शेयर बाजार के मानक सूचकांक इस सप्ताह अब तक के अपने उच्चतम स्तर पर पहुंचे और बाजार में निरंतर बनी हुई तेजी कई कंपनियों को सार्वजनिक पेशकश के लिए प्रेरित कर रही है। बहरहाल, शेयर बाजार की स्थिति का सरकार के विनिवेश कार्यक्रम पर अब तक कोई ठोस असर देखने को नहीं मिला है। ताजातरीन आंकड़ों के मुताबिक सरकार चालू वित्त वर्ष में अब तक केवल 7,648.15 करोड़ रुपये की राशि ही जुटा सकी है जबकि पूरे वर्ष का लक्ष्य 1.75 लाख करोड़ रुपये का है। ऐसे में यह बात चकित करने वाली है कि सरकार ने हाल ही में सरकारी उपक्रमों में अपनी हिस्सेदारी बेचने के एक महत्त्वपूर्ण विकल्प को अवरुद्ध कर दिया। सरकार ने एक अधिसूचना के जरिये स्वयं को अधिकार संपन्न बनाया ताकि किसी भी सूचीबद्ध सरकारी कंपनी को न्यूनतम सार्वजनिक अंशधारिता के मानक के अनुपालन से रियायत मिल जाए। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के नियमों के मुताबिक सभी सूचीबद्ध कंपनियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे न्यूनतम 25 फीसदी सार्वजनिक हिस्सेदारी रखें। स्टॉक एक्सचेंजों पर सूचीबद्ध सरकारी उपक्रमों को इस मानक के अनुपालन के लिए कई बार विस्तार का अवसर दिया गया। इस बात ने इनकी नकदी की स्थिति को प्रभावित किया और कई संस्थागत निवेशकों ने दूरी बनाए रखी। मानो इतना ही पर्याप्त नहीं था तो ऐसे में सरकार ने अब नियमों में भी बदलाव कर दिया है। यह कई स्तरों पर अवांछित और अनुचित है। नियमन का पालन करने के लिए इन कंपनियों में हिस्सेदारी कम करना दरअसल सरकार के लिए संसाधन जुटाने का एक अवसर था। ऐसा करने से व्यय बढ़ाने में मदद मिलती। दलील यह दी गई है कि नियमन का अनुपालन करने के लिए सरकार को जल्दबाजी में अपनी हिस्सेदारी बेचनी पड़ती और सरकार ऐसा करने से बचना चाहती थी। यह दलील विचित्र है क्योंकि सरकार के पास मानकों के पालन के लिए पर्याप्त समय था। निजी क्षेत्र की सूचीबद्ध कंपनियों से अपेक्षा थी कि वे जून 2013 तक नियमन का अनुपालन करेंगी जबकि सरकारी उपक्रमों के लिए शुरुआती समय सीमा अगस्त 2014 की तय की गई। ताजा कदम से यह स्पष्ट हो गया है कि सरकार का इरादा कभी मानकों का पालन करने का था ही नहीं। कई सरकारी बैंकों और अन्य कंपनियों में सरकार की हिस्सेदारी 90 प्रतिशत से अधिक है। नैशनल स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध 77 सरकारी उपक्रमों में से 27 की सार्वजनिक अंशधारिता 25 फीसदी से कम है। इस दलील में दम हो सकता है कि बड़ी सूचीबद्ध कंपनियों को और समय दिया जाना चाहिए क्योंकि शेयरों की आपूर्ति में अचानक इजाफा होने से कीमतों पर असर हो सकता है लेकिन सरकारी और निजी कंपनियों के लिए नियम तो एक समान होने चाहिए। इतना ही नहीं सरकारी उपक्रमों को रियायत देने का निर्णय सरकार की अपनी ही नीति को पलटने का मामला है। उदाहरण के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जुलाई 2019 के अपने बजट में कहा था कि सरकार सभी सूचीबद्ध कंपनियों में अंशधारिता के मानक पूरे करने के लिए जरूरी कदम उठाएगी। उन्होंने यह भी कहा कि सेबी से कहा गया है कि वह न्यूनतम सार्वजनिक अंशधारिता को 25 फीसदी से बढ़ाकर 35 फीसदी कर दे। न्यूनतम सार्वजनिक अंशधारिता बढ़ाने की प्रतिबद्धता की स्पष्ट अवमानना है और सरकारी कंपनियों के लिए अचानक नियम बदल देना भी बाजार नियामक की छवि धूमिल करता है। यह बताता है कि सरकारी उपक्रमों का संचालन कितने खराब ढंग से हो रहा है। ये कंपनियां ऐतिहासिक रूप से उन नियमों के अनुपालन में पीछे रही हैं जो सूचीबद्ध कंपनियों पर लागू होते हैं। यह बात सरकारी उपक्रमों के मूल्यांकन पर और असर डालेगी तथा सरकार के विनिवेश कार्यक्रम को भी जटिल बनाएगी।
