पिछले साल मार्च में जब अर्थव्यवस्था थम गई थी, उस समय निखिल कुरेले और हर्षित राठौड़ एक नया कारोबार करने जा रहे थे। उन्होंने अपने शिक्षण संस्थान आईआईटी कानपुर के एक ईमेल का जवाब दिया था। इस ईमेल में महामारी से लडऩे की खातिर स्टार्टअप से वेंटिलेटर बनाने के प्रस्ताव आमंत्रित किए गए थे। दोनों में से किसी ने भी पहले वेंटिलेटर नहीं देखा था। लेकिन जब उन्होंने इस बात पर विचार किया कि वे अपनी दो साल पुरानी पुणे स्थित स्टार्टअप- नोकार्क रोबोटिक्स का वजूद कैसे बचा सकते हैं तो उन्होंने पाया कि वेंटिलेटर समय की दरकार हैं। कुरेले ने कहा, 'अगर हम इस मौके को नहीं लपकते तो हम अपना वजूद नहीं बचा पाते।' उन्होंने जिस दिन ईमेल का जवाब दिया था, तब से परियोजना की रफ्तार चौंकाने वाली रही। तीन दिन यानी 26 को उनके पास संकल्पना का सबूत था, दो सप्ताह में प्रोटोटाइप तैयार हो गया और सफलता 8 अगस्त को मिली। उस दिन पुणे के रूबी हॉल क्लिनिक में एक अत्यंत गंभीर मरीज को नोक्का के वेंटिलेटर पर रखा गया और उसकी सेहत स्थिर हो गई। नोक्का पिछले एक साल में नेपाल, भूटान और श्रीलंका के अलावा भारत के विभिन्न अस्पतालों में 400 से अधिक आईसीयू वेंटिलेटर स्थापित कर चुकी है और बहुत सी जिंदगियां बचा चुकी है। अब यह इंडोनेशिया, यूरोप और पश्चिम एशिया को निर्यात के बारे में विचार कर रही है। इस संदर्भ में यह तथ्य गौरतलब है कि भारत चिकित्सा उपकरणों के निर्यात के लिए नहीं जाना जाता है। देश में 85 फीसदी उपकरणों का आयात होता है। भारत में बेहतर समय में कारोबार शुरू करना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है। नोक्का ने ऐसे समय कदम उठाया है, जब आपूर्ति शृंखला हर जगह रुकी हुई थी। फिर भी वेंटिलेटर की कल्पना, डिजाइन और बनाने में महज 90 दिन का समय लगा। उन्होंने ऐसा कैसे किया? इस सफर का उल्लेख एक पुस्तक 'दी वेंटिलेटर प्रोजेक्ट' में उनके परामर्शदाताओं- आईआईटी के पूर्व छात्र एवं क्रायोन डेटा के सह-संस्थापक श्रीकांत शास्त्री और आईआईटी कानपुर के इन्क्यूबेशन सेंटर के प्रभारी अमिताभ बंद्योपाध्याय ने किया है। शुरुआत में यह संस्थापकों की प्रतिभा ही थी, जिसने हर किसी को लामबंद कर दिया। प्रस्ताव सौंपने के एक दिन के भीतर ही उन्हें पहली चुनौती का सामना करना पड़ा। उनके परामर्शदाता डॉक्टरों ने इस बात पर जोर दिया कि वे एक साधारण एम्बू वेंटिलेटर या नॉन-इनवेसिव वेंटिलेटर नहीं बल्कि इनवेसिव आईसीयू वेंटिलेटर बनाएं। राठौड़ ने कहा, 'शुरुआत में हम पूरी तरह सुनिश्चित नहीं थे।' यह 25 मार्च था और भारत में लॉकडाउन लग चुका था। संस्थापकों को कलपुर्जों के लिए जूझना पड़ा। उन्हें इमारत के व्हाट्सऐप ग्रुप में आग्रह भेजने पड़े और आखिर में उन्होंने घर में मौजूद चीजों- ड्रोन के सेंसर और फिश एक्वेरियम के पंप की मदद से प्रोटोटाइप तैयार कर दिया। कुरेले ने कहा, 'हमें किसी चीज को फेंकने की आदत नहीं थी। अब हम स्वच्छता की वजहों से कबाड़ को फेंकने लगे हैं।' इसके 36 घंटे बाद जब उन्होंने जूम के जरिये अमेरिका स्थित भारतीय मूल के डॉक्टर बंद्योपाध्याय के सामने अपना प्रोटोटाइप पेश किया तो उन्हें लगा कि उन्होंने सही लोगों को चुना है। बंद्योपाध्याय ने कहा, 'वे 23 मार्च