देश के नागरिकों और कारोबारियों को महामारी की दिक्कत से संरक्षित करने के लिए नीतियां बनाने वाले नीति निर्माताओं के समक्ष एक बड़ी बाधा यह है कि उनके पास उच्च गुणवत्ता वाले आंकड़ों का अभाव है। जब यही पता नहीं होगा कि इस असाधारण संकट ने आम परिवारों और कारोबारी गतिविधियों को किस तरह प्रभावित किया है तो इस संबंध में नीतियां बनाना भी निश्चित रूप से कठिन है। रोजगार की उपलब्धता से लेकर प्रवासन और खपत के चयन तक सभी क्षेत्रों पर महामारी के प्रभाव का आकलन करने के लिए आंकड़े जरूरी हैं। निजी क्षेत्र के कुछ आंकड़ों का इस्तेमाल करके समृद्धि या आर्थिक सुधार को लेकर व्यापक संकेत निकालने का प्रयास किया गया है। अर्थशास्त्रियों और निवेशकों ने भी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) कंज्यूमर पिरामिड्स हाउसहोल्ड सर्वे या सीपीएचएस का रुख किया। सीपीएचएस ने महामारी के असर के बारे में कठोर निष्कर्ष दिए हैं। इनके मुताबिक महामारी के कारण 97 फीसदी परिवारों की आय प्रभावित हुई जबकि दूसरी लहर के दौरान एक करोड़ लोग बेरोजगार हुए। ये आंकड़े महामारी की गंभीरता बताते हुए राहत और बचाव के प्रयासों की जरूरत पर बल देते हैं। यद्यपि सीपीएचएस को लेकर स्वयं सरकार और वाम रुझान वाले अकादमिक विद्वानों के बीच विवाद रहा है। ज्यां द्रेज और अन्य विद्वानों ने सीपीएचएस द्वारा अपनाई गई प्रविधि की आलोचना करते हुए कहा कि उसके नमूने अधिक संपन्न वर्ग की ओर झुकाव रखने वाले थे। कहने का तात्पर्य यह है कि जिन परिवारों का सर्वेक्षण किया गया वे शहरी इलाकों की मुख्य सड़कों पर रहने वाले थे, ऐसे में शायद पीछे की गलियों में और अंदरूनी इलाकों में रहने वाले गरीब परिवारों का सर्वे में व्यवस्थित प्रतिनिधित्व नहीं हो सका। सीएमआईई ने इन चिंताओं पर प्रतिक्रिया में कहा है कि सर्वे इतने बड़े पैमाने पर किया गया कि उसमें अंदरूनी गलियों में रहने वाले परिवारों का प्रतिनिधित्व निश्चित तौर पर हुआ है। चाहे जो भी हो स्वतंत्र अर्थशास्त्रियों की आलोचना सही है और उसका इस्तेमाल सीपीएचएस में सुधार के लिए किया जाना चाहिए। सरकार के अर्थशास्त्रियों ने सीपीएचएस के आधार पर ही हमला बोला है। इससे संकेत निकलता है कि उन्हें नहीं लगता कि यह अर्थव्यवस्था की सही तस्वीर पेश करता है। उनका कहना है कि सीपीएचएस के आंकड़ों में एक पहेलीनुमा बात यह है कि हाल के दिनों में सीपीएचएस उत्पादन वृद्धि से नकारात्मक रूप से संबद्ध दिखता है। परंतु जैसा कि सीएमआईई का संकेत है उन्होंने वास्तविक नहीं सांकेतिक उत्पादन का प्रयोग किया है। उनकी यह दलील भी है कि सरकार द्वारा संचालित पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे अथवा पीएलएफएस के उलट सीपीएचएस रोजगार की अधिक सामान्यीकृत तथा कड़ी परिभाषा इस्तेमाल करता है: क्या प्रतिभागी उस दिन या एक दिन पहले रोजगारशुदा था? जबकि पीएलएफएस यह सवाल पूछता है कि क्या प्रतिभागी पिछले सात दिनों में एक घंटे के लिए भी रोजगारशुदा था। इन सवालों को लेकर अर्थशास्त्रियों में असहमति हो सकती है लेकिन यह अंतर सीपीएचएस द्वारा चिह्नित व्यापक रुझानों को नहीं नकार सकता। ऐसे में भारतीय अर्थव्यवस्था के पर्यवेक्षकों द्वारा इसकी अनदेखी करने की कोई वजह नहीं। यदि सरकार सीपीएचएस के आंकड़ों के प्रयोग को लेकर चिंतित है तो उसे आंकड़ों की आलोचना में कम समय लगाना चाहिए और आर्थिक आंकड़ों के संग्रह और उन्हें जारी करने में सुधार पर अधिक ध्यान देना चाहिए। खासतौर पर उच्च तीव्रता वाले आंकड़े। उदाहरण के लिए पीएलएफएस के आंकड़े काफी अंतराल के बाद जारी होते हैं और ये इतने अनियमित हैं कि इन्हें किसी सार्थक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। भारत को सांख्यिकी के क्षेत्र में 21वीं सदी के उपयुक्त उपाय अपनाने होंगे। अमेरिका का ब्यूरो ऑफ लेबर स्टैटिसटिक्स बेरोजगारी का अनुमान चालू जनसंख्या सर्वेक्षण के आधार पर करता है जो स्थायी जनगणना कर्मचारियों की सहायता से देश के 60,000 परिवारों से संपर्क करता है। भारत में भी ऐसी प्रणाली अपनाने की आवश्यकता है।
