सार्वजनिक ऋण के जरिये वृद्धि की कोशिश होगी कामयाब? | नीति नियम | | मिहिर शर्मा / February 17, 2021 | | | | |
आम बजट पेश किए जाने के बाद बीते सप्ताहों में अर्थव्यवस्था को लेकर राजनीतिक बहस में दिलचस्प बदलाव देखने को मिला है। सरकार को साहसी सुधारक के रूप में पेश किया जा रहा है। इस बात से सुधारों के नए दौर को लेकर हमें किस हद तक आशान्वित होना चाहिए?
पहली और सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात यह है कि बजट में कई ऐसी बारीक बातें शामिल हैं जिन्हें अग्रगामी कदम माना जा सकता है। ऐसे सरकारी उपक्रमों का निजीकरण भी ऐसी ही एक बात है जो बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। यह प्रयास तब किया जाना है जब बीते वर्षों में हमें एक के बाद एक विनिवेश के क्षेत्र में नाकामी हासिल हुई। अब सरकार ने संसद में निजीकरण की राह पर चलने की प्रतिबद्धता जताई है। यानी उसे जवाबदेह ठहराया जा सकता है।
ईमानदारी और पारदर्शिता के मूल्यों की बात भी की गई है। यह सही है कि बजट में चालू वर्ष के लिए सकल घरेलू उत्पाद के 9.5 फीसदी के बराबर राजकोषीय घाटे की घोषणा करनी पड़ी। यह भी कहा गया कि भविष्य में राजकोषीय घाटे का स्तर सहज होगा। घाटे के जीडीपी के 4.5 फीसदी तक पहुंचने के लिए छह वर्ष की अवधि दी गई है जबकि विधिक लक्ष्य घाटे को जीडीपी के 3 फीसदी तक रखने का है। हम इस विषय पर बहस कर सकते हैं। इसकी एक नकारात्मक वजह है और वह यह कि उसने भारतीय रिजर्व बैंक को निर्देश दिया है कि वह बॉन्ड की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष खरीद बरकरार रखे ताकि प्रतिफल नियंत्रण से बाहर न जाए।
यह बात भी हमें याद दिलाती है कि आरबीआई को अब सरकार के ऋण प्रबंधन कार्यालय की तरह बरताव नहीं करना चाहिए क्योंकि उसके कारण उसे स्वयं को राजकोषीय नीति के लक्ष्यों और उद्देश्यों के साथ जोडऩा पड़ता है। परंतु एक सकारात्मक वजह भी है। विगत वित्तीय संकट के बाद पहली बार बजट के आंकड़ों को व्यापक रूप से विश्वसनीय माना जा सकता है। राजकोषीय घाटे के आंकड़े में बजट से इतर की हर उधारी और देनदारी को शामिल नहीं किया गया लेकिन केवल भारतीय खाद्य निगम को शामिल करने को ही हालात सामान्य करने की दिशा में बड़ा कदम माना जा सकता है और यह आंकड़ों में हेरफेर की अतीत की कई खामियों को दूर करने वाला कदम है। बाजार और रेटिंग एजेंसियों ने सरकारी ऋण कार्यक्रम की अधिक आलोचना करने से दूरी बरती है। बहरहाल हमें कम से कम इसके संभावित आकार की जानकारी है।
अन्य स्थानों पर सरकार की सराहना हुई है। सरकार ने स्वयं भी अतिरिक्त उधारी को खर्च करने संबंधी निर्णय को लेकर अपनी सराहना की है। सरकार, सरकारी क्षेत्र की ओर से पूंजी निर्माण की प्राथमिकता से जुड़े अपने निर्णय पर और अधिक कड़ा रुख अपना रही है। बीते कुछ वर्षों में हर वर्ष बजट का हिस्सा होने के बावजूद अब तक यह नीति सरकार के लिए बहुत कारगर नहीं हो सकी है। निजी क्षेत्र का निवेश कमजोर बना हुआ है। सच तो यह है कि हकीकत बुनियादी आर्थिक सिद्धांतों पर भारी पड़ रही है और सार्वजनिक व्यय तथा घाटा निजी निवेश को दूर कर रहे हैं।