तक रोबोट बना रहे थे, इसलिए उन्हें गंभीरता से लेने के लिए उनकी तरफ से हमारे सामने कुछ दिखाया जाना जरूरी था।' नोक्का की सफलता ने यह दिखाया कि आम तौर पर 18 से 24 महीने में होने वाले काम को तीन से छह महीने में भी किया जा सकता है। राठौड़ ने कहा, 'आम तौर पर कंपनियां प्लान ए पर काम करती हैं। अगर वे नाकाम होती हैं तो प्लान बी और सी को अपनाती हैं, जबकि खर्च बढ़ते रहते हैं।' नोक्का की टीम ने बहुत से रास्ते अपनाए और काम शुरू करने के महज पांच दिन के भीतर परियोजना के लिए कुछ प्रोटोटाइप तैयार थे। लेकिन इनमें से कोई भी अपने आप में पर्याप्त नहीं होता। इस वेंटिलेटर परियोजना में अलग चीज सहयोग का मॉडल था, जिसने प्रत्येक- उद्योग, शिक्षाविदों, सरकार और आम नागरिकों को सक्रिय बना दिया।टीम का गठन बंद्योपाध्याय 27 मार्च को इस बात से संतुष्ट थे कि उनकी टीम के पास वह कौशल है, जो वेंटिलेटर बनाने के लिए चाहिए। उन्होंने शास्त्री से संपर्क किया और दोनों ने 20 लोगों का एक कार्यदल बनाने पर काम शुरू किया ताकि नोक्का को बाजार में पहुंचाने की रफ्तार तेज की जा सके। शास्त्री ने कहा, 'हम इस को लेकर सजग थे कि केवल उन्हीं लोगों को चुना जाए, जिन्हें हम जानते हैं। जो केवल ज्ञान नहीं देंगे बल्कि पूरी सक्रियता से अपना काम शुरू कर देंगे।' शास्त्री ने कहा कि अलगे तीन महीनों तक उनकी टीम रोजाना दोपहर 12 बजे वर्चुअल मिलती थी। इसमें पिछले 24 घंटों की प्रगति, अवरोध चिह्नित करने, उन्हें दूर करने और अगले 24 घंटे के लक्ष्य तय करने की समीक्षा होती थी। इस टीमें पद्म पुरस्कार विजेता एचसीएल के संस्थापक अजय चौधरी, उद्यमी एवं ऐंजल निवेसक सौरभ श्रीवास्तव, सीईओ और सरकार में संपर्क वाले लोग शामिल थे। पुस्तक में ऐसी कई घटनाओं का जिक्र किया गया है। नोक्का जिस सरकारी निविदा का इंतजार कर रही थी, वह फलीभूत नहीं हो पाई तो एक सदस्य ने तुरंत एक बिक्री अधिकारी नियुक्त किया और जल्द ही 17 वितरकों को जोड़ लिया गया। भारत में बने वेंटिलेटर को लेकर डॉक्टरों को सहमत करने के लिए कार्यदल के सदस्यों ने अपने संपर्कों का इस्तेमाल किया। परामर्शदाताओं ने चिकित्सा समुदाय में आयातित उत्पादों को लेकर पूर्वग्रह को दूर करने के लिए सलाह दी। पुणे के एक अस्पताल के एक युवा डॉक्टर ने इस बात पर सहमति जताई कि इस इनवेसिव वेंटिलेटर का परीक्षण गंभीर मरीजों पर किए जाने से पहले उस पर किया जाए। हालांकि वह डॉक्टर कार्यदल का हिस्सा नहीं था। संस्थापकों ने एक मिशन शुरू किया था। उनके पास इतना ही पैसा था, जो केवल प्रोटोटाइप के लिए पर्याप्त था। लेकिन जब वे आगे बढ़े तो पैसा निजी बैंकों से लेकर सरकार और अमेरिका की सॉफ्टेवयर कंपनियों तक से आता रहा। आखिर में जो बना, वह विश्व स्तरीय उत्पाद था। इसे यूरोपीय ईसी प्रमाणन मिला। भारत में अभी चिकित्सा उपकरणों के प्रमाणन की कोई संस्था नहीं है। इस वेंटिलेटर की कीमत आयातित वेंटिलेटर की तुलन में एक तिहाई (3.5 लाख रुपये) है। इस पुस्तक में कहा गया है कि परामर्शदाताओं ने इस बात पर चर्चा की थी कि क्या वे कीमत और घटा सकते हैं। मगर उन्हें डर था कि कम कीमतों से भी इसकी गुणवत्ता को लेकर संदेह पैदा होगा जैसा कि टाटा नैनो के मामले में देखने को मिला।
