बीते कुछ वर्षों में कृषि के बेहतर प्रदर्शन और मॉनसून समय पर आने तथा समान प्रसार वाली बढिय़ा बारिश के मौसम विभाग के पूर्वानुमान को ध्यान में रखते हुए कृषि भवन ने आगामी कृषि वर्ष के लिए उपज का अत्यंत महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य तय कर लिया है। लक्ष्य के मुताबिक अधिकांश फसलों के उत्पादन में नई ऊंचाइयां तय की जानी हैं लेकिन इसका परिणाम किसानों के लिए उपज के कम मूल्य के रूप में सामने आ सकता है। बहरहाल दलहन और तिलहन की फसलें इसका अपवाद हैं। गत वर्ष दलहन का उत्पादन जरूरत से कम रहा था लेकिन इस वर्ष पहली बार हम दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर हो सकते हैं। इससे कीमतों में कमी आ सकती है। परंतु आपूर्ति में बाधा के कारण तिलहन और खाद्य तेल की कीमतें ऊंची बनी रह सकती हैं। आश्चर्य की बात है कि सरकार ने लगातार दो वर्ष के सूखे के बाद दाल कीमतों में आई असाधारण उछाल के बाद 2017 में दलहन उत्पादन बढ़ाने के लिए जो पहल की थी उसे जारी रखा गया है लेकिन उसने तिलहन के क्षेत्र में ऐसा नहीं किया है। बल्कि तिलहन और खाद्य तेल के क्षेत्र में स्थानीय उत्पादन बढ़ाना और 70 फीसदी तक पहुंच चुकी आयात निर्भरता को कम करना अधिक आवश्यक है। देश अब हर वर्ष औसत 1.4 से 1.5 करोड़ टन खाद्य तेल आयात करता है और कच्चे तेल और सोने के बाद यह देश के आयात में तीसरा सबसे बड़ा हिस्सेदार है। यदि हालात ऐसे ही बने रहे तो सन 2030 तक यह आयात बढ़कर दो करोड़ टन तक पहुंच सकता है। भारत जैसे विशाल आकार वाला देश जहां खाद्य तेल की मांग सन 2000 से ही 5 फीसदी वार्षिक की दर से बढ़ रही है वहां ऐसी स्थिति कतई ठीक नहीं है। चिंता की खास बात यह है कि इसमें इंडोनेशिया और मलेशिया से ही ज्यादातर पाम ऑयल का आयात किया जाता है। यदि किसी वजह से इन देशों से आपूर्ति बाधित होती है तो बहुत बड़ी समस्या पैदा हो सकती है। अच्छी बात यह है कि खाद्य तेल की आपूर्ति में आए अंतर की भरपाई करना संभव है। खासतौर पर दालों के मामले में सफलता मिलने के बाद ऐसा करना मुश्किल नहीं। तथ्य तो यह है कि सन 1987 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा स्थापित तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन के निर्देशन में अतीत में यह उपलब्धि हासिल भी की जा चुकी है। उस समय किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए उपज के आकर्षक मूल्य का इस्तेमाल किया गया था ताकि वे तिलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए जरूरी तकनीक अपनाएं। बाजार कीमतों को एक तय दायरे में स्वतंत्र रूप से ऊपर-नीचे होने दिया गया ताकि वे उत्पादकों के लिए भी आकर्षक बनी रहें और उपभोक्ताओं की पहुंच से भी बाहर न हों। इस नीति ने सन 1990 तक महज तीन वर्ष की अवधि में भारत को खाद्य तेल के क्षेत्र में लगभग आत्मनिर्भर बना दिया था। हालांकि इसके लाभ बरकरार नहीं रह सके क्योंकि आर्थिक सुधारों के बाद शुरुआती दौर में कृषि क्षेत्र की अनदेखी होने लगी। बहरहाल, वर्तमान में केवल ऐसी नीति अपनाने से काम नहीं चलेगा। खाद्य तेल की कीमतें पहले ही ज्यादा हैं और इसकी फसल प्रमुख अनाजों से मुकाबला नहीं कर सकती जिसे सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में उदार समर्थन हासिल है। अब तिलहन की फसल को मुनाफे वाला बनाना होगा। इसके लिए कम लागत पर उच्च उत्पादन हासिल करना होगा। ऐसा तभी होगा जब कुछ प्रमुख कच्चा माल नि:शुल्क अथवा घटी हुई दरों पर दिया जाए और प्रभावी विपणन समर्थन दिया जाए। दालों के मामले में यही किया जा रहा है और अच्छे नतीजे हासिल हुए हैं। तिलहन के मामले में यही दोहराने की जरूरत है।
