कर सुधारों के लिए नई चुनौती है तेल | ए के भट्टाचार्य / February 26, 2021 | | | | |
इन दिनों पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतें सुर्खियों में हैं। देश के कुछ हिस्सों में पेट्रोल की खुदरा कीमतें 100 रुपये प्रति लीटर से अधिक हो चुकी हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमत बीते कुछ सप्ताह से लगातार बढ़ रही है। पेट्रोल-डीजल की खुदरा कीमतों में इजाफा इसी का नतीजा है।
इस मामले में अब ध्यान पेट्रोलियम उत्पादों पर सरकार के करों की ओर स्थानांतरित हो गया है। बीते कुछ वर्षों में जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत कम हुई है तब इन करों में तेज इजाफा हुआ है। तत्कालीन सरकारों ने हमेशा कच्चे तेल की कम कीमतों का लाभ उठाने के क्रम में उत्पाद शुल्क में इजाफा किया। चूंकि कच्चे तेल की कीमतें कम हो रही थीं इसलिए खुदरा कीमतों में खास इजाफा नहीं हुआ। सामान्य तौर पर इनमें कमी आनी चाहिए थी लेकिन करों में इजाफे के कारण वे स्थिर रहीं।
उदाहरण के लिए मार्च 2020 और मई 2020 में केंद्र सरकार ने पेट्रोल और डीजल के उत्पाद शुल्क में भारी इजाफा किया। इससे उसे बिना उपभोक्ताओं पर अतिरिक्त बोझ डाले अपने राजस्व में इजाफा करने का मौका मिला। लेकिन अब तेल कीमतों में इजाफे से लोग नाराज हो रहे हैं और मांग उठ रही है कि सरकार कम से कम वह शुल्क वृद्धि वापस ले जो मार्च और मई 2020 में की गई।
कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि इस महीने के आरंभ में पेश किया गया बजट 2021-22 के उत्पाद से हासिल होने वाले राजस्व अनुमान को बचाव मुहैया कराता है। तेल खपत और भारतीय अर्थव्यवस्था अगले वित्त वर्ष में वापसी कर सकते हैं। ऐसी वृद्धि से सरकार को और अधिक उत्पाद शुल्क हासिल होगा, भले ही दरें अपरिवर्तित रहें।
परंतु उत्पाद संग्रह का बजट अनुमान दिखाता है कि वह वर्ष 2020-21 के पूर्ण संग्रह से सात फीसदी कम रहेगा। चालू वर्ष में कम खपत के बावजूद उत्पाद शुल्क की बढ़ोतरी की बदौलत उत्पाद संग्रह में 51 फीसदी इजाफा होगा। तो क्या सरकार पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क कम करने की तैयारी में है? ऐसा हो सकता है लेकिन अधिक महत्त्वपूर्ण यह समझना है कि तेल क्षेत्र पर सरकार के कराधान का वास्तविक दायरा क्या है। इसलिए क्योंकि इसका सरकार के कर सुधार एजेंडे पर अहम असर होता है।
केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा कर राजस्व संग्रह में तेज इजाफा कुछ दिलचस्प रुझान पेश करता है। इसमें दो राय नहीं कि केंद्र सरकार ने बीते छह वर्ष में (मोदी के कार्यकाल में) तेल क्षेत्र को राजस्व का अहम जरिया बनाया है। केंद्र के सकल कर राजस्व में तेल क्षेत्र के अप्रत्यक्ष कर राजस्व का योगदान 2014-15 के 10 फीसदी से बढ़कर 2019-20 में 14 फीसदी पहुंच गया। जाहिर है इसमें उत्पाद शुल्क का काफी योगदान था और इसी अवधि में केंद्र के सकल कर राजस्व में इसकी हिस्सेदारी 8 फीसदी से बढ़कर 11 फीसदी हो गई।
इस अवधि में केंद्र सरकार के राजस्व जुटाने के प्रयास में तेल की अहमियत की आलोचना भी हुई। सन 2014-15 में सकल घरेलू उत्पाद अथवा जीडीपी में केंद्र सरकार के अप्रत्यक्ष तेल करों की हिस्सेदारी एक फीसदी थी जो 2019-20 में बढ़कर 1.4 फीसदी हो गई। परंतु जीडीपी में केंद्र के सकल करों की हिस्सेदारी इस अवधि में 9.96 फीसदी से घटकर 9.90 फीसदी रह गई। यदि तेल क्षेत्र के अप्रत्यक्ष कर राजस्व को हटा दिया जाए तो केंद्र का सकल कर राजस्व और अनाकर्षक होकर 8.95 फीसदी से 8.49 फीसदी हो जाता है।
