केंद्र सरकार की नीति में वृद्धि-समर्थक बदलाव | नीलकंठ मिश्रा / February 18, 2021 | | | | |
वित्त वर्ष 2021-22 में केंद्र सरकार का कुल व्यय वर्ष 2020-21 के संशोधित अनुमानों से अपरिवर्तित ही रहना चाहिए। महामारी के समय लोगों की जिंदगी बचाने और कारोबार की मदद के लिए किए गए आवंटन की जगह पानी एवं स्वच्छता प्रयासों, किफायती आवास मुहैया कराने और टीकाकरण अभियान ने ले ली है। भले ही इन आवंटनों का वृद्धि पर अधिक मजबूत एवं दूरगामी असर होता है लेकिन क्या वे अर्थव्यवस्था को महामारी-पूर्व की स्थिति में लाने के लिए काफी होंगे? इस बहस में यह पहलू नदारद है कि मध्य नवंबर में 10 क्षेत्रों के लिए घोषित उत्पादन-आधारित प्रोत्साहन (पीएलआई) योजनाओं से वृद्धि पर क्या कोई असर पड़ेगा?
पीएलआई योजनाओं की घोषणा सरकारी नीति में वृद्धि-अनुकूल बदलावों के शुरुआती संकेत थे। उसके पहले मोबाइल हैंडसेट, औषधि सामग्रियों एवं चिकित्सा उपकरणों के लिए भी तीन योजनाएं घोषित की गई थीं लेकिन उनके असली मकसद अलग थे। आखिरी दो पीएलआई का इरादा आत्मनिर्भर होने का था और बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल उत्पादों के विदेशी आपूर्तिकर्ताओं के कोविड प्रकोप के शुरुआती दिनों में आपूर्ति से पीछे हटने के बाद सरकार की सजगता का नतीजा थे। वहीं निर्यात के लिए भारत में बनने वाले हैंडसेट के लिए घोषित प्रोत्साहन योजना काफी हद तक कुछ साल पहले इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र के लिए शुरू चरणबद्ध विनिर्माण कार्यक्रम (पीएमपी) का अगला चरण ही है।
लेकिन इनकी तर्ज पर 10 अतिरिक्त क्षेत्रों के लिए प्रोत्साहन योजनाओं का ऐलान होना मानक से अलग हटने जैसा था। पूर्व-निर्धारित आउटपुट लक्ष्यों को पार कर जाने वाली कंपनियों को खासा प्रोत्साहन देने का सरकार का अप्रत्याशित कदम कोई अकेली रियायत नहीं है। इतना ही अहम बदलाव प्रोत्साहनों के वितरण में भी किया गया है। पुरानी योजनाओं में अगर 100 रुपये का प्रोत्साहन दिया जाना है और उसकी दावेदार 100 कंपनियां हैं तो हरेक कंपनी को 1-1 रुपये मिलेंगे। इन सौ कंपनियों को यह निष्पक्ष लगेगा लेकिन इससे वृद्धि को कोई मदद नहीं मिलती थी, लिहाजा यह इन योजनाओं के लिए वित्त पोषण करने वाले करोड़ों करदाताओं के साथ अनुचित होता था। दूसरी तरफ प्रोत्साहन योजनाओं में सरकार इनमें से 5-10 फर्मों को पहले ही चिह्नित कर लेती है और उन्हें 10-10 रुपये दिए जाते हैं। लेकिन इन कंपनियों को यह प्रोत्साहन राशि तभी मिलेगी जब वे कुछ हद तक अपना मकसद हासिल करने में सफल रहती हैं। अधिक दिलचस्प है कि अगर 20 कंपनियां ही 10 स्थानों के लिए दावा करती हैं तो उनमें से सबसे बड़ी 10 कंपनियां ही चुनी जाएंगी।
