अतार्किक नियुक्तियां | संपादकीय / February 23, 2021 | | | | |
इस माह के आरंभ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में निजी क्षेत्र का जोरदार बचाव करते हुए अफसरशाहों को सरकारी उपक्रमों का प्रमुख बनाए जाने की प्रवृत्ति की भी आलोचना की। निजी क्षेत्र के उद्यमियों को 'संपत्ति निर्माता' बताते हुए उन्होंने आश्चर्य जताया था कि देश को बाबुओं के हवाले करके भला क्या हासिल किया जा सकता है। मोदी ने कहा था, 'सिर्फ इसलिए कि कोई आईएएस अधिकारी है, वह फर्टिलाइजर फैक्टरी भी चला रहा है, केमिकल फैक्टरी भी चला रहा है और एयरलाइंस भी चला रहा है।' उन्होंने कहा कि अफसरशाहों को कॉर्पोरेट प्रबंधन से हटाने से युवाओं को खुद को साबित करने का अवसर मिलेगा। मोदी की बात सही है। खासकर यह देखते हुए कि नई नीति के तहत सभी सरकारी उपक्रमों का निजीकरण होना है।
परंतु बड़ा तात्कालिक मुद्दा शायद यह है कि सरकारी उपक्रमों का संचालन अफसरशाहों के हाथ में क्यों बना रहा। मोदी सरकार समेत अब तक किसी सरकार को इसलिए नहीं जाना गया कि वह निजी क्षेत्र से सरकारी उपक्रमों के प्रबंधन की बात करे। जबकि उनमें से कई तो समान उद्योगों में काम करते हैं। राजनेताओं द्वारा एयर इंडिया, एमटीएनएल, बीएसएनएल या आईटीडीसी जैसे सरकारी उपक्रमों के संचालन का काम अफसरशाहों को सौंपा ही क्यों जाता है? ऐसा कोई नियम या कानून नहीं है जो सरकार को निजी क्षेत्र के लोगों को सरकारी उपक्रमों में शीर्ष पदों पर नियुक्त करने से रोके। परंतु ऐसे निजी-सार्वजनिक सहयोग के उदाहरण बहुत कम हैं। प्रकाश टंडन इसका उदाहरण हैं। तत्कालीन हिंदुस्तान लीवर के पहले भारतीय चेयरमैन रहे टंडन ने स्टेट ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन की अध्यक्षता की और पंजाब नैशनल बैंक के चेयरमैन के रूप में भी काम किया।
एक लोकप्रिय स्पष्टीकरण यह रहा है कि अफसरशाह लॉबी की ताकत यह सुनिश्चित करती है सरकारी उपक्रमों में या शक्तिशाली नियामकीय संस्थानों में तमाम ऊंचे ओहदे अफसरशाहों के पास बने रहें। परंतु ऐसा मान लिया जाए तो यह भी मानना होगा कि अफसरशाही राजनीतिक प्रतिष्ठानों पर भी हावी है जबकि ऐसा नहीं है। ऐसे में राजनीतिक वर्ग के झुकाव का सवाल रह जाता है। इस बात से सभी वाकिफ हैं कि कुछ ही मंत्री ऐसे हैं जो सरकारी उपक्रम पर नियंत्रण से मिलने वाले लाभ को जाने देना चाहेंगे। उन्हें न केवल इनके संसाधनों पर अधिकार प्राप्त होता है बल्कि रोजगार देने और नीति निर्देशन तक पर नियंत्रण रखा जा सकता है। भले ही ऐसा उस उपक्रम के मुनाफे से समझौता करके हो। निजी क्षेत्र के मुख्य कार्याधिकारी शायद लंबे समय तक इस स्तर का राजनीतिक हस्तक्षेप बरदाश्त न कर पाएं। वे यह भी नहीं चाहेंगे कि पद छोडऩे के बाद जांच एजेंसियां उनसे पूछताछ करें।
ऐसे में यदि सरकार चाहती है कि किसी भी सरकारी विभाग में निजी क्षेत्र की प्रबंधन क्षमता का सार्थक इस्तेमाल किया जा सके तो उसे राजनीतिक सोच में आमूलचूल बदलाव लाना होगा। यह किस हद तक होगा यह देखने वाली बात है। मोदी सरकार ने पहली बार 2017 में यह पहल की थी कि चुनिंदा विशेषज्ञता वाले पदों पर निजी क्षेत्र के लोगों की भर्ती की जाए। परंतु इस प्रक्रिया में संयुक्त सचिव स्तर की आठ नियुक्तियों से आगे बात नहीं बढ़ सकी है। जबकि योजना 40 पेशेवरों को भर्ती करने की थी। इस हालिया इतिहास को देखें तो लगता नहीं कि सरकार कई बार दोहराए जा चुके सुझाव पर अमल करेगी और विभिन्न क्षेत्रों के नियामकों की नियुक्ति अफसरशाही से बाहर से करने पर विचार करेगी। हालांकि रिजर्व बैंक जरूर एक अपवाद हो सकता है फिर भी यहां यह प्रक्रिया रोकने की कोई वजह नहीं है। प्रधानमंत्री ने संसद में टिप्पणी अवश्य की है लेकिन हकीकत में इस दिशा में बढऩा कहीं अधिक बड़ी चुनौती है।
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