यह महीना काफी हतोत्साहित करने वाला और भावनात्मक पीड़ा पहुंचाने वाला रहा है। जिंदगियों के नुकसान से उपजे दुख ने हजारों परिवारों को अपनी गिरफ्त में लिया है। इस बात को भी लेकर निराशा का भाव है कि काफी हद तक यह पीड़ा कितनी गैर-जरूरी रही है। कोविड महामारी की दूसरी लहर से पैदा हुए हालात की घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय मीडिया में कवरेज सजीव एवं खौफनाक रही है लेकिन इससे निष्ठुर वास्तविकता सिर्फ सनसनीखेज ही बनती है। भारत अपने स्वास्थ्य नतीजों में आमूल बदलाव करके ही इस पाप से मुक्ति पा सकता है। सवाल है कि अच्छी तस्वीर के लिए हमें किन सिद्धांतों का पालन करना होगा? बढिय़ा हालात के लिए बीमा, सुरक्षा एवं इलाज जरूरी: शुरुआत बीमा से करें। दीवाली आने तक हर राज्य में ऐसा स्वास्थ्य ढांचा खड़ा हो जाए कि हम भविष्य में आने वाली किसी भी लहर का बखूबी मुकाबला कर सकें। स्वास्थ्य विशेषज्ञ हमें यह बता सकते हैं कि दूसरी लहर के आधार पर अपनी तैयारी का खाका बनाना कितना वाजिब है? डॉक्टर अभी से यह चर्चा कर रहे हैं कि भविष्य में कोविड महामारी का संक्रमण बच्चों में फैलने का डर अधिक होगा। इस आशंका को देखते हुए हमारी तैयारी कहीं बेहतर होनी चाहिए। स्वास्थ्य ढांचे से हमारा आशय अस्पतालों में पर्याप्त बिस्तर, आईसीयू क्षमता, जरूरी दवाओं की आपूर्ति, ऑक्सीजन एवं पर्याप्त प्रशिक्षित स्टाफ से है। इसके अलावा लॉजिस्टिक क्षमता, समन्वय एवं नेतृत्व भी जरूरी है जिनका इस लहर में गहरा अभाव रहा है। मेडिकल उत्पादों एवं दवाओं को जरूरत वाली जगह तक पहुंचाने के लिए ऐसा होना बेहद जरूरी है। अगला बिंदु बचाव यानी कोविड-अनुकूल व्यवहार का है। पिछले महीने जैसे ही त्रासदी आई, राज्य सरकारों ने सुरक्षित आचरण लागू करना शुरू कर दिया। टेलीविजन पर भयावह तस्वीरों को देखने से डरे लोग घरों के भीतर ही रह रहे हैं। लेकिन यह बात हमें याद रखनी होगी कि महामारी के दौरान बचाव के तौर-तरीके नहीं बदले हैं, सिर्फ उनका पालन करने वाले बदल गए हैं। मुझे अधिक डर इस बात का है कि दूसरी लहर शांत होते ही लोग फिर से असावधान हो जाएंगे। कोविड-अनुकूल व्यवहार को अगले साल तक हमें जारी रखना होगा। इसका मतलब है कि हमें सार्वजनिक स्थानों पर ठुड्डी नहीं ढंकनी है बल्कि बाकायदा मास्क इस्तेमाल करना होगा और आपस में शारीरिक दूरी भी बरतनी होगी। बंद जगहों के इस्तेमाल पर सख्त पाबंदियां लागू रहनी चाहिए और वहां पर हवा आने-जाने का भी समुचित इंतजाम हो। इसके अलावा सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक या कारोबारी किसी भी तरह का भीड़-भाड़ वाला आयोजन न हो। सवाल है कि कितने लोगों की मौजूदगी को ज्यादा माना जाए। अगर अभी जैसे हालात हों तो दो लोगों का भी एक साथ होना भीड़ है और जब हालात एक हद तक काबू में आ जाएं तो