वर्ष 2017 से भारतीय अर्थव्यवस्था की गति कुंद पडऩे लगी थी। आर्थिक वृद्धि के प्रारूप में असमानता के साथ देश की अर्थव्यवस्था पहले ही विभिन्न बाधाओं से जूझ रही थी। देश में अनुचित आर्थिक लाभ पाने के चलन से लेकर लचर वित्तीय तंत्र और लगातार निष्प्रभावी हो रही सरकार की वजह से भारत का अर्थ तंत्र लगातार दबाव में रहा है। तो क्या पहले से ही परेशान देश की अर्थव्यवस्था कोविड-19 महामारी की वजह से और फिसल गई है? पिछले दो महीने से गंभीर रूप से बीमार रहने और उसके बाद स्वास्थ्य लाभ के बीच मुझे वर्तमान स्थितियों को नए नजरिये से देखने का अवसर जरूर मिल गया है। हालांकि जो नजर आ रहा है वह उत्साहजनक नहीं है। भारत की वृहद आर्थिक स्थिति और आर्थिक वृद्धि की रफ्तार पहले से ही कमजोर दिख रही थी और अब पिछले एक वर्ष में परिस्थितियां और अधिक बिगड़ गई हैं। देश की आर्थिक वृद्धि दर वर्ष 2016 में 8.26 प्रतिशत थी जो 2019 में कम होकर 4.1 प्रतिशत रह गई। कोविड महामारी की वजह से वर्ष 2020 में भारतीय अर्थव्यवस्था में 7.3 प्रतिशत की गिरावट आई, जो वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में आई 3.3 प्रतिशत गिरावट से दोगुना अधिक है। केंद्र सरकार के समक्ष राजकोषीय घाटा मुंह बाए खड़ा है। कंपनियों का मुनाफा शानदार रहने के बावजूद सरकार कर-जीडीपी अनुपात बढ़ाने में विफल रही है। सरकार को इन प्रतिकूल हालात में विभिन्न सार्वजनिक उपक्रमों में अपनी हिस्सेदारी बेचने की जरूरत आन पड़ी है। सरकार अपनी तय नीति या विचारधारा के तहत विनिवेश की राह पर नहीं चल रही है बल्कि यह उसकी विवशता हो गई है। लेकिन वित्त मंत्रालय के अधिकारी एवं नीति निर्धारक विनिवेश प्रक्रिया को अंजाम देने में विफल रहे हैं। सरकार पिछले पांच लगातार वर्षों से विनिवेश लक्ष्य हासिल नहीं कर पा रही है। अब राजकोषीय स्तर पर कमजोर हो चुकी सरकार हताशा में सार्वजनिक परिसंपत्तियों की हिस्सेदारी बेचने पर आमादा है। कुल कर प्राप्तियों में अप्रत्यक्ष कर का योगदान अब काफी बढ़ गया है। राज्यों को जीएसटी मुआवजा देने में लगातार देरी हो रही है और उन्हें किस्तों में इस रकम का भुगतान हो रहा है। केंद्र सरकार एक के बाद एक उपकर लगा रही है जिससे राज्यों की वित्तीय स्थिति और कमजोर हो रही है। राज्यों को उधार लेने की अनुमति देने की नीति से उनकी वित्तीय स्थिति और प्रभावित हो रही है। पिछले 17 वर्षों में पहली बार भारत ने चालू खाता आधिक्य (आयात के मुकबाले निर्यात अधिक होना) हासिल किया है लेकिन इसकी मूल वजह अर्थव्यवस्था में आई गिरावट है। वैश्विक आर्थिक तंत्र में भारत का निर्यात एवं आयात दोनों घट गया है और इससे इसकी आर्थिक संभावनाओं वाले देश होने की छवि को भी चोट पहुंची है। भारत का विदेश मुद्रा भंडार विदेशी पोर्टफोलियो निवेश के भरोसे छोड़ दिया गया है। यह एक ऐसी स्थिति है जब कमजोर आर्थिक हालात के मद्देनजर सॉवरिन रेटिंग में कमी किए जाने का अंदेशा बढ़ गया है। आर्थिक मोर्चे पर भारत का प्रदर्शन और बिगडऩा कमजोर एवं पिछड़े वर्ग के लोगों को महामारी की मार से बचाने के प्रयासों का नतीजा नहीं है। दरअसल इसका उल्टा हुआ है। प्रवासी मजदूरों की दयनीय स्थिति और ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी एवं हताशा किसी से छुपी नहीं है। बेरोजगारी दर बढ़कर 7.1 प्रतिशत पर पहुंच गई है जो महामारी से पहले 5.3 प्रतिशत थी। ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में गरीबी दिसंबर 2019 से दिसंबर 2020 में क्रमश: 9.3 प्रतिशत और 11.7 प्रतिशत बढ़ गई है। हालांकि महामारी का असर देश के सभी लोगों पर एक समान रूप से नहीं हुआ है। टाटा स्टील ने भारी भरकम लाभांश देने की घोषणा की है वहीं रिलायंस इंडस्ट्रीज कर्ज मुक्त हो गई है। भारत की अग्रणी टीका विनिर्माता कंपनी ने लंदन में एक जगह किराये पर ली है। कोविड महामारी के दौरान उत्पादन थम गया जिसका मतलब है कि वस्तुओं के उत्पादन एवं इनकी बिक्री में कमी आई है। इससे रोजगार में कमी आने के साथ ही वेतन पर भी कैंची चली है। दूसरी तरफ कंपनियों का मुनाफा बढ़ रहा है और शेयर बाजार रोज नई ऊंचाइयां छू रहा है। कर एवं ऋण संबंधी रियायतों से अरबपतियों की संपत्ति में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है। भगोड़े आभूषण कारोबारी और शराब व्यापारी विदेश में आराम की जिंदगी गुजार रहे हैं, वहीं सरकार अपना समय बुजुर्गों एवं कॉलेज के छात्रों को जेल में बंद करने में बरबाद कर रही है। केंद्र सरकार वित्तीय स्तर पर इतनी निष्प्रभावी है कि वह स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का केवल 0.4 प्रतिशत ही व्यय कर पा रही है, जबकि वैश्विक औसत 1.2 प्रतिशत है। सरकार राजकोषीय नीति के जरिये आय या आजीविका देने का भी साहस नहीं जुटा रही है, लेकिन उसे इस बात का भरोसा है कि कंपनी जगत के चूककर्ताओं को 95 प्रतिशत तक रियायत देकर वह वित्तीय तंत्र दुरुस्त कर सकती है! नीतिगत स्तर पर इस नाजुक हालत से प्रभावी ढंग से नहीं निपटा जा रहा है। नीति आयोग एक ऐसी संस्था बन गई है जो हरेक विषय पर विशेष टिप्पणी करती है लेकिन किसी भी समस्या का समाधान इसके पास नहीं होता है। राजनीतिज्ञ ट्विटर पर विशेष हाव-भाव में आत्मविभोर होकर चुनाव के दौरान अनुपयुक्त टिप्पणी एवं वाद-विवाद करते हैं। उन्हें इस बात की जरा भी परवाह नहीं है कि भारत जिन महत्त्वाकांक्षाओं के साथ आगे बढऩा चाह रहा था वह उसमें वह लगातार विफल हो रहा है। वित्त मंत्रालय आए दिन अंगे्रजी के अक्षरों की आकृति वाले आर्थिक सुधार की बात कह रहा है, लेकिन एक गंभीर निष्कर्ष तक पहुंचने में अक्षम रहा है। मंत्रालय यह भी अनुमान नहीं दे पा रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था 2023 या 2024 में कहां खड़ी होगी। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) हरेक तिमाही तकनीकी शब्दों से भरपूर लेकिन विश्लेषण के मामले में नदारद अपनी रिपोर्ट में परिस्थितियों के अनुसार महंगाई के ऊपर या नीचे जाने (दोनों ही, न कि एक ) का अनुमान लगाता रहता है। कोविड-19 संक्रमण से बाहर आने के बाद मुझे ऐसा लगता है कि हालात बदले जा सकते हैं। मेरा मानना है कि अब तक जो भी भयानक आपदाए आई हैं वे टाली जा सकती थीं या उनके असर से बचना संभव था। ऐसी चीजें बदली जा सकती हैं या कुछ हद तक रोकी जा सकती हैं। इन घटनाओं को रोका इसलिए जा सकता है क्योंकि ये निष्क्रियता, लापरवाही और असुरक्षा का नतीजा हैं। अगर सभी मोर्चों पर सतर्क रहा जाए तो मानव समाज को परेशान करने वाली घटनाएं नियंत्रित की जा सकती हैं। हालांकि वर्तमान परिस्थितियों में हमें यह भी देखना होगा कि क्या केवल सरकार को दोष देने से चीजें दुरुस्त हो जाएंगी या दूसरे कारकों पर भी विचार होना चाहिए। क्या भारत में सामाजिक-आर्थिक बदलाव और संपन्नता लाने के लिए हमारे नेताओं ने लोकतंत्र में जनादेश हासिल कर लिया है? या हमारी अपेक्षाएं इतनी कम हैंं, या फिर समाज में असुरक्षा का भाव इतना अधिक है कि हमारे नेताओं को खोखले वादे करने और अपना उल्लू सीधा करने का पुरस्कार मिलता है? अब भी देरी नहीं हुई है। हम एकजुट होकर कोविड-19 महामारी से मिलकर लड़ सकते हैं और अपने समक्ष पैदा हो रही कठिन परिस्थितियों से निपट सकते हैं। (लेखक ओडीआई लंदन के प्रबंध निदेशक हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं।)