जहां ये योजनाएं उत्पादन से जुड़ा प्रोत्साहन देती हैं, वहीं इनके लिए वाहन और कपड़ा जैसे क्षेत्रों का चयन किया गया है जिनमें उत्पादन का बड़ा हिस्सा पहले से ही निर्यात होता है। इस तरह किसी भी प्रोत्साहक उत्पादन का निर्यात किया जाएगा। ऐसी स्थिति में बड़ी कंपनियों के वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पद्र्धा करने लायक होने की संभावना है और वैश्विक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए इन प्रोत्साहनों का कारगर इस्तेमाल किया जा सकेगा। निर्यात प्रोत्साहन देना विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के मानकों के अनुरूप नहीं है लेकिन उत्पादन आधारित प्रोत्साहन इसके दायरे में आते हैं।
पांच वर्षों के भीतर इन क्षेत्रों में करीब 1.46 लाख करोड़ रुपये मूल्य के प्रोत्साहन दिए जाने हैं। हैंडसेट के लिए प्रोत्साहन योजना 2021-22 से लेकर 2025-26 तक चलेगी जबकि बाकी दो योजनाएं 2022-23 से 2026-27 तक जारी रहेंगी। बाद में घोषित 10 क्षेत्रों की समयावधि अभी पता नहीं है लेकिन पुराने ढर्रे को देखने से यही लगता है कि एक खास वार्षिक आउटपुट स्तर से 5-10 फीसदी अधिक राजस्व एवं अतिरिक्त निवेश के लिए कुछ सीमा तय की जाएगी।
पांच फीसदी प्रोत्साहन राशि होने पर थोड़ा आश्चर्य जताया जा सकता है। हमारी राय में यह काफी हो सकता है। प्रोत्साहन मूल्य-वद्र्धित न होकर आउटपुट के मूल्य पर आधारित है जिससे यह डाउनस्ट्रीम कंपनियों को लुभाता है क्योंकि असेंबलिंग की लागत अमूमन विनिर्माण मूल्य के 10 फीसदी से अधिक नहीं है। अगर किसी उत्पाद की असेंबलिंग लागत उसके मूल्य का 10 फीसदी है तो 5 फीसदी प्रोत्साहन देने का मतलब असेंबलर को 50 फीसदी समर्थन देना होगा। इस तरह अधिकांश आपूर्ति शृंखलाओं के सर्वाधिक श्रम-बहुल चरण यानी असेंबलिंग को भारत के इलेक्ट्रॉनिक्स एवं कपड़ा जैसे क्षेत्रों में आकर्षित किया जा सकता है। खाद्य प्रसंस्करण में इससे वैश्विक निर्यात में भारत का हिस्सा बढ़ाने में मदद मिल सकती है जो खाद्य अधिशेष बढ़ाने के लिए एक आउटलेट बन सकता है।
ये प्रोत्साहन समयबद्ध भी हैं जैसा किसी भी 'नवजात उद्योग' को समर्थन देने वाली योजना को होना चाहिए। इसके पीछे अंतर्निहित धारणा यह है कि पांच वर्षों में उद्योग ऐसे मुकाम पर पहुंच सकता है जहां यह प्रोत्साहन के बगैर ही अपना वजूद बनाए रख सके यानी नवजात मां के दूध के बगैर ही जीना सीख जाए। यहां तक पहुंचने के लिए इन क्षेत्रों को इनपुट देने के लिए स्थानीय आपूर्ति शृंखलाएं विकसित करनी होंगी। मसलन, हैंडसेट एवं लैपटॉप के लिए इलेक्ट्रॉनिक सामान या कार निर्माताओं के लिए ऑटो उपकरण। वास्तव में उनकी सफलता का एक अहम उपाय इन आपूर्तिकर्ताओं का विकास होगा।
