कमजोर आर्थिक आंकड़ों की वजह से रुपया दो महीने के निचले स्तर पर आ गया। ऐसे में निवेशक उदार विप्रेषण योजना (एलआरएस) पर विचार कर सकते हैं जिसके जरिये एक व्यक्ति विदेश में सालाना 250,000 डॉलर तक का निवेश कर सकता है। अगर आपका बच्चा जल्द ही अमेरिका के किसी विश्वविद्यालय में पढ़ाई के लिए जाने वाला है और आपको आने वाले दिनों में उसकी फीस का भुगतान करना होगा तब मार्च में रुपये के 72 रुपये प्रति डॉलर के स्तर पर और अप्रैल में 75 रुपये प्रति डॉलर के स्तर पर आने से आपकी चिंता जरूर बढ़ी होगी। निश्चित तौर पर चिंता का बड़ा कारण लंबी अवधि में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये का अवमूल्यन है। पिछले 10 वित्तीय वर्षों के दौरान, औसतन डॉलर (2010-11 और 2020-21 के बीच) के मुकाबले रुपये में 4.7 प्रतिशत की सालाना चक्रवृद्धि दर से गिरावट आई है। आज लोगों के पास कई लक्ष्य हैं जिनके लिए उन्हें विदेशी मुद्राओं में खर्च करने की जरूरत होगी, मसलन बच्चों की उच्च शिक्षा, विदेश यात्रा (अस्थायी रूप से प्रतिबंधित), विदेश में घर खरीदने जैसे कामों के लिए। जाहिर है उन्हें एक पोर्टफोलियो बनाने की जरूरत है जो मुद्रा अवमूल्यन के रुझान से उनका बचाव कर सके। उच्च मुद्रास्फीति लंबी अवधि में डॉलर के मुकाबले रुपये का अवमूल्यन क्यों होता रहता है? एचडीएफसी बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री अभीक बरुआ कहते हैं, 'हमारी अर्थव्यवस्था में उच्च मुद्रास्फीति दर के कारण भारत अपने व्यापारिक साझेदारों की तुलना में व्यापारिक प्रतिस्पर्धा का रुझान खो रहा है।' अमेरिका में आमतौर पर कम महंगाई दर (दो फीसदी या उससे कम) होती है जबकि भारत में यह काफी ज्यादा है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (औद्योगिक कामगार) आधारित मुद्रास्फीति पिछले 10 वित्त वर्षों में औसतन 6.7 प्रतिशत रही है। प्रतिस्पर्धा में इसी कमी के कारण रुपये का अवमूल्यन होता है। बरुआ बताते हैं कि भारतीय बाजारों में ज्यादा पूंजी प्रवाह होने से अवमूल्यन का स्तर ज्यादा होता है। अंतरराष्ट्रीय फंडों में निवेश इससे निपटने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि विभिन्न जगहों वाला पोर्टफोलियो हो यानी जिसमें डॉलर परिसंपत्ति हो। सेबी के पंजीकृत निवेश सलाहकार और फि ड्यूसियारिज के संस्थापक अविनाश लुथरिया कहते हैं, 'एक साधारण पोर्टफोलियो बनाएं जिसमें निफ्टी इंडेक्स फंड और एसऐंडपी 500 इंडेक्स फंड का 50:50 का अनुपात शामिल हो।' विदेश में निवेश करने से आपको न केवल भौगोलिक विविधता का लाभ मिलेगा बल्कि डॉलर आधारित परिसंपत्तियों में निवेश से आपका पोर्टफोलियो मुद्रा जोखिम के लिहाज से कम संवेदनशील होगा। अमेरिका के बाजार में 2009 के बाद से ही लगातार तेजी बनी रही है जिसकी वजह से कई निवेशक इस बात पर हैरानी जताते हैं कि इसमें निवेश करना समझदारी है या नहीं। प्लान अहेड वेल्थ एडवाइजर्स के मुख्य वित्तीय योजनाकार विशाल धवन कहते हैं, 'सिस्टमैटिक इन्वेस्टमेंट प्लान (एसआईपी) का रास्ता अपनाकर अमेरिकी फंड में अपने निवेश की शुरुआत कर दें। इसके अलावा, सिर्फ बड़ी तकनीकी कंपनियों के शेयरों पर ध्यान न दें जिनमें सबसे ज्यादा तेजी दिखी है बल्कि निवेश में ज्यादा विविधता बरतें।' एक व्यापक वैश्विक स्तर के विविध इक्विटी फंड में निवेश करना एक और विकल्प है। पीजीआईएम इंडिया ग्लोबल इक्विटी अपॉच्र्युनिटी फंड चलाने वाले पीजीआईएम इंडिया म्युचुअल फंड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अजित मेनन कहते हैं, 'भारत में निवेशकों के लिए यह जानना मुश्किल है कि भविष्य में कौन सा देश या किस क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन की संभावना है। ग्लोबल फंड के लिए वे यह काम विशेषज्ञ फंड मैनेजरों को सौंप सकते