यह संभव है कि सरकार ने निजी निवेश की कमी की समस्या का जो हल सोचा है वह कारगर साबित नहीं हो लेकिन उसे प्रयास करना चाहिए। सबसे पहले वह बैड बैंक की स्थापना कर बैंकिंग की दिक्कतें दूर करना चाहती है। दूसरी बात यह कि वह प्रमुख क्षेत्रों और बुनियादी ढांचा क्षेत्र में निजी पूंजी निवेश को बढ़ावा देना चाहती है। इसके लिए नियामकीय बदलाव और नए वित्तीय विकास संस्थानों का निर्माण करने की बात कही गई। तीसरी प्रयास मौजूदा सरकारी संसाधनों के मुद्रीकरण के माध्यम से होना है।
ये सभी नीतियां जोखिम वाली हैं और काफी हद तक क्रियान्वयन पर निर्भर करती हैं। बैड बैंक के मामले में भी कटौती को लेकर वही चिंताएं होंगी जो सरकारी बैंकों में फंसे कर्ज की समस्या के निपटान को लेकर रही हैं। विकास वित्त संस्थान का विचार कहीं अधिक बेहतर है। परंतु यदि इस पर भी अफसरशाही हावी हुई तो केंद्रीय सतर्कता आयोग, केंद्रीय सूचना आयोग, केंद्रीय जांच ब्यूरो आदि प्रक्रिया को जटिल बना देंगे। दूसरे शब्दों में यदि यह कम पेशेवर हुआ तो आशा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाएगा। परिसंपत्ति मुद्रीकरण वास्तविक निजीकरण नहीं है। चूंकि बुनियादी वित्त पोषण काफी हद तक राजनेताओं और सरकार की समझ पर निर्भर करती है इसलिए उच्च गति वाली रेल परियोजना जैसे सफेद हाथी पालने से बचना चाहिए।
स्पष्ट है कि सरकार बड़ा दांव लगा रही है। उसे आशा है कि पूंजी बाजार और रेटिंग एजेंसियों से कुछ वर्ष की मोहलत मिलेगी। इस अवधि में वह ऋण लेकर बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को फंड करेगी। सरकार का मानना है कि यह बुनियादी ढांचा आगे चलकर निजी निवेश जुटाने में सहायक होगा और अर्थव्यवस्था में वृद्धि की वापसी होगी।
दुख की बात यह है कि ऋण-जीडीपी अनुपात आने वाले वर्ष में बढ़कर 90 प्रतिशत तक हो जाएगा। राजकोषीय घाटे में भी निकट भविष्य में कोई कमी आती नहीं दिखती। इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनैशनल फाइनैंस ने हालिया रिपोर्ट में कहा है कि घाटा पहले जताए गए अनुमान से अधिक हो तो उसका प्रबंधन किया जा सकता है लेकिन वह मौजूदा प्रबंधनीय स्तर पर नहीं आएगा। परंतु ऋण-जीडीपी का इतना ऊंचा स्तर भविष्य के झटकों से निपटने के लिए अवसर नहीं छोड़ेगा। सन 2013 में हमें ऐसे ही हालात का सामना करना पड़ा था जब तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी सन 2010 के दशक के शुरुआती दौर की नाकामियों का प्रबंधन नहीं कर पाए थे।
यदि सरकार का दांव कामयाब होता है तो इस बजट को दूरदर्शी बताया जाएगा। यदि नाकामी हाथ लगती है तो यह बजट भी प्रणव मुखर्जी के बजट की तरह ही याद किया जाएगा जिसने वृहद अर्थव्यवस्था को अस्थिर किया और भारत को संकट के समक्ष जोखिम में डाल दिया। आशा की जानी चाहिए कि ऐसा न हो।
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