मीडिया में आई हालिया टिप्पणियों में इस बात को चिंता के साथ रेखांकित किया गया है कि मुद्रास्फीति को तय दायरे में रखने के भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के आदेश में हल्का परिवर्तन आया है। कई टिप्पणीकारों का उचित ही यह मानना है कि केंद्रीय बैंक ने शायद मुद्रास्फीति पर वृद्धि को वरीयता देकर गलती की है। मुद्रास्फीति का मौजूदा चरण अस्थायी है लेकिन हमारा अनुभव यही है कि बढ़ी मुद्रास्फीति को आसानी से भुलाया नहींं जा सकता। ऐसे में यह अपील की जा रही है कि केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति को 4 फीसदी के दायरे में रखने के प्राथमिक लक्ष्य को पूरा करे, हालांकि इसकी अधिकतम सीमा 6 और न्यूनतम सीमा 2 फीसदी है। आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति की जून के आरंभ में हुई बैठक का ब्योरा ऐसी बातों को और हवा देता है। समिति ने राजकोषीय, मौद्रिक और क्षेत्रवार नीतिगत समर्थन की जरूरत को रेखांकित करते हुए यह तय किया कि 4 फीसदी की मौजूदा रीपो दर बरकरार रखी जाए और वृद्धि में नई जान फूंकने और उसे स्थायित्व देने तथा अर्थव्यवस्था पर से कोविड-19 का असर कम करने के लिए जब तक आवश्यक हो तब तक वृद्धि को समर्थन दिया जाए। हालांकि समिति ने इस दौरान मुद्रास्फीति को भी तय दायरे में रखने की बात कही। कह सकते हैं कि समिति ने जानबूझकर वृद्धि को मुद्रास्फीति पर तवज्जो देना चुना। शायद वे इस बात से प्रभावित थे कि खुदरा महंगाई दिसंबर 2020 से अप्रैल 2021 के बीच तय दायरे में रही। मई 2021 के अंत में मुद्रास्फीति 6 फीसदी की उच्चतम सीमा पार कर गई लेकिन ये आंकड़े जून के आरंभ में समिति की बैठक के समय जारी नहीं हुए थे। वर्ष 2021-22 में खुदरा मुद्रास्फीति के 5.1 फीसदी रहने का अनुमान जताया गया था जबकि पहली तिमाही में आंकड़े 5.2 फीसदी, दूसरी में 5.4 फीसदी, तीसरी में 4.7 फीसदी और चौथी तिमाही में 5.3 फीसदी आंकड़े रहने की बात कही गई थी। इस अनुमान के बीच समिति ने वृद्धि को बढ़ावा देने का निर्णय लिया क्योंकि अर्थव्यवस्था को भी कोविड की दूसरी लहर से जल्द से जल्द निजात दिलाने की आवश्यकता थी। अगर ये अनुमान गलत साबित हुए तब जरूर चिंता की बात हो सकती है। देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थानीय लॉकडाउन का पूरा प्रभाव खुदरा मुद्रास्फीति पर दिखना शेष है। यदि इस तिमाही में 5.2 फीसदी के दायरे में रहना है तो जून में खुदरा महंगाई को घटकर 5 फीसदी तक रहना होगा। क्या ऐसा होगा? याद रहे कि अप्रैल और मई में मुद्रास्फीति की दर क्रमश: 4.2 और 6.3 फीसदी थी। परंतु यदि अगले कुछ महीनों या तीन तिमाहियों में मुद्रास्फीति 6 फीसदी के स्तर से अधिक रहती है तो चिंता बढ़ेगी। यह न केवल अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर डालेगा बल्कि समिति के एक अहम प्रावधान के अनुपालन को भी प्रभावित करेगा जो आरबीआई अधिनियम में संशोधन के बाद बनी मुद्रास्फीति को लक्षित करने वाली व्यवस्था से संबद्ध है। अनुपालन के प्रावधान के अनुसार यदि तीन तिमाहियों तक औसत मुद्रास्फीति 6 फीसदी से अधिक और 2 फीसदी से कम रहती है तो हम मुद्रास्फीतिक लक्ष्य से पीछे रहेंगे। यदि ऐसा हुआ तो आरबीआई को केंद्र सरकार को रिपोर्ट देकर नाकामी की वजह के साथ उपचारात्मक उपाय बताने होंगे और यह भी