एक सामान्य वर्ष में देश में लगभग एक करोड़ लोगों की मौत होती है। बीते 14 असामान्य महीनों में कोविड से आधिकारिक तौर पर 3.60 लाख लोगों ने जान गंवाई। अधिकांश टीकाकारों का मानना है कि मौत के आंकड़े कम करके बताए गए हैं और वास्तविक तादाद इससे दो से पांच गुना हो सकती है। यदि हम इसे तीन गुना मान लें तो कोविड से अनुमानत: 10 लाख से अधिक लोगों की जान गई है। यह एक वर्ष में होने वाली सामान्य मौतों का दसवां हिस्सा है। कोविड जब सबसे विकट रूप में था तब वह देश में मौतों की दूसरी सबसे बड़ी वजह था। मृत्यु के ऐसे मामलों को सामान्य मौतों से अलग श्रेणी में दर्ज किया जाना चाहिए। मिसाल के तौर पर विमान दुर्घटना या सन 1984 की भोपाल गैस त्रासदी जैसी औद्योगिक तबाही की तरह इसका अलग उल्लेख होना चाहिए। परंतु 9/11 या रेल दुर्घटनाओं के उलट कोविड पीडि़तों के परिजनों को कोई क्षतिपूर्ति नहीं चुका रहा है। ऐसा शायद इस अनुमान के आधार पर किया जा रहा है कि औद्योगिक दुर्घटनाओं के उलट महामारी से होने वाली मौतों पर किसी का नियंत्रण नहीं है। परंतु यह ठोस दलील नहीं है। विभिन्न देशों में मौत के अलग-अलग आंकड़े यह दिखाते हैं कि उन देशों की सरकारें महामारी से कितनी क्षमता से निपटीं। अनेक मौतें ऐसी हैं जिन्हें टाला जा सकता था। ऐसे में जिस प्रकार सरकार ने बेरोजगार होने वाले और निस्सहाय लोगों की मदद करने का निर्णय लिया उसी तरह उसे कोविड पीडि़तों के परिजनों को भी हर्जाना देने का फैसला करना चाहिए। इसके वित्तीय बोझ का आकलन इस आधार पर होगा कि मानव जीवन को सस्ता माना जाता है या मूल्यवान। गत वर्ष जब एयर इंडिया एक्सप्रेस विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ था तब विमानन कंपनी ने मरने वालों के निकट परिजन को 10 लाख रुपये की अंतरिम राहत देने की पेशकश की थी। इसके बरअक्स ऐसे मामलों में जीवन के मूल्य का आकलन करने वाले मॉन्ट्रियल समझौते में कहा गया है कि विमान दुर्घटना में हुई प्रत्येक मृत्यु के लिए करीब 1.2 करोड़ रुपये दिए जाने चाहिए। जीवन के मूल्य का एक और आंकड़ा भोपाल त्रासदी से सामने आता है। भोपाल त्रासदी में मारे गए 15,300 लोगों के परिवारों को आज के हिसाब से औसतन 4.6 लाख रुपये प्रति परिवार हर्जाना मिला। इस बात पर भी विचार कीजिए कि जीवन बीमा निगम मानव जीवन का मूल्यांकन कैसे करता है। यदि 50 वर्ष का कोई व्यक्ति जो 30,000 रुपये प्रति माह कमाता है, उसके जीवन का मूल्य करीब 26 लाख रुपये लगाया जाता है। ऐसे में सवाल यह है कि कोविड से मरने वालों के परिवारों को कितनी मौद्रिक क्षति हुई? हर्जाने के आकलन के लिए आप विमानन क्षेत्र के आंकड़े लें, भोपाल गैस त्रासदी के या एलआईसी के आंकड़े लें और इन्हें मृत्यु के आधिकारिक आंकड़ों (कोई अन्य विश्वसनीय आंकड़ा अनुपलब्ध है) से गुणा करें तो 16,500 करोड़ रुपये से लेकर 94,000 करोड़ रुपये मूल्य के मानव जीवन की हानि हुई। इसकी ऊपरी सीमा गत वर्ष के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 0.50 प्रतिशत के बराबर है जबकि अमेरिका ने 9/11 के पीडि़तों को 2001 में जीडीपी के 0.66 फीसदी के बराबर हर्जाना दिया था। उन हमलों में 2,800 लोगों की मृत्यु हुई थी, जबकि कई अन्य घायल हुए थे। दूसरे शब्दों में कहें तो इस राशि का बोझ उठाया जा सकता है। ये आंकड़े कोविड के कारण हुई मौतों से हुए नुकसान से सीधे संबद्ध हैं। कुल आर्थिक लागत यकीनन बहुत ज्यादा है ( उन लोगों समेत जिनकी जान बच गई लेकिन वे बेरोजगार हो गए)। ये दोनों आंकड़े यानी गंवाई गई जान और आर्थिक लागत, दोनों एक के पीछे एक चलती प्रतीत होती हैं। जिन देशों में ज्यादा मौत हुई हैं, वहां आर्थिक संकट भी ज्यादा गहरे रहे हैं। ब्रिटेन और ब्राजील इसके सटीक उदाहरण हैं। पीडि़तों को क्षतिपूर्ति देने से चयन का भ्रम समाप्त होता है कि इनमें से एक दूसरे से अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसके बाद इससे जुड़े हुए लाभ आते हैं। यदि क्षतिपूर्ति मिलने की संभावना हो तो पीडि़तों के परिवारों को यह प्रोत्साहन मिलता है कि वे मौत को सही तरीके से दर्ज कराएं। इससे मौत के सही आंकड़े मिलेंगे। इससे सरकार पर दबाव बनता है कि वह हालात को नियंत्रित में लाए। आखिर में, कोविड के कारण टाली जा सकने वाली मौतों के व्यापक मसले पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए- रेल और सड़क दुर्घटनाएं, शिशु मृत्यु आदि इसके उदाहरण हैं। देश में ऐसी मौतों को कम करने पर कितनी राशि खर्च की जानी चाहिए? यदि प्रत्येक असमय मृत्यु को टालने की अतिरिक्त लागत एक मानव जीवन के आर्थिक मूल्य से कम हो तो (भले ही क्षतिपूर्ति चुकाई गई हो अथवा नहीं) तो यह समाज के व्यापक हित में होगा।
