औद्योगिक गैसें असल में महीन हवा से उत्पन्न की जाती हैं, जिसमें किसी कच्चे माल की जरूरत नहीं होती है। चूंकि वायुमंडलीय हवा में 78 प्रतिशत नाइट्रोजन और 21 प्रतिशत ऑक्सीजन शामिल रहती है तथा अन्य गैसों का योगदान एक प्रतिशत रहता है, इसलिए इन चीजों को अलग से प्राप्त करने के लिए एक प्रक्रिया की आवश्यकता होती है, जिसमें संपीडऩ, ठंडा करने और पृथक करने वाली तकनीकों का उपयोग किया जाता है। देश में मेडिकल ऑक्सीजन की मांग बढऩे की वजह से टाटा एडवांस्ड सिस्टम्स लिमिटेड और ट्राइडेंट न्यूमैटिक्स का इरादा सीधे वायुमंडलीय हवा से ऑक्सीजन पैदा करने के लिए रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) द्वारा लड़ाकू विमानों के लिए प्रेशर स्विंग एडसोप्र्शन (पीएसए) और आणविक छननी (जिओलाइट) की स्थापना के लिए विकसित तकनीक का उपयोग करने का है। डीआरडीओ की तकनीक ऑन-बोर्ड ऑक्सीजन जनरेटिंग सिस्टम (ओबीओजीएस) की उपशाखा है, जो विमान के इंजन से ब्लीड एयर का उपयोग करके और आणविक छनन वाली पीएसए तकनीक का इस्तेमाल करते हुए इसके घटकों को अलग करके तरल ऑक्सीजन प्रणाली (एलओएक्स) को परिवर्तित कर देती है। इस प्रणाली में वायुकर्मीदल को सांस लेने वाली गैस उपलब्ध कराने के लिए ऑक्सीजन प्लेनम के साथ आणविक छननी वाले दो बिस्तर होते हैं। भारत इस तकनीक को विकसित करने वाला विश्व का चौथा देश है।मेडिकल ऑक्सीजन संयंत्र कही जाने वाली इस तकनीक को डीआरडीओ द्वारा हल्के लड़ाकू विमान तेजस के लिए ऑन-बोर्ड ऑक्सीजन उत्पादन के लिए विकसित किया गया है। इस तकनीक का उपयोग उत्तर-पूर्व और लद्दाख में सेना की चौकियों और लड़ाकू पायलटों को ऑक्सीजन का सहारा प्रदान करने के लिए किया जाता है, क्योंकि अधिक ऊंचाई पर हवा में ऑक्सीजन की मात्रा कम रहती है। विशेषज्ञों का कहना है कि एलओएक्स प्रणाली के मुकाबले ओबीओजीएस ज्यादा सुविधाजनक है। इसके लिए नियमित रखरखाव की आवश्यकता नहीं होती है, लेकिन इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ओबीओजीएस तरलीकृत ऑक्सीजन के भंडारण और परिवहन की जरूरत खत्म कर देती है। कोविड की दूसरी लहर के चरम पर भारत की असली दिक्कत ऑक्सीजन की आपूर्ति नहीं थी, बल्कि इसे देश के विभिन्न हिस्सों में ले जाने की क्षमता थी।यह बात जानना महत्त्वपूर्ण है कि गैसों से ऑक्सीजन कैसे उत्पन्न की जाती है। गैस उत्पादन के लिए दो तकनीकों - क्रायोजेनिक और गैर-क्रायोजेनिक का उपयोग किया जाता है। क्रायोजेनिक्स बहुत ठंडे तापमान (शून्य से 150 डिग्री सेंटीग्रेड नीचे) से संबंधित होती है और इसका इस्तेमाल गैसों के उत्पादन तथा परिवहन दोनों के लिए ही किया जाता है। हवा को शून्य से 197 डिग्री सेंटीग्रेड नीचे तक ठंडा किया जाता है। बाद में ऑक्सीजन, नाइट्रोजन और आर्गन को अलग करने के लिए एक डिस्टिलेशन कॉलम इस्तेमाल किया जाता है। वैश्विक महामारी के कारण जब देश में मेडिकल ऑक्सीजन की मांग बढ़ी, तो औद्योगिक गैस