यह संख्या 10-20 तक हो सकती है। फिर नंबर आता है इलाज यानी टीकाकरण का। दीवाली तक हमें आबादी के करीब 75 फीसदी हिस्से को कोविड-रोधी टीका लगाना होगा। इसमें निश्चित रूप से वयस्कों की अधिकता होगा लेकिन 12 साल से अधिक उम्र के बच्चों को भी टीके लगाने होंगे। लेकिन दीवाली तक इस टीकाकरण लक्ष्य को हासिल करने के लिए हमें अभी से रोजाना 80 लाख लोगों को टीके लगाने होंगे या टीके की अब से 150 करोड़ खुराकें लगानी होंगी। क्या हम इस काम को कर सकते हैं? ऐसा तभी हो सकता है जब हमारे पास पर्याप्त टीके मौजूद हों। शहरों में टीकाकरण का काम उद्योग जगत पर छोड़ दो और राज्य सरकार सिर्फ ग्रामीण इलाकों में टीका लगाने पर ध्यान दे। आज की त्रासदी का सबसे घातक पहलू यह है कि यह संकट किस हद तक गैर-जरूरी है। हमारी सरकार ने देश को कई मोर्चों पर नाकाम किया है: केंद्र एवं राज्यों दोनों सरकारों ने उस समय भी तैयारी पर ध्यान नहीं दिया जब मध्य फरवरी के बाद संक्रमितों की संख्या तेजी से बढऩे लगी थी। लोगों ने भी कोविड-अनुकूल व्यवहार करने में गैरजिम्मेदारी दिखाई। यहां पर लोगों से आशय व्यापक है-इनमें प्रधानमंत्री, चुनावों या धार्मिक आयोजनों वाले राज्यों के मुख्यमंत्री भी शामिल हैं। भारत को पाप-मुक्ति के लिए अगले छह महीनों में इन सबसे छुटकारा पाना होगा। लेकिन हमारी सबसे बड़ी नाकामी है केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा टीकाकरण अभियान का अक्षम प्रबंधन। देश में टीकाकरण शुरू हुए चार महीने हो चुके हैं और हमने सिर्फ 23 करोड़ टीका खुराकों के ही ऑर्डर दिए हैं जबकि जरूरत इसकी दस गुने की है। स्वास्थ्य मंत्रालय को कम-से-कम अपने ही प्रोटोकॉल का पालन करना चाहिए और जरूरी टीका खुराकों की आधी संख्या ऑर्डर कर देनी चाहिए। और मंत्रालय को टीका विनिर्माताओं के साथ मिलकर रोजाना 1 करोड़ टीकों की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाने होंगे। मंत्रालय टीका उपलब्धता के संदर्भ में राज्यों, निजी अस्पतालों एवं विनिर्माताओं के साथ भी छेड़छाड़ करता है। इसका ही नतीजा है कि अप्रैल में जहां हम रोजाना 30 लाख टीके लगा रहे थे वहीं मई में 10 लाख टीके भी नहीं लग पा रहे हैं। इस बड़ी नाकामी की जवाबदेही कहां है? परिवर्तन का सिद्धांत: सबसे पहले तो हमें गलतियों एवं जरूरी बदलावों की शिनाख्त करनी होगी। 'सकारात्मकता' में यकीन रखने के बावजूद मुझे ऐसी नारेबाजी हकीकत को नकारने एवं आत्म-तुष्टि जगाने वाली ही अधिक लगती है। हमें अवरोध एवं अंधकार के बजाय कदम उठाने एवं बदलाव लाने की जरूरत है। लिहाजा हमें शुरुआत इससे करनी होगी कि अच्छाई कैसी दिखती है। और पारदर्शी ढंग से बताएं कि चीजें असल में कैसी हैं? केंद्र सरकार की इस जरूरी काम में एक महत्त्वपूर्ण लेकिन सीमित भूमिका है। हरेक राज्य को स्वास्थ्य