कि मुद्रास्फीति संबंधी लक्ष्य कब तक हासिल किया जा सकेगा। चिंता की बात यह है कि पिछली बार जब मुद्रास्फीति ने लगातार तीन तिमाहियों तक 6 फीसदी की ऊपरी सीमा का उल्लंघन किया था तब आरबीआई की ओर से ऐसी कोई रिपोर्ट केंद्र सरकार को नहीं दी गई थी। औसत खुदरा मुद्रास्फीति मार्च 2020 में समाप्त तिमाही से दिसंबर 2020 तिमाही तक लगातार चार बार 6 फीसदी के दायरे से ऊपर रही। रिपोर्ट इसलिए नहीं दी गई क्योंकि मौद्रिक नीति समिति ने अगस्त 2020 में निर्णय लिया था कि अप्रैल-मई 2020 के मुद्रास्फीति के आंकड़े नहीं गिने जाएंगे क्योंकि ये महीने लॉकडाउन से बुरी तरह प्रभावित थे। समिति ने इन दोनों महीनों को गिनती से बाहर रखा, हालांकि इसके पीछे दिए गए तर्क पर सवाल उठाए जा सकते थे। आरबीआई अधिनियम में संशोधन के वक्त और मुद्रास्फीति के लिए लक्ष्य तय करते समय सरकार ने स्पष्ट किया था कि इसमें दो फीसदी की गुंजाइश इसलिए दी गई क्योंकि आंकड़ों की अपनी सीमा होती है, अनुमान में चूक हो सकती है और कृषि उत्पादन में अनिश्चितता हो सकती है। माना जा रहा था कि दो फीसदी ऊपर या नीचे की यह गुंजाइश अल्पावधि के झटकों को समायोजित करेगी और मौद्रिक नीति अर्थव्यवस्था में मध्यम अवधि में पारदर्शिता और अनुमन्यता लाने का प्रयास करेगी। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि दो फीसदी ऊपर या नीचे की छूट के कारण एमपीसी को यह अवसर मिलने की आशा थी कि वह अल्पावधि में मुद्रास्फीति और वृद्धि को लेकर उपजी दुविधा को चिह्नित करे और उसे दीर्घावधि में मुद्रास्फीति को लक्षित करने में सक्षम बनाए। प्रश्न यह है कि फिर अप्रैल-मई 2020 के मुद्रास्फीति के आंकड़ों को खुदरा मूल्य सूचकांक शृंखला से बाहर क्यों रखा गया? यदि आंकड़ों की कोई सीमा थी तो क्या दो फीसदी ऊपर या नीचे का दायरा इसी का ध्यान रखने के लिए नहीं तय था? समिति द्वारा लगातार तीन तिमाहियों में मुद्रास्फीति के तय दायरे से ऊपर रहने से संबंधित नियम को तोडऩे की संभवित वजह यही हो सकती है कि वह नाकामी की स्वीकारोक्ति और सरकार को यह बताने से बचना चाहती हो कि केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए क्या कर रहा है। इसमें दो दिक्कतें थीं। पहली यह कि समिति ने मुद्रास्फीति को लेकर अपना नजरिया सरकार के समक्ष स्पष्ट न करने का आसान रास्ता चुना। दूसरा सरकार भी मुद्रास्फीति को लेकर आरबीआई से रिपोर्ट लेने में नाकाम रही जबकि मुद्रास्फीति का दायरा भी उसके लिए उतना ही चिंता का विषय है जितना कि वृद्धि। कोविड-19 की दूसरी लहर मई और जून 2021 के आंकड़ा संग्रह पर भी नकारात्मक असर डाल चुका हो। यदि भारत उच्च मुद्रास्फीति के एक और चरण में प्रवेश कर रहा है तो शायद सरकार और आरबीआई दोनों के लिए यह अहम होगा कि वह आंकड़ों के सीमित होने की शरण ने ले और मुद्रास्फीति की स्थिति को लेकर स्पष्टीकरण देने से न बचे। ऐसी रिपोर्ट पेश करने से मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की ओर ध्यान जाएगा। सबसे अहम बात यह है कि रिपोर्ट पेश होने से मुद्रास्फीति पर नियंत्रण की ओर ध्यान आकृष्ट होगा। इससे भी अहम बात यह है कि रिपोर्ट आम जनता को प्रभावित करने वाले इस अहम विषय को लेकर बहस उत्पन्न करेगी। इससे सरकार को भी नागरिकों को महंगाई से बचाने के लिए नीतिगत विकल्प तलाशने में मदद मिलेगी।