यदि इसमें जल्द सुधार नहीं किया गया तो यह समस्या गंभीर रूप धारण कर लेगी। यदि 2020-21 के उत्पाद शुल्क संग्रह और इससे संबंधित बजट अनुमान को संकेत माना जाए तो तेल क्षेत्र पर निर्भरता इस वर्ष और अगले वर्ष भी बढ़ी रहेगी। जीडीपी में उत्पाद शुल्क की हिस्सेदारी 1.5 फीसदी से 1.85 फीसदी के बीच रहेगी और केंद्र सरकार के सकल कर राजस्व में उत्पाद शुल्क की हिस्सेदारी 15 से 19 फीसदी रहेगी।
राज्यों ने बीते छह सालों में तेल क्षेत्र का वैसा फायदा नहीं उठाया जैसा कि केंद्र सरकार ने उठाया। यकीनन राज्यों के कर राजस्व में तेल करों की हिस्सेदारी काफी कम हुई है। सन 2014-15 के 20.5 फीसदी से घटकर यह 16.5 फीसदी रह गई। जीडीपी की तुलना में राज्यों के साझा तेल करों की बात करें तो वह हिस्सेदारी भी समान अवधि में 1.28 फीसदी से घटकर 1.09 फीसदी रह गई है।
यकीनन समग्र आंकड़े कुछ राज्यों के प्रदर्शन को छिपा लेते हैं जिन्होंने तेल उत्पादों पर कर बढ़ाया है। परंतु ऐसे भी राज्य हैं जिन्होंने उपभोक्ताओं को राहत देने के लिए कर नहीं बढ़ाया। बहरहाल केंद्र के तेल कर संबंधी प्रयासों और राज्यों के प्रयासों का भविष्य के कर सुधारों पर अहम प्रभाव होगा। हम बात कर रहे हैं पेट्रोल और डीजल को जीएसटी व्यवस्था में शामिल करने के प्रस्तावों की।
पेट्रोल और डीजल को जीएसीटी में शामिल करने की चुनौती उच्च उत्पाद शुल्क दर या मूल्यवर्धित कर की तरह नहीं है। जीएसटी प्रणाली के अधीन पेट्रोलियम उत्पादों के लिए उच्चतम दर से भी अधिक विशेष दरों की संभावना नकारी नहीं जा सकती। ऐसे में इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि केंद्र सरकार का राजस्व प्रभावित हो सकता है। परंतु केंद्र की चिंता की असल वजह यह होनी चाहिए कि कर राजस्व को जीएसटी व्यवस्था में शामिल करने से उत्पादन के विभिन्न स्तरों पर करदाताओं का रीफंड तेजी से बढ़ेगा और वह राशि भी बढ़ेगी जो केंद्र को कर राजस्व में से राज्यों को देनी होती है। केंद्र के अप्रत्यक्ष तेल कर में उपकर और अधिभार शामिल होते हैं जो फिलहाल राज्यों के साथ साझा की जाने वाली राशि का हिस्सा नहीं हैं। एक बार यदि विशेष दरों के साथ भी वे जीएसटी के दायरे में आ गए तो उन्हें राज्यों के साथ साझा करना होगा।
ऐसे में केंद्र सरकार की कर राजस्व के लिए तेल क्षेत्र पर बढ़ती निर्भरता का जीएसटी सुधार के एजेंडे पर भी गहरा असर होगा। इसके विपरीत राज्यों को कम चिंता करनी होगी। दूसरे शब्दों में अगर पेट्रोल और डीजल को जीएसटी प्रणाली में शामिल किया गया तो केंद्रीय जीएसटी के तहत संग्रह को अधिक नुकसान पहुंचेगा, बजाय कि राज्य जीएसटी के। ऐसा इसलिए क्योंकि राज्य सरकारें अपने कर राजस्व के लिए तेल क्षेत्र पर उतनी निर्भर नहीं हैं जितनी कि केंद्र सरकार है। ऐसे में राज्यों की पेट्रोल और डीजल को जीएसटी में शामिल करने की मांग भी बढ़ेगी जबकि केंद्र सरकार इसकी अनिच्छुक होगी। ऐसे में आशा की जानी चाहिए कि पेट्रोल और डीजल को जीएसटी में शामिल करने को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच एक बार फिर बातचीत का मुश्किल दौर शुरू होगा।
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