ढांचा, कोविड-अनुकूल व्यवहार और टीकाकरण पर सही ढंग से अमल करना होगा। क्या केंद्र एवं राज्य सरकारें इन तीनों क्षेत्रों में लागू होने वाले मानदंडों के एक समूह पर सहमत हो सकती हैं? क्या हर एक हजार की आबादी के हिसाब से अलग तरह के कोविड बिस्तरों एवं मेडिकल स्टाफ का इंतजाम हो सकता है? लोगों के इक_ा होने की मंजूरी से संबंधित दिशानिर्देश क्या होंगे? आबादी के अनुपात में सबका टीकाकरण मुमकिन है? क्या केंद्र सरकार खुद को सभी राज्यों के लिए राष्ट्रीय सरकार समझते हुए देश भर में बेहतरीन रवायतों एवं तमाम अच्छी बातों के प्रचार-प्रसार एवं प्रोत्साहन का काम कर सकती है? आखिर दिल्ली की तुलना में मुंबई ने ऐसा क्या किया कि वहां पर कोविड संक्रमण पर कहीं बेहतर ढंग से काबू पाया जा सका? पुणे का पीपीसीआर मॉडल देश के हरेक शहर के लिए एक मॉडल कैसे बन गया? केरल ने अपने यहां मृत्यु दर को राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे किस तरह रखा है? सांसदों एवं विधायकों को यह जिम्मेदारी दीजिए कि अपने-अपने क्षेत्र में टीकाकरण अभियान पर उनकी पूरी नजर रहे। हम अंतरराष्ट्रीय प्रयासों से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के दिन से ही जो बाइडन हर रोज शाम को टीकाकरण गतिविधियों पर बैठक करते हैं। जिस दिन दैनिक टीकाकरण लक्ष्य हासिल नहीं हुआ रहता है, वह काफी नाराज होते हैं और टीका प्रमाणपत्रों पर उनकी तस्वीर भी नहीं दिखती है। कोविड महामारी से संबंधित सारे आंकड़े जारी कर दीजिए। पारदर्शिता से भरोसा जगेगा, दूसरों पर दोष मढऩे से नहीं। लोगों की समझ का सम्मान कीजिए। उन्हें बताइए कि क्या हो रहा है, असल में कोविड से कितने लोग मरे हैं? उच्च मृत्यु दर से भी अधिक बुरी बात मृतकों के आंकड़े में हेरफेर करना है। ऐसा होने पर हर कोई अपने-अपने अनुमान लगाने लगता है। पता चलेगा कि हर राज्य में फिलहाल कितने बिस्तर हैं और कितने होने चाहिए? स्वीकृत मानकों के विरुद्ध संक्रमण दर कैसी है और लोगों की आवाजाही पर बंदिश लगाने के क्या मायने हैं? हमारे पास कितने टीके हैं और जून-जुलाई में कितने टीके उपलब्ध होंगे। और अंत में, हम इस संकट में एक साथ हैं। नेताओं को मुश्किल हालात में गायब न होकर अगुआई करनी चाहिए। केंद्र एवं राज्य सरकारों से बदलाव की अपेक्षा करने के साथ हमें खुद भी बदलना होगा। उद्योग जगत को भी अपने कर्मचारियों से इतर के लोगों के टीकाकरण की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। कंपनियां, दुकानें एवं गैर-सरकारी संगठन कोविड-अनुकूल व्यवहार को बढ़ावा दें। लोग भी इसका पालन तब तक करते रहें जब तक कोविड संक्रमण पर पूरी तरह काबू न पा लिया जाए। (लेखक फोब्र्स मार्शल के सह-चेयरमैन, सीआईआई के पूर्व अध्यक्ष और सेंटर फॉर टेक्नोलॉजी इनोवेशन ऐंड इकनॉमिक रिसर्च के चेयरमैन हैं)
