भारत सरकार अनेक योजनाओं का संचालन करती है। इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं: सहज बिजली हर घर योजना, पीएम फसल बीमा योजना, इमरजेंसी क्रेडिट लिंक्ड गारंटी स्कीम, पीएम गरीब कल्याण रोजगार योजना, सॉवरिन गोल्ड बॉन्ड योजना, पीएम स्ट्रीट वेंडर आत्मनिर्भर निधि, किसान क्रेडिट कार्ड, पीएम मत्स्य संपदा योजना और दीन दयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल्या योजना। यह योजनाओं की लंबी सूची का एक छोटा हिस्सा है। व्यापक तौर पर देखें तो ऊपर वर्णित विभिन्न योजनाएं बाजार में हस्तक्षेप करने का तरीका हैं। परंतु आर्थिक मोर्चे पर ये कितनी तार्किक हैं इस बारे में चीजें हमेशा स्पष्ट नहीं रहतीं। आइए पूरे मसले को थोड़ा और करीब से जांचते हैं। बाजार व्यवस्था ताकतवर है और यह संसाधनों के आवंटन का एक शक्तिशाली उपाय है। बहरहाल, यह निर्वात में काम नहीं करती। यह एक कानूनी, नियामकीय और संस्थागत ढांचे में काम करती है। यदि यह ढांचा उपयुक्त नहीं हो तो बाजार गड़बड़ा सकता है। यानी कुछ कदम उठाने की आवश्यकता है। वैधानिक, संस्थागत और नियामकीय ढांचे में बदलाव की आवश्यकता है। कुछ अप्रत्याशित परिस्थितियों और अल्पावधि को छोड़ दिया जाए तो तथाकथित विशेष योजनाओं की कोई आवश्यकता नहीं है। एक उदाहरण पर विचार कीजिए। यदि आवास कीमतें अधिक हैं और बीते सात-आठ वर्ष में अचल संपत्ति बाजार में मंदी के बावजूद बहुतों की पहुंच से बाहर हैं तो सरकार प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी योजना चला सकती है और वह कर भी रही है। वैकल्पिक रूप से सरकार आत्मावलोकन कर सकती है और आवास बाजार के काम करने संबंधी ढांचे को लेकर बनी नीति पर पुनर्विचार कर सकती है। अब व्यापक रूप से दो बुनियादी बातें हैं जिनकी बदौलत देश में आवास कीमतें अधिक हैं। पहली, देश में अभी भी अचल संपत्ति क्षेत्र में काफी हद तक लाइसेंस-परमिट-कोटा जैसी व्यवस्था है। अधिकांश क्षेत्रों के लिए ऐसी व्यवस्था 1991 में नकारी जा चुकी है। दूसरा, हमारे यहां सन 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून जैसा उदाहरण है। हमें इन दो स्तरों पर बुनियादी बदलाव करना है। प्रधानमंत्री आवास योजना हमें ज्यादा आगे नहीं ले जा सकेगी। भले ही हम सब्सिडी की अवसर लागत के मुद्दे को किनारे कर दें। यह सही है कि उचित कानूनी, नियामकीय या संस्थागत ढांचे में भी बाजार नाकाम हो सकता है। कीमतें गलत हो सकती हैं, संसाधनों का गलत आवंटन हो सकता है। अक्सर नियम आधारित कर सब्सिडी नीति हस्तक्षेप का बेहतर तरीका होती है। कई बार जागरूकता अभियान का इस्तेमाल किया जा सकता है ताकि लोग सही निर्णय ले सकें। ऐसे में यह स्पष्ट नहीं है कि हमें उपरोक्त प्रकार की सरकारी योजनाओं की आवश्यकता है या नहीं। यह सही है कि हमारे यहां वस्तुओं और सेवाओं के लिए अलग-अलग कर-सब्सिडी दरें हैं। बहरहाल, देश में ऐसी दरें प्राय: वस्तु और सेवा के आवश्यक होने, विलासिता होने या दोनों के बीच की स्थिति में होने के निर्धारण पर निर्भर करती हैं। अक्सर दरों का निर्धारण इस आधार पर नहीं होता है कि क्या सही कीमत तय करने में बाजार विफलता सामने आ सकती है। यहां हमें बुनियादी बदलाव की आवश्यकता है। मुद्दा केवल संसाधनों के किफायती आवंटन का नहीं है बल्कि गरीबी और आर्थिक असमानता का भी है। बहरहाल हमें पानी जैसी अनिवार्य वस्तुओं पर कम शुल्क की विशेष नीति की जरूरत नहीं है। हमें जल जीवन मिशन जैसी अलग योजना की आवश्यकता भी नहीं है। इसके बजाय हमें कर-जीडीपी अनुपात बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके बाद सरकार और अधिक आय समर्थन दे सकती है और वह बुनियादी ढांचे पर भी अधिक व्यय कर सकती है जिसमें स्वच्छ जल की पर्याप्त उपलब्धता आदि शामिल हैं। फिलहाल कर-जीडीपी अनुपात काफी कम है और ऐसा पूरी तरह अर्थव्यवस्था के कमतर विकास के कारण नहीं है। यह इसलिए कम है क्योंकि भारत सरकार कर-जीडीपी अनुपात बढ़ाने पर पर्याप्त धनराशि व्यय नहीं करती है और न ही इस दिशा में प्रयास करती है। एक ओर कुछ कर कानून अभी भी अतार्किक हैं तो दूसरी ओर हमारे यहां ढेर सारी कर रियायतें हैं। कुछ कर तो लगाए ही नहीं गए हैं। साफ-साफ कहें तो यह जिक्र किया जाना चाहिए कि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि भारत सरकार की योजनाएं सभी आर्थिक क्षेत्रों में विद्यमान हैं। वृहद आर्थिक स्थिति और वित्तीय अस्थिरता से निपटने के लिए हमारे यहां भारतीय रिजर्व बैंक जैसे संस्थान और कींस की वित्तीय नीति जैसी नीतियां हैं। नीतिगत और संस्थागत ढांचा आमतौर पर व्यापक है। सरकारी अधिकारी प्राय: वृहद आर्थिक स्थिति और वित्तीय स्थिरता के प्रबंधन के लिए विशेष सरकारी योजनाओं का संचालन नहीं करते। बहरहाल, जब हम वृहद आर्थिक स्थिति से बाहर देखते हैं तो हालात बहुत ज्यादा अलग नजर आते हैं। हम ऐसा देख चुके हैं। ऐसे में चरणबद्ध तरीके से बदलाव लाना बहुत आवश्यक है। हमें ढेर सारी योजनाओं के स्थान पर एक बेहतर और आम नीतिगत ढांचा तैयार करना होगा। यह बदलाव लंबी अवधि के दौरान जीडीपी की उच्च वृद्धि दर हासिल करने में मददगार साबित होगा। (लेखक भारतीय सांख्यिकीय संस्थान, दिल्ली केंद्र में अतिथि प्राध्यापक हैं)
