इंदिरा गांधी 1959 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गई थीं। इसी के साथ राष्ट्रीय स्तर की नेता के तौर पर राजनीति में उनका प्रवेश हुआ। हालांकि 1962 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी ने किसी लोकसभा सीट से चुनाव नहीं लड़ा। कहा जाता है कि उनके पिता प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने लोकसभा सीट के लिए उन्हें कांग्रेस का टिकट देने का विरोध किया था। लेकिन 1964 में नेहरू के निधन के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इंदिरा गांधी को अपनी कैबिनेट में शामिल किया और उन्हें सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया। इसके अलावा जो कुछ है वह इतिहास है। 1966 में लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं और 1984 तक इस पद पर बनी रहीं। केवल इसके बीच में मार्च 1977 से जनवरी 1980 तक की छोटी सी अवधि यानी दो साल नौ महीने और कुछ दिन, जब जनता पार्टी की सरकार थी, वह इस पद पर नहीं थीं। यहां गौर करने वाली बात यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष का कार्यभार संभालने के बाद केंद्र में मंत्री का पदभार ग्रहण करने में उन्हें पांच साल लग गए। यह यात्रा और तेजी से पूरी हो सकती थी, अगर नेहरू उनके रास्ते में न आए होते। यह भी सच है कि 1966 में शास्त्री के निधन ने प्रधानमंत्री पद के लिए इंदिरा गांधी का रास्ता आसान बना दिया। कारण चाहे जो भी हो, सच्चाई यह है कि प्रधानमंत्री बनने से पहले इंदिरा गांधी सिर्फ सात साल सक्रिय राजनीति में रहीं। कामयाबी की इस सीढ़ी तक पहुंचने में उनके पुत्र राजीव गांधी ने और भी कम समय लिया। राजीव गांधी ने 1980 में तब राजनीति में प्रवेश किया था जब उनके भाई संजय गांधी वायुयान दुर्घटना का शिकार हो गए थे। एक साल बाद यानी 1981 में उन्होंने अमेठी से लोकसभा का चुनाव लड़ा और सांसद बन गए। इसके ठीक बाद कांग्रेस पार्टी में उनका कद ऊंचा किया गया। वह युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बने। यह साफ था कि इंदिरा गांधी अपने बेटे को राजनीतिक वारिस के रूप में तैयार करने में लगी थीं, यह पक्का करने के लिए कि राजनीति में वंशानुगत शासन बरकरार रहे। वास्तव में राजनीति में राजीव गांधी का प्रशिक्षण (अप्रेंटिसशिप) तब शुरू हुआ, जब वह सांसद बने। अगर इंदिरा गांधी चाहतीं तो वह पहले उन्हें अपनी कैबिनेट में स्थान देती ताकि साउथ ब्लॉक में उनकी जगह लेने से पहले राजीव को प्रशासनिक अनुभव हो जाता। लेकिन भाग्य को कुछ और मंजूर था और उनकी जगह कहीं और सुरक्षित थी। 1984 में मां की हत्या के बाद राजीव गांधी को तत्काल प्रधानमंत्री बनाया गया और दिसंबर 1989 तक वह इस पद पर बने रहे। अपनी मां की तुलना में राजीव गांधी ने सांसद बनने में सिर्फ एक साल लिया और प्रधानमंत्री बनने में तीन और साल। गौर कीजिए कि मंत्री बनने में इंदिरा गांधी को पांच साल लगे थे और प्रधानमंत्री बनने में सात साल। राजीव गांधी मात्र 40 साल की उम्र में प्रधानमंत्री बने जबकि उनकी मां जब प्रधानमंत्री बनीं तो इंदिरा की उम्र 49 साल थी। दोनों की राजनीतिक यात्रा में हालांकि दुर्घटनाओं ने अहम भूमिका अदा की। अगर राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनने में कम समय लगा तो इसकी वजह थी 1984 में इंदिरा गांधी की हुई अचानक मौत। लेकिन राहुल गांधी के बारे में क्या राय है? वह 34 साल की उम्र में सक्रिय राजनीति में शामिल हुए। साल 2004 में राहुल ने अमेठी से लोकसभा का चुनाव लड़ा। राजीव गांधी 37 साल की उम्र में राजनीति में शामिल हुए थे और इंदिरा गांधी जब कांग्रेस अध्यक्ष बनी थीं तब उनकी उम्र 42 साल थी, हालांकि वह कांग्रेस पार्टी की सदस्य काफी पहले बन गई थीं। सितंबर 2007 में राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी के महासचिव बने और तब से पार्टी की गतिविधियों में शामिल रहे हैं और विभिन्न जिम्मेदारियों का निर्वहन कर रहे हैं। यहां ध्यान देने वाली महत्त्वपूर्ण चीजें ये हैं कि वे कुल मिलाकर पांच साल सक्रिय राजनीति में बिता चुके हैं, लेकिन वे न तो सरकार में मंत्री बने हैं और न ही इस आम चुनाव के बाद उन्हें प्रधानमंत्री के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। राजनीति में पांच साल के प्रशिक्षण (जिसे कि सामान्य परिस्थिति में अगले पांच साल के लिए बढ़ाए जाने की संभावना होती है) को लंबे प्रशिक्षण के तौर पर माना जा सकता है। राहुल गांधी या कांग्रेस के लिए इसका क्या आशय है? अगर किसी राजनेता को उच्च पद की खातिर विभिन्न प्रशासनिक पदों पर बिठाकर या जिम्मेदारियां देते हुए चरणबध्द तरीकेसे प्रशिक्षण दिया जाए तो इसके कुछ निश्चित फायदे हैं। इंदिरा गांधी को इसका लाभ मिला, पर राजीव गांधी को ऐसा मौका नहीं मिला। राहुल गांधी के पास विकल्प था - संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में मंत्री बनने का, लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया था, यह ऐसा फैसला था जिसका उन्हें बाद में पछतावा हो सकता है। यह शायद गलत कदम था। लेकिन दूसरे नजरिये से देखा जाए तो लंबे इंतजार से राहुल गांधी को सरकार का नेतृत्व करने से पहले प्रणाली की शक्तियों, कमजोरियों, अवसरों और चुनौतियों को बेहतर जानने का मौका मिला है। लंबे समय तक राजनीति के आसपास रहने और उसके बाद कार्यभार संभालने से, कम समय तक प्रशिक्षण पाने के बाद जिम्मेदारी संभालने के मुकाबले, नेतृत्व के सामने कम से कम समस्याएं और चुनौतियां आती हैं। जैसा कि भारतीय कॉरपोरेट जगत से हमें सीखने को मिलता है कि भारत में परिवार द्वारा नियंत्रित कंपनियों में नेतृत्व के मसले से कैसे निपटा जाता है। क्या सरकार या कांग्रेस पार्टी का परिचालन कंपनी चलाने के मुकाबले अलग होना चाहिए?