उत्पादकों ने अपनी सारी क्षमता उत्पादन बढ़ाने की दिशा में लगा दी। औद्योगिक गैस संयंत्रों में प्रशीतन क्षमता रहती है, जो हवा को संपीडि़त करके पैदा होती है। इन संयंत्रों में इस्तेमाल किए जाने वाले कंप्रेशर कमरों को ठंडा करने वाले और अन्य औद्योगिक अनुप्रयोगों में प्रयुक्त किए जाने वाले कंप्रेसर के समान होते हैं और इसलिए एल्गी इक्विपमेंट्स जैसी कंपनियों ने, जिनकी भारत, इटली और अमेरिका में विनिर्माण सुविधाएं हैं, मांग पूरी करने में मदद के लिए क्षमता में इजाफा कर दिया था।संपीडि़त हवा को टरबाइन में विस्तारित किया जाता है, ताकि प्रशीतन पैदा किया जा सके। लिंडे साउथ एशिया प्राइवेट लिमिटेड के दक्षिण एशिया प्रमुख (गैस) मलय बनर्जी कहते हैं 'हमने इस बात का आकलन किया कि इन टरबाइनों में हमारे पास कितनी क्षमता है। हमने तरल नाइट्रोजन और आर्गन उत्पादन में कटौती कर दी, ताकि उस ठंडक का रुख और अधिक तरल ऑक्सीजन का उत्पादन करने की ओर किया जा सके, जिसका इस्तेमाल उनके उत्पादन के लिए किया जाता था।' गैर-क्रायोजेनिक तकनीक के दो तरीके हैं - पीएसए और वैक्यूम प्रेशर स्विंग एडसॉप्र्शन या वीपीएसए। यह तकनीक हवा को आस-पास वाले तापमान पर रखती है और उसके तत्वों को अलग-अलग करने के लिए आणविक छननी (जो स्क्रबर की तरह होती है और किसी फिल्टर के रूप में काम करती है) का उपयोग करती है। ये आणविक छननी पीएसए संयंत्रों का हृदय होती हैं, जिन्हें अब देश भर में ऑक्सीजन उत्पादन के लिए स्थापित किया जा रहा है। वीपीएसए संयंत्र इस तकनीक का ही एक प्रकार है।बनर्जी बताते हैं कि इन छननी का विनिर्माण लिंडे जर्मनी करती है। ये किसी यौगिक के छोटे पेलेटों की तरह होते हैं, जिनमें कुछ खास गैसों को ग्रहण करने की क्षमता वाली सतह होती हैं। किस गैस को ग्रहण करना है, यह छननी की प्रकृति पर निर्भर करता है और बाकी गैसों को गुजरने दिया जाता है। हवा को इन पेलेटों के ऊपर से प्रवाहित किया जाता है और वे हवा के तत्त्वों में से एक को चुनकर सोख लेते हैं तथा दूसरों को गुजरने देते हैं। वह कहते हैं कि अवशोषित करने की क्षमता दबाव के साथ बढ़ जाती है और अगर आप हवा पर दबाव डालते हैं, तो यह चुनिंदा तरीके से ऑक्सीजन को अवशोषित कर लेगा, जिसके बाद आप ऑक्सीजन को छोडऩे के लिए दबाव हटा देते हैं। ओबीओजीएस प्रणाली पर आधारित ऑक्सीजन संयंत्र को 1,000 लीटर प्रति मिनट (एलपीएम) का उत्पादन करने के लिए तैयार किया गया है। यह प्रणाली पांच एलपीएम की प्रवाह दर से 190 रोगियों को ऑक्सीजन की आपूर्ति कर सकती है और एक दिन में 195 सिलिंडर भर सकती है। जहां एक ओर टाटा एडवांस्ड सिस्टम्स का इरादा ऐसे 332 संयंत्र लगाने का है, वहीं ट्राइडेंट न्यूमैटिक्स देश भर के विभिन्न अस्पतालों में 48 संयंत्र स्थापित करेगी। देहरादून के भारतीय पेट्रोलियम संस्थान के साथ काम करने वाली कंपनियों द्वारा 500 एलपीएम क्षमता वाले करीब 120 संयंत्रों का उत्पादन किया जाना है।
