देश में कृषि सुधारों पर पाला बदलने का ढर्रा | खेती-बाड़ी | | सुरिंदर सूद / February 23, 2021 | | | | |
दिल्ली की सीमाओं पर जारी किसानों के विरोध-प्रदर्शन की वजह बने कृषि-विपणन सुधारों के विकास की गाथा एक दिलचस्प एवं बेहद रोचक पाठ का विषय है। जरूरत पर आधारित इन अधिकांश कदमों की अनुशंसा एम एस स्वामीनाथन की अगुआई वाले राष्ट्रीय किसान आयोग ने भी 2006 में सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में की थी। इन अनुशंसाओं को कांग्रेस की अगुआई वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने 2007 में पहली बार घोषित राष्ट्रीय किसान नीति में भी जगह दी थी। लेकिन भाजपा की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की मौजूदा सरकार ने इन सुझावों को आखिरकार कानूनी जामा पहनाने का काम किया है। अधिकांश दल संप्रग या राजग गठबंधनों का हिस्सा या सहयोगी कभी-न-कभी रहे हैं, लिहाजा वे इन कृषि सुधारों को अंजाम दिए जाने की प्रक्रिया का हिस्सा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में जरूर रहे हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) अध्यक्ष शरद पवार उस समय कृषि मंत्री थे जब कृषि क्षेत्र को खोलने की प्रतिबद्धता दर्शाने के लिए किसान नीति बनाई गई थी। हालांकि आयोग की कई अनुशंसाओं को इस नीति में शामिल किया गया था, लेकिन फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को उत्पादन लागत के 50 फीसदी से अधिक रखने जैसे कुछ अहम सुझावों को छोड़ दिया गया था। फिर भी कृषि व्यापार में निजी क्षेत्र को जोडऩे, निजी क्षेत्र में कृषि बाजार बनाने और ठेके पर खेती को बढ़ावा देने जैसे सुझावों को किसान नीति में जगह मिली थी। मौजूदा समय में किसानों के विरोध की वजह इन्हीं मुद्दों पर है और उन्हें कांग्रेस की अगुआई वाले संप्रग का समर्थन भी मिल रहा है।
एक सच यह भी है कि किसानों की एक अहम मांग एमएसपी को न तो स्वामीनाथन आयोग ने ही स्पष्ट ढंग से परिभाषित किया है और न ही संप्रग या राजग की सरकारों ने इस पर स्थिति स्पष्ट की है। एमएसपी को उपज की भारित लागत के 50 फीसदी से अधिक होने की संकल्पना पेश करने के साथ ही आयोग ने यह कहते हुए अनिश्चितता भी जताई थी कि यह खरीदी मूल्य से अलग होना चाहिए। आयोग ने कहा था, 'अनाजों की खरीद एमएसपी पर न होकर बाजार भाव पर की जानी चाहिए।'
आयोग ने 4 अक्टूबर, 2006 को जारी अपनी अंतिम रिपोर्ट में इस दावे के समर्थन में तर्क देते हुए कहा था, 'न्यूनतम मजदूरी की तरह एमएसपी को भी सरकार के लिए कृषि उपज की बॉटमलाइन का संकेतक होना चाहिए और एमएसपी की घोषणा के बाद उत्पादन लागत में आने वाले कुछ बदलावों को भी ध्यान में रखना चाहिए।' असलियत तो यह है कि इस रुख ने एमएसपी की संकल्पना पर बने भ्रम को और बढ़ा दिया। आयोग ने अपनी अंतरिम एवं अंतिम रिपोर्टों में इस अवधारणा की अलग-अलग संदर्भों में व्याख्या कर हालात को और भी