तीन दशक पहले जून महीने की 21 तारीख को नरसिंह राव सरकार ने शपथ ली थी और उन व्यापक सुधारों की शुरुआत हुई थी जिन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था की दिशा और गति दोनों बदल दी थी। बीते 30 वर्ष में वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी तीन गुना बढ़कर 1.1 फीसदी से 3.3 फीसदी हो गई है। अमेरिकी डॉलर में देखें तो अर्थव्यवस्था का आकार 11 गुना बढ़ा है। केवल चीन और वियतनाम का प्रदर्शन ही हमसे बेहतर रहा है। मानव विकास के प्रमुख सूचकांकों (प्रमुख तौर पर जीवन संभाव्यता और साक्षरता) पर भारत ने मध्यम विकास वाले देशों के औसत से थोड़ा बेहतर प्रदर्शन किया है। भारत के 12वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था से इस साल छठी सबसे बड़ी होने की उम्मीद है। अन्य देशों से तुलना करें तो यह प्रदर्शन अच्छा नजर आता है। खुद भारत के इससे पिछले तीन दशकों की तुलना में यह बेहतर है लेकिन फिर भी हमारा प्रदर्शन इससे बेहतर हो सकता था। बहुत बड़ी तादाद में लोग गरीबी रेखा से ऊपर निकले हैं। इसके बावजूद अफ्रीका के बाहर के देशों में (व्यापक गरीबी के मामले में अफ्रीका ने एशिया की जगह ले ली है) भारत सर्वाधिक गरीब आबादी वाला देश है। प्रति व्यक्ति आय की बात करें तो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पास सन 1990 में जिन 150 अर्थव्यवस्थाओं के आंकड़े थे, उनमें से 90 प्रतिशत ने भारत से अच्छा प्रदर्शन किया था। आज देखा जाए तो करीब 195 देशों में से 75 प्रतिशत का प्रदर्शन भारत से बेहतर है। प्रति व्यक्ति आय के मामले में हम आज भी वैश्विक औसत के पांचवें हिस्से से भी नीचे हैं। असमानता बढ़ी है लेकिन 2011 के बाद से कोई विश्वसनीय आंकड़ा भी नहीं आया है। बीते 30 वर्षों की कहानी में भी एकरूपता नहीं है। पहले दो दशकों का प्रदर्शन तीसरे दशक (2011-2021) से बेहतर रहा। कई देश जिनका प्रदर्शन पहले भारत के प्रदर्शन की छाया में दब रहा था, अब वे बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। खासतौर पर बांग्लादेश और फिलीपींस। चीन और वियतनाम तो हैं ही। अगर 2011-2021 के बीच लैटिन अमेरिका के जीडीपी में आई गिरावट, सब-सहारा अफ्रीका के संकट और आसियान के पांच देशों के प्रदर्शन से तुलना की जाए तो भारत अभी भी अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में दिखता है। परंतु सन 2001 में भारत का जीडीपी चीन के जीडीपी का 37 फीसदी था। दो दशक बाद यह घटकर 18 फीसदी रह गया है। विश्व अर्थव्यवस्था में हमारे बढ़ते योगदान को अंतरराष्ट्रीय महत्त्व मिला है लेकिन चीन के साथ शक्ति संतुलन में हम पिछड़े हैं। सन 2011 की गिरावट के बाद दोबारा गति पकडऩा अपेक्षाकृत कठिन रहा है लेकिन महामारी ने हमारी हालत और अधिक खराब की तथा चुनौतियों में इजाफा किया। रोजगार के क्षेत्र में पहले ही हम विफल रहे हैं, अब हालात दो वर्ष पहले की तुलना में अधिक खराब हैं। लाखों की तादाद में लोग दोबारा गरीबी के दुष्चक्र में फंस गए हैं और लाखों छोटे उपक्रम जो बंद हुए हैं वे शायद दोबारा कभी न खुल पाएं। अर्थव्यवस्था में विरोधाभासी प्रवृत्ति मजबूत होती जा रही है। अर्थव्यवस्था में उत्पादकता को नए सिरे से गति देने और एक साफ-सुथरी व्यवस्था कायम करने की जरूरत है। मोदी सरकार ने भौतिक बुनियादी ढांचे पर ध्यान दिया है और ढेर सारे कल्याणकारी उपाय भी किए हैं। ये दोनों जरूरी और अच्छे कदम हैं लेकिन मानव संसाधन में जरूरी नाटकीय सुधार की जगह नहीं ले सकते। यही वह बदलाव है जिसने आधी सदी पहले पूर्वी एशिया की स्थिति में बदलाव की बुनियाद रखी थी। एक ओर तो 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की बात की जा रही है, वहीं दूसरी ओर साक्षरता को 74 प्रतिशत से बढ़ाकर दोगुनी तेजी से 100 प्रतिशत करने के विषय में शायद ही कोई बात होती हो। महामारी ने हमारे कमजोर स्वास्थ्य ढांचे को भी सबके सामने रख दिया है, उसमें सुधार के बारे में भी शायद ही कभी बात होती हो। एक सुचारु रूप से काम करने वाला वित्तीय तंत्र, जो हर प्रकार के कर्ज चाहने वालों की जरूरत को पूरा करे, वह अभी भी नदारद है। ऋणशोधन प्रक्रिया से कर्जदाताओं को बकाया ऋण का जो मामूली हिस्सा वापस मिलेगा वह अपने आप में एक त्रासद कथा है। अब अनुमान है कि ऋण में देनदारी की चूक के मामले नए सिरे से सामने आ सकते हैं। इससे पता चलता है कि छोटे और मझोले कारोबारियों के सामने दिक्कतें बरकरार हैं। जब कारोबारी जगत संकट में हो तो वित्तीय क्षेत्र का प्रदर्शन भी अच्छा नहीं हो सकता। परंतु आर्थिक और कल्याणकारी नजरिये से सबसे महत्त्वपूर्ण काम यह है कि लोगों को दोबारा रोजगार मिले और रोजगारपरक गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाए। बीते 30 वर्षों से ऐसा नहीं किया गया है या उससे पिछले 30 वर्षों में भी। अगले 30 वर्षों में हमारी तकदीर कैसी होगी यह बात इसी पर निर्भर करती है।
