भाजपा के चुनाव प्रचार से नदारद क्यों हैं कुछ मुद्दे? | राष्ट्र की बात | | शेखर गुप्ता / March 28, 2021 | | | | |
पांच विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार अभियान चरम पर है। क्या इस बार कुछ ऐसा है जो नजर नहीं आ रहा? बल्कि देखा जाए तो तीन चीजें ऐसी हैं जो इस बार नदारद हैं।
हम आपको इसका अनुमान लगाने के लिए कुछ वक्तदेते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके मंत्रिमंडल के तमाम अहम सदस्य खासकर अमित शाह, इस तरह प्रचार अभियान में जुटे हैं जैसे दिल्ली में उनकी सरकार अस्तित्व इन चुनावों पर ही निर्भर हो।
हम जानते हैं कि यही उनका राजनीति का तरीका है: उनके लिए कोई चुनावी तोहफा छोटा नहीं है, भले ही वह पुदुच्चेरी जैसा छोटा राज्य ही क्यों न हो। उन्हें हर चुनाव इस तरह लडऩा होता है जैसे यह अंतिम हो। कोई कसर नहीं छोडऩी है।
परंतु हमने अभी कहा कि इस बार तीन चीजें नदारद हैं और यह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की प्रवृत्ति से अलग है। इस पहेली का उत्तर देते हैं: मोदी-शाह के प्रचार अभियान से नदारद तीन चीजें हैं पाकिस्तान, बांग्लादेश और आतंकवाद। बल्कि हम यह भी कह सकते हैं इन अहम राज्यों के चुनावों में विदेशी ताकतों या राष्ट्रीय सुराा को लेकर कोई बात नहीं कही जा रही।
ध्यान रहे कि सन 2018 में कर्नाटक जैसे सुदूर स्थित राज्य में भी चुनाव के दौरान मोदी ने कहा था कि कैसे हमारे सैनिक डोकलाम में चीन के समक्ष खड़े रहे। उन्होंने यह जिक्र भी किया कि कैसे जवाहरलाल नेहरू ने कर्नाटक के बहादुर सपूत जनरल केएस थिमय्या का अपमान किया था।
सन 2015 में बिहार चुनाव के प्रचार में कहा गया था कि यदि भाजपा विरोधी गठबंधन चुनाव जीतता है तो पाकिस्तान में पटाखे फोड़े जाएंगे। सन 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उड़ी के बाद हुई सर्जिकल स्ट्राइक के जोश का इस्तेमाल किया गया।
सन 2019 में पश्चिम बंगाल और असम में लोकसभा चुनाव के दौरान कहा गया कि बांग्लादेशी घुसपैठिये हमारी जड़ों को दीमक की तरह खोखला कर रहे हैं और उन्हें बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया जाएगा। बाद में भाजपा की राजनीति मजबूत करने के लिए सीएए-एनआरसी को इन दोनों राज्यों की समस्याओं का हल बताया गया। इन चुनावों के बीच अगर कोई बाहरी व्यक्ति आ जाए तो वह इस बात से निश्चिंत होगा कि कम से कम राष्ट्रीय सुरक्षा का खतरा भारत के सामने नहीं है। उसके सभी पड़ोसी मुल्क अच्छे हैं और सीमा पर शांति बरकरार है। इस बदलाव को इस बात से समझा जा सकता है कि बांग्लादेशियों से असुरक्षा की बात करने के बजाय मोदी स्वयं ढाका गए और खुद को बंगालियों का बंधु बता कर वहां से भी पश्चिम बंगाल के चुनावों का प्रचार ही करते रहे।
यह बदलाव चाहे स्थायी न हो लेकिन हम उसका स्वागत करते हैं। या फिर शायद ऐसा उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव तक ही रहे। बहरहाल हम कोई शिकायत नहीं कर रहे।
हमें इसके संकेत पहले ही मिल गए थे और मैंने गत वर्ष दिसंबर मेंं इस बदलाव का अनुमान लगा लिया था। मोदी में यह बदलाव सीएए-एअनारसी विरोध प्रदर्शन के दौर में नाराज चल रहे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों को दिए सद्भावपूर्ण संबोधन में मिला। हालांकि इसकी शुरुआत उन्होंने एक वर्ष पहले कर दी थी जब रामलीला मैदान में उन्होंने स्वयं को एनआरसी से दूर करते हुए कहा था कि इसका मकसद दहशत फैलाना नहीं है।