बिगाड़ दिया। एक स्थान पर उसने कहा कि एमएसपी और खरीद दो अलग गतिविधियां हैं और उन्हें उसी तरह अंजाम दिया जाना चाहिए। वहीं एक अन्य स्थान पर उसने कहा, 'प्रमुख अनाजों को उस भाव पर खरीदा जाना चाहिए जिसे निजी कारोबारी किसानों को देने को तैयार हैं।' एक दूसरे संदर्भ में आयोग ने कहा था, 'खरीद का भाव एमएसपी से अधिक हो सकता है और यह बाजार की स्थितियों को भी प्रदर्शित करना चाहिए।' लेकिन मनमोहन सिंह की संप्रग सरकार ने एमएसपी को लागत के 50 फीसदी से अधिक होने का फॉर्मूला ठुकराने के साथ ही समर्थन मूल्य एवं खरीदी मूल्य दोनों को अलग करने की मांग भी खारिज कर दी। सरकार को यह लगा था कि ऐसी मांग मान लेने से बाजार का रूप बिगड़ सकता है और कुछ मामलों में यह प्रतिकूल भी साबित हो सकता है।
स्वामीनाथन आयोग की ऐसी कुछ और अनुशंसाओं को ठुकराए जाने पर दी गई टिप्पणी में कहा गया था, 'एमएसपी की अनुशंसा कृषि लागत एवं मूल्य आयोग तमाम तरह के प्रासंगिक बिंदुओं पर गौर करने के बाद करता है। लिहाजा लागत पर कम-से-कम 50 फीसदी भाव बढ़ाने की अनुशंसा करने से बाजार खराब हो सकता है। एमएसपी एवं उत्पादन लागत के बीच एक मशीनी नाता होना कुछ मामलों में उलटा साबित हो सकता है।' एमएसपी एवं खरीदी मूल्यों को अलग रखने के मुद्दे पर कहा गया था कि इसे लागू कर पाना मुश्किल होगा।
बहरहाल, संप्रग सरकार ने कृषि कारोबार में निजी भागीदारी एवं अनुबंध कृषि का पूरे मन से साथ दिया था। राष्ट्रीय किसान नीति की धारा 5(10)(1) इस मसले पर कहती है, 'केंद्र एवं राज्य सरकारों ने पहले ही कई महत्त्वपूर्ण बाजार सुधार शुरू किए हैं। ये सुधार किसानों को उपज बेचने, निजी क्षेत्र को कृषि बाजारों के विकास में शामिल होने, सीधे उपभोक्ताओं, प्रसंस्करण इकाइयों, खुदरा आपूर्तिकर्ताओं एवं निर्यातकों को उपज बेचने में मददगार होने के साथ भ्रष्टाचार एवं उत्पीडऩ की गुंजाइश भी कम करेंगे।'
वहीं आयोग ने अपनी अंतिम रिपोर्ट की धारा 1(8)(3) में अनुबंध कृषि के मुद्दे पर कहा था कि किसानों और कॉर्पोरेट घरानों या प्रसंस्करण इकाइयों के बीच उपज के पहले ही करार होने का रुझान तेजी से बढ़ा है। लेकिन औपचारिक अनुबंध नहीं होने पर पलड़ा कृषि-कारोबारी कंपनियों के पक्ष में झुक सकता है। आयोग ने कहा था, 'इस समय एक समग्र, साफ-सुथरा, समान एवं किसान-केंद्रित मॉडल समझौते करने की जरूरत है ताकि किसानों का शोषण न किया जा सके। गुणवत्ता मानकों, अलग हटने की शर्र्तों, कीमत-निर्धारण मानकों, भुगतान व्यवस्था, प्राकृतिक आपदा के हालात और विवाद की स्थिति में मध्यस्थता की व्यवस्था से जुड़े प्रावधानों पर खास ध्यान दिए जाने की जरूरत है।'
कृषि विपणन को उदार बनाने एवं अनुबंध कृषि को नियमित किए जाने की पूरी चर्चा इस समय नए कृषि कानूनों के बचाव में दलीलें पेश कर रहे राजग प्रवक्ताओं की जबान से काफी मेल खाती हुई नजर आती हैं।
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