हैं।' मेनन बताते हैं कि उनका फंड दुनिया भर में नए क्षेत्रों पर जोर देता है जिनमें ऑन-डिमांड इकनॉमी (वीडियो स्ट्रीमिंग, एजुकेशन ऑन डिमांड आदि), क्लाउड आधारित तकनीक, डेटा सिक्योरिटी, ई-कॉमर्स, डिजिटल भुगतान सेवा, रोबोटिक्स, ऑटोमेशन और स्वास्थ्य तकनीक शामिल है। बेहतर प्रभाव के लिए निवेशक को अंतरराष्ट्रीय फंडों को इक्विटी पोर्टफोलियो में कम से कम 15-20 प्रतिशत तक की हिस्सेदारी में लाना होगा। एलआरएस निवेशक उदार विप्रेषण योजना (एलआरएस) का विकल्प भी चुन सकते हैं जिसमें उन्हें प्रति व्यक्ति सालाना 250,000 डॉलर तक निवेश की अनुमति मिलती है। उन्हें ब्रोकिंग मंच पर एक अकाउंट खोलना होगा जिससे भारतीय निवेशक सीधे अमेरिका जैसे बाजारों में निवेश कर पाएंगे। इसके प्रति मुख्य आकर्षण की वजह यह है कि निवेशक को एक्सचेंज-ट्रेडेड-फंड्स (ईटीएफ) और शेयरों के मामले में अधिक विकल्प मिलते हैं जिनमें से वह चुन सकते हैं। लुथरिया कहते हैं, 'हालांकि कर से जुड़ा अनुपालन ज्यादा जटिल हो गया है।' ऐसे में केवल बड़े निवेशक ही इसका विकल्प चुन सकते हैं। सोने में निवेश सोना में निवेश से निवेशकों को रुपये के अवमूल्यन का मुकाबला करने में भी मदद मिल सकती है। सोना की अंतरराष्ट्रीय कीमत डॉलर में तय होती है। सोना की भारतीय कीमत अंतरराष्ट्रीय डॉलर की कीमत से ली जाती है। मान लीजिए कि अगर आपके पास एक डॉलर की कीमत जितना सोना है और एकडॉलर 75 रुपये के बराबर है। अगर रुपये में गिरावट 75 से 80 के बीच हो तब भी आपके पास जो सोना है उससे आप अब भी एक डॉलर खरीद सकते हैं। हालांकि सभी जिंसों की तरह सोना में भी लंबे समय तक तेजी और गिरावट देखी जाती है। ऐसे में अगर आप लंबी अवधि में सोना में निवेश करते हैं तब पोर्टफोलियो में इसकी हिस्सेदारी 10-15 फीसदी तक होनी चाहिए। समझें बारीकियां आम तौर पर रुपये के अवमूल्यन से निर्यातकों को फायदा मिलता है जबकि आयातकों पर इसका उलटा असर पड़ता है। जो लोग डायरेक्ट स्टॉक पोर्टफोलियो चलाते हैं उन्हें अपने निवेश में मुद्रा अवमूल्यन के प्रभाव को गहराई से समझने की जरूरत है। सेबी में पंजीकृत स्वतंत्र इक्विटी शोध कंपनी स्टालवर्ट इन्वेस्टमेंट एडवाइजर्स के संस्थापक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी जतिन खेमानी कहते हैं, 'कुछ कंपनियां कच्चे माल का आयात करती हैं और अपने तैयार माल का एक हिस्सा निर्यात करती हैं इसलिए उन पर ज्यादा प्रभाव नहीं है। कई अपने शुद्ध विदेशी मुद्रा निवेश के जरिये बचाव करते हैं ताकि अल्पावधि में ज्यादा उतार-चढ़ाव से उनका बचाव हो सके।' सेबी द्वारा पंजीकृत स्वतंत्र इक्विटी अनुसंधान कंपनी, स्टालवर्ट इन्वेस्टमेंट एडवाइजर्स के मुख्य कार्याधिकारी और संस्थापक जतिन खेमानी कहते हैं कि कुछ कंपनियों की अपने उत्पाद की प्रकृति और अनुकूल औद्योगिक ढांचे के लिहाज से मूल्य निर्धारण की ताकत है और यह मुद्रा के प्रतिकूल उतार-चढ़ाव के लिहाज से कीमतों में संशोधन लाने में सक्षम है। वह आगे कहते हैं कि प्रभाव को सामान्य बनाने के बजाय निवेशकों को प्रत्येक कंपनी के कारोबारी मॉडल को समझने की जरूरत है। खेमानी ने कहा, 'आप इस बात पर गौर करिये कि पहले जब मुद्रा में तेजी से उतार-चढ़ाव दिखा तब वित्तीय स्थिति कैसी थी। इससे आपको यह समझने में मदद मिलेगी कि कारोबारी मॉडल कितना लचीला है।' सेबी की पंजीकृत निवेश सलाहकार कंपनी प्लूटस कैपिटल के प्रबंध अधिकारी अंकुर कपूर कहते हैं, 'आईटी क्षेत्र में बढ़त की संभावना है। फार्मा, केमिकल और पेंट में असर इस बात पर निर्भर करेगा कि इनका कितना निर्यात होता है और कितनी कीमतें बढ़ाई जा सकती हैं क्योंकि इनमें से सभी इनपुट आयात करते हैं। सभी क्षेत्रों में विविध पोर्टफोलियो का निर्माण करें ताकि मुद्रा में होने वाले उतार-चढ़ाव के प्रभाव को कम किया जा सके।'
