष्य में उत्सर्जन करेंगे। लेकिन यही वह समय था जब दुनिया मुक्त व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर करके दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को जोड़ रही थी ताकि वैश्विक कारोबार फलफूल सके। इस गतिविधि (जिसका भारत समेत विकासशील देशों ने भारी विरोध किया) की वजह यह थी कि पहले से अमीर देशों में उत्पादन की लागत बहुत अधिक हो चुकी थी। ऐसे में उनके लिए चीन समेत दुनिया के उन हिस्सों में उद्योग लगाना सस्ता था जहां श्रम का मूल्य कम था, श्रमिक आसानी से मिल सकते थे और पर्यावरण मानकों का उल्लंघन किया जा सकता था। तरीका कारगर रहा। उत्पादन लागत कम होने से अमीर देशों में खपत बेहतर हुई और आर्थिक वृद्धि बेहतर हुई।
तब से अब तक तीन दशक में दुनिया नाटकीय ढंग से बदल चुकी है। आज, चीन बहुत बड़ा निर्यातक है। वह अमेरिका सहित सभी देशों को पीछे छोड़ चुका है। महामारी के कारण दुनिया के कई देश आर्थिक मोर्चे पर पिछड़ गए जबकि वैश्विक कारोबार में चीन की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है। ऐेसे में आश्चर्य नहीं कि चीन दुनिया का सबसे बड़ा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक है। सन 2020 में उसने 10.35 गीगा टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन किया। अमेरिका 5 गीगाटन उत्सर्जन के साथ दूसरे स्थान पर है। इस तरह अमीर देशों ने अपना उत्सर्जन भी अन्य देशों को 'निर्यात' कर दिया और सस्ती दरों पर वस्तुओं का उपभोग जारी रखा। सन 2015 में एक औसत अमेरिकी व्यक्ति सन 1990 की तुलना में 50 फीसदी अधिक वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग करता था।
वास्तविक समस्या यह है कि अमीर देशों ने अपना उत्सर्जन कम नहीं किया। इसलिए विनिर्माण अन्य देशों में जाने के बावजूद वस्तुओं और बिजली की बदौलत उनका उत्सर्जन बढऩा जारी रहा। इस बीच चीन, भारत, ब्राजील, इंडोनेशिया, वियतनाम आदि का उत्सर्जन बढ़ा। यूरोपीय संघ चाहता है कि कार्बन बॉर्डर टैक्स के जरिये इसे रोका जाए। लेकिन यह तरीका काफी विभाजनकारी और गलत है। तथ्य यह है कि मुक्त व्यापार के पुराने अगुआ अब रंग बदल चुके हैं। संरक्षणवाद बढ़ रहा है क्योंकि वे अब देश में निर्माण करना चाहते हैं और यूरोपीय संघ भी इनसे अलग नहीं है। लेकिन आज का विश्व बदल चुका है। पहले जिनकी सुनवाई नहीं थी अब वे इस व्यवस्था में हैं। उन्हें लगता है कि वृद्धि तब होती है जब वे सस्ती वस्तुएं बनाकर उन्हें दुनिया को निर्यात करते हैं। सवाल यह है कि इस पूरी व्यवस्था को महज एक कदम उठाकर कैसे सुधारा जा सकता है? इससे वस्तुओं और उत्सर्जन के नए-पुराने उत्पादकों के बीच अविश्वास बढ़ेगा।
एक तथ्य यह भी है कि बॉर्डर टैक्स से यूरोपीय संघ का राजस्व बढ़ेगा। संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास सम्मेलन (अंकटाड) का अनुमान है कि करीब 44 डॉलर प्रति टन कार्बन बॉर्डर समायोजन प्रणाली आय (इसे सीबीएएम कहा जा रहा है) से यूरोपीय संघ को 2.5 अरब डॉलर राशि मिलेगी जबकि निर्यातक देशों को इस आय में 5.9 अरब डॉलर की हानि होगी। इससे असमानता और बढ़ेगी तथा यह किसी हालत में उत्पादन-खपत रुझान बदलने और उत्सर्जन कम करने में मददगार नहीं साबित होगा। दुनिया वैश्विक व्यापार और खपत के सवालों से बच नहीं सकती। उसे कार्बन कर की आवश्यकता है जो खपत को हतोत्साहित करे और उत्पादन प्रणाली को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाए। परंतु यूरोपीय संघ के कार्बन बॉर्डर कर समेत इस कर से संग्रहीत राशि को उन देशों में व्यय किया जाना चाहिए जो जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित हुए हों। यदि जलवायु परिवर्तन वैश्विक समस्या है तो उसका हल भी वैश्विक होगा। यूरोपीय संघ का कार्बन बॉर्डर कर इस दिशा में प्रगतिशील कदम नहीं है।
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