ये अभी शुरुआती दिन हैं और 10 क्षेत्रों के लिए घोषित पीएलआई के ब्योरे भी अंतिम रूप से नहीं तय हो पाए हैं। प्रोत्साहन के सही स्तर का निर्धारण भी चुनौतीपूर्ण हो सकता है। न तो बहुत कम ही हो क्योंकि ऐसा होने पर उद्योग दिलचस्पी नहीं दिखाएंगे और न ही बहुत अधिक हो क्योंकि सरकार करदाताओं के पैसे को कुछ कंपनियों के खाते में भेज सकती है, (गोल्डीलॉक्स का वाकया याद आता है।) तमाम जिम्मेदार मंत्रालय उद्योग निकायों के साथ परामर्श में हो सकते हैं जो खुद भी इस पर सहमति बना सकते हैं कि प्रोत्साहन किसको दिया जाए। मसलन, कुछ लोग चाहेंगे कि वाहन क्षेत्र की प्रोत्साहन योजना का एक बड़ा हिस्सा इलेक्ट्रिक वाहनों को दिया जाए वहीं कुछ लोग सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पर असर को अधिकतम करने के लिए कार उत्पादन के लिए अधिक हिस्सा चाहेंगे।
कंपनियों के हित में है कि वे इन योजनाओं को लेकर अधिक रुचि न दिखाएं क्योंकि ऐसा होने पर ही सरकार पीएलआई को अधिक आकर्षक बनाएगी। सही तरह से बनाई गई योजनाएं इस क्रय-विक्रय में कटौती के लिए प्रतिस्पद्र्धा कर सकती हैं। फर्मों को भी पता है कि ये प्रोत्साहन पाने वाला प्रतिस्पद्र्धी आकार के मामले में इसे पांच वर्षों में अलग प्रतिस्पद्र्धी मुकाम तक ले जा सकता है। राज्य सरकारें भी कंपनियों को लुभाने के लिए सस्ती जमीन देने का वादा कर, वस्तु एवं सेवा कर लाभ देकर और त्वरित मंजूरी देकर प्रतिस्पद्र्धा कर रही हैं।
कुछ प्रेक्षकों ने एक अधिक हस्तक्षेपकारी राज्य में निहित जोखिमों का मसला भी उठाया है। इन योजनाओं के ब्योरे कुछ खास फर्मों को फायदा पहुंचाने के इरादे से बनाए जा सकते हैं जो दोस्ताना पूंजीवाद को बढ़ावा देगा; ज्ञान के अभाव में संसाधनों का गलत आवंटन हो सकता है क्योंकि यह कौन तय करेगा कि किन क्षेत्रों को प्रोत्साहन मिलना है; प्रोत्साहन योजनाओं की घोषणा की खबर फैलते ही इनका दायरा बढ़ाने के लिए गिरोहबंदी शुरू हो सकती है; लॉकडाउन की वजह से लक्ष्यों में ढील देने की मांग और प्रोत्साहन देने में विवेक कम करने के लिए लक्ष्यों को सही तरह से परिभाषित करने जैसे जोखिम जुड़े हुए हैं। असल में नीति-निर्माताओं को इन जोखिमों से सुरक्षा देनी चाहिए लेकिन साथ ही अधिकांश आपूर्ति शृंखलाओं में नेटवर्क प्रभाव मजबूत होने का मतलब है कि ये योजनाएं सार्थक ढंग से निवेश एवं वृद्धि को तेज कर सकती हैं। 'नवजात उद्योग समर्थन' इतिहास में कई देशों के नीतिगत टूलकिट का अंग रहा है।
हमारा अनुमान है कि इन प्रोत्साहन योजनाओं से वित्त वर्ष 2026-27 तक जीडीपी में 1.7 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकेगी। इसका मतलब है कि अगले पांच वर्षों तक जीडीपी में सालाना 0.3-0.4 फीसदी वृद्धि होगी। पूंजी व्यय से अधिक इसका प्रत्यक्ष प्रभाव श्रम-रोजगार पर पडऩे की संभावना है लेकिन कलपुर्जे मुहैया कराने वाली फर्मों के अंतिम असेंबली वाली जगह के करीब होने से कुल निवेश भी उछाल मार सकता है। इसका असर सोच से भी जल्दी हो सकता है: इन योजनाओं के लिए चुनी गई कंपनियों को अपने कारखाने वर्ष 2021-22 में ही बना लेने होंगे।
(लेखक क्रेडिट सुइस के एशिया-प्रशांत एवं भारत रणनीति के सह-प्रमुख हैं)
|