भारत में 150 साल पहले ब्रिटिश शासनकाल के दौरान महाराष्ट्र के पश्चिमी क्षेत्र के बड़े किसानों ने कर्ज की अनुचित परिपाटी को लेकर आंदोलन किया था और सबकी पहुंच वाले (समावेशी) वित्त संरचना की मांग की थी। लोगों के मुताबिक सहकारिता आंदोलन के बीज यहीं बोए गए। आज देश भर में 8 लाख से अधिक सहकारी समितियां (2018 तक) हैं जिनमें करीब 30 करोड़ सदस्य हैं जो अमेरिका की आबादी के समान है। (भारत के श्रम बल की ताकत 51.8 करोड़ है)। हालांकि इतनी गहरी पहुंच के बावजूद भारत की अर्थव्यवस्था में सहकारिता का योगदान कम होने लगता है। निजी उद्यमों में वृद्धि, इसकी मांग और आपूर्ति की गति, सरकार द्वारा संचालित संस्थानों और योजनाओं के साथ-साथ उनके व्यापक दृष्टिकोण की वजह से भारत में सहकारी समितियों की क्षमता प्रभावित हुई। उदाहरण के तौर पर राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के आंकड़ों के अनुसार, देश में वितरित कुल कृषि ऋ ण में सहकारी समितियों की हिस्सेदारी दो दशकों में 40 फीसदी से कम होकर 10 फीसदी हो गई है। अब सहकारी ऋ ण संस्थाओं की हिस्सेदारी सहकारी समितियों में 70 फीसदी तक हैं और कॉमर्शियल बैंकों के बेहतर सौदे होने की वजह से इनके कारोबार में बड़ी कटौती देखी जा रही है। बाकी के हिस्से में मशहूर सहकारी समितियां चीनी और दूध के क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं। देश में कुल दूध उत्पादन में से केवल 10 प्रतिशत की मार्केटिंग सहकारी समितियों द्वारा की जाती है। चीनी से जुड़ी सहकारी समितियां देश के चीनी उत्पादन के एक-तिहाई से भी कम की मार्केटिंग करती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के दूसरे सबसे अहम शख्स गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में नए सहकारिता मंत्रालय का गठन हो रहा है और इसके जरिये 30 करोड़ साझेदारों को पुनरुद्धार का स्पष्ट संकेत भेजा गया है। भले ही नए मंत्रालय को अपना प्रभाव बनाने में एक या दो साल लग जाते हों लेकिन 2024 में लोकसभा चुनाव से पहले कई भारतीयों के दरवाजे तक पहुंचने में निश्चित रूप से मदद मिलेगी। ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी ऋ ण प्रणाली का उदाहरण देख सकते हैं कि किस तरह उनके पदानुक्रम ढांचे में संस्थाएं काम करती हैं। जमीनी स्तर पर प्राथमिक कृषि ऋ ण समितियां (पैक्स) हैं जो किसानों के सबसे करीब हैं। देश में 95,000 से अधिक पैक्स हैं जिनमें से 65,000 के करीब सक्रिय हैं और इनकी उपस्थिति देश के लगभग सभी गांवों में है जहां 13.1 करोड़ किसान ग्राहक हैं। किसानों के अधिकांश किसान क्रेडिट कार्ड पैक्स में पंजीकृत हैं यानी यह आंकड़ा करीब 3.5 करोड़ का है जबकि कॉमर्शियल बैंकों से 2.3 करोड़ किसान क्रेडिट कार्ड जुड़े हैं वहीं 1.3 करोड़ क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों से जुड़े हैं। हालांकि, पैक्स द्वारा बकाया अल्पकालिक फ सल ऋ ण 2018 में 1.3 लाख करोड़ रुपये था जबकि खेती के लिए बैंक ऋ ण 10 लाख करोड़ रुपये था। उधारकर्ताओं के नजदीक होने के बावजूद पैक्स उस पैमाने पर कारोबार करने में विफ ल हैं। पैक्स के प्रदर्शन की तुलना करने का एक और तरीका है। जिला ऋ ण सहकारी बैंक (डीसीसीबी) जो मध्यम स्तर पर काम करते हैं और पैक्स से कहीं अधिक 3 लाख करोड़ रुपये (2018) के बकाया ऋ ण का रिकॉर्ड है। वहीं राज्य सहकारी बैंकों (एसटीसीबी) का बकाया ऋ ण 1.5 लाख करोड़ रुपये है। डीसीसीबी राज्य सरकारों की मदद से सबसे अधिक वित्तीय सहायता देते हैं जबकि पैक्स इस लिहाज से कमजोर पड़ जाता है। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक किसी वाणिज्यिक बैंक के अंतर्गत काम करते हैं और इनका क्रेडिट पोर्टफोलियो 4.3 लाख करोड़ रुपये का था जिससे यह अंदाजा मिलता है कि कैसे वाणिज्यिक बैंकों ने पिछले कुछ दशकों में इसका सबसे अधिक इस्तेमाल किया है। इस तंत्र से जुड़े लोगों को महसूस होता है कि एक नया मंत्रालय काफी मददगार साबित होगा। पुणे स्थित वैकुंठ मेहता राष्ट्रीय सहकारी प्रबंधन संस्थान में निदेशक हेमा यादव ने कहा, 'पैक्स में कंप्यूटर का तेजी से इस्तेमाल, कोर बैंकिंग समाधान शुरू करने और बड़े पैमाने पर सामाजिक-सामुदायिक संस्थाओं में ग्राहक केंद्रित दृष्टिकोण लाने की उम्मीद की जा सकती है।' भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार, शहरों में शहरी सहकारी बैंकों (यूसीबी) के ऋ ण खाते का दायरा 2004-05 में 1.3 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 2019-20 में 6.2 लाख करोड़ रुपये हो गया है। जिस मुद्दे पर ध्यान देने की जरूरत है वह यह है कि 95 प्रतिशत से अधिक शहरी सहकारी बैंक, अब भी गैर-अनुसूचित बैंक बने हुए हैं।