मैंने जोखिम उठाते हुए कहा था कि मोदी को यह अहसास हो गया है कि घरेलू राजनीति में मुस्लिम कार्ड का इस्तेमाल देश के व्यापक रणनीतिक हितों को किस कदर नुकसान पहुंचा रहा है। वह उन्हीं मुस्लिम देशों से अलग-थलग नहीं रह सकते जिनके राष्ट्रीय अवार्ड मिलने की बात वह गर्व से करते हैं। यह उस समय की बात है जब पूर्वी लद्दाख में विवाद नहीं छिड़ा था। परंतु भारत चीन और उसके संरक्षित देश पाकिस्तान के लिए पहले से सीमा तथा अन्य समस्याओं से लैस रहा है। इस बदलाव की तीन अहम वजह हो सकती हैं।
ठ्ठ बांग्लादेश में भारत के रिक्त स्थान को भरने के लिए चीन और पाकिस्तान जिस तेजी से आगे आए वह चिंतित करने वाला है। जब नेपाल और श्रीलंका के साथ रिश्ते पहले ही तनावपूर्ण थे तब भारत बांग्लादेश के साथ रिश्ते बिगाडऩे की स्थिति में नहीं था। खासकर तब जब वह प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में भारत को पीछे छोड़ चुका है।
ठ्ठ पूर्वी लद्दाख की चुनौती टल चुकी है लेकिन चीन ने अपनी बात स्पष्ट कर दी है। पहला, भारत के एक नहीं बल्कि दो शत्रु पड़ोसी हैं और सन 1971 की तरह वह दूसरे को अपना बचाव स्वयं करने के लिए छोड़ नहीं सकता। नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान के साथ शांति कायम करने की भी यह वजह बनी और आक्रामक बयानबाजी रोकने की भी।
ठ्ठ तीसरी बात यह कि राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति जैसे संवेदनशील मुद्दों का घरेलू राजनीति में लाभ उठाने के कई खतरे हैं। चीन ने लद्दाख में हमारे सामने एक कड़वी हकीकत रख दी है। पाकिस्तान के उलट चीन के साथ किसी संघर्ष का अंत आप जीत के दावे से नहीं कर सकते। मोदी की ऐसे मजबूत नेता की छवि याद कीजिए जो-घर में घुसकर मार सकता है। लद्दाख में हमारी मजबूत सुरक्षा क्षमता सामने आई। परंतु घरेलू राजनीति के लिए इसके जोखिम तत्काल समाप्त करना जरूरी था।
अब एक बड़ा भूल सुधार किया जा रहा है। जब आप पाकिस्तान के साथ हर स्तर पर हालात सामान्य कर रहे हैं और चीन के साथ तनाव कम कर रहे हैं तो चुनाव प्रचार में किसी तरह की असुरक्षा का जिक्र कैसे होगा।
आप पड़ोसी मुल्क के साथ नए सिरे से अविश्वास का माहौल नहीं बना सकते। जब आपने इमरान खान के जल्द स्वस्थ होने को लेकर ट्वीट किया और पाकिस्तान के राष्ट्रीय दिवस पर कूटनीतिक सद्भावना भरा खता भेजा, जब आपकी सेना के प्रमुख कह रहे हैं कि चीन से खतरा नहीं है तब आप चुनावी रैलियों में दोबारा तापमान बढ़ाने वाली बात नहीं कर सकते।
इससे वैश्विक माहौल में भी बदलाव आया है। अमेरिका का जो बाइडन प्रशासन चीन के मामले मेंं ट्रंप के रुख को ही आगे बढ़ा रहा है। बल्कि उसकी गति तेज और उद्देेश्य स्पष्ट है। यह भारत के लिए बड़ी राहत है। बाइडन की टीम में भारतीय उपमहाद्वीप के युवाओं की भरमार है और वे नागरिक अधिकारों और मुसलमानों के साथ व्यवहार के मामले में भाजपा पर भरोसा नहीं करते। आप बाइडन को अवसर देना चाहते हैं क्योंकि उनके खिलाफ अपनी ही पार्टी के कट्टरपंथियों की काफी चुनौतियां हैं।
मोदी और शाह के अधीन भाजपा संपूर्ण राजनीति में यकीन करती है। सबकुछ, हर कदम फिर चाहे वह अर्थव्यवस्था पर हो, समाज पर या विदेश नीति पर, उनका प्राथमिक लक्ष्य है चुनाव जीतना। मैं यह कहने का जोखिम उठाता हूं कि वे समझ चुके हैं कि घरेलू राजनीतिक उद्देश्यों को रणनीतिक राष्ट्रीय हितों के साथ मिलाना जल्दी ही अनुत्पादक साबित हो सकता है।
यह जरूर है कि मोदी राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर पराजित दिखना बरदाश्त नहीं कर सकते। उन्होंने यह जोखिम नहीं लेने का निर्णय लिया। यह चतुराई भरी राजनीति है और भारत के लिए बेहतर है।
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