सरकारी परिसंपत्तियों का मुद्रीकरण | संपादकीय / February 14, 2021 | | | | |
देश में बुनियादी ढांचा क्षेत्र को समुचित धन मुहैया कराने की दिक्कत काफी पुरानी है। सरकार के पास इतना राजस्व नहीं रहता कि वह बुनियादी निवेश को लेकर अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति कर सके जबकि निजी क्षेत्र के मन में इस क्षेत्र में धन लगाने को लेकर हिचक रहती है क्योंकि यहां राजनीतिक जोखिम अधिक हैं। निजी-सार्वजनिक परियोजनाओं की बात करें तो बीते दशक के दौरान काम की धीमी गति, लागत में इजाफा, तय अवधि में काम पूरा न होने और भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण इनका नाम खराब हो चुका है। ऐसे में सरकार के अलग रास्ता अपनाने की बात समझ में आती है। यह रास्ता है सरकारी परिसंपत्तियों का मुद्रीकरण। इससे सरकार का तात्पर्य यह है कि सरकारी क्षेत्र का एक उपक्रम परियोजना का चयन करेगा, उसका डिजाइन बनाएगा और उसे तैयार करेगा। इसके पश्चात उसे एक निवेश न्यास के हवाले किया जाएगा या निजी क्षेत्र को सौंपा जाएगा। जबकि कुछ स्तरों पर स्वामित्व बरकरार रखा जाएगा। उदाहरण के लिए परिसंपत्तियों को एकत्रित किया जा सकता है और उनसे हासिल आय सुनिश्चित की जा सकती है। इनसे हासिल होने वाली राशि को बुनियादी निवेश में लगाया जाएगा। इस तरह भविष्य में इन परियोजनाओं को वित्तीय सहायता मुहैया कराने की समस्या हल हो जाएगी। यह सैद्धांतिक बात है और व्यवहार में इस पर कितना अमल होता है यह देखना होगा।
परिसंपत्तियोंं का ऐसा मुद्रीकरण निजीकरण से अलग है। हालांकि केंद्रीय वित्त मंत्री ने बजट भाषण में निजीकरण को लेकर भी खाका पेश किया। निजीकरण के जरिये उद्यम के मूल्यवद्र्धन की संभावना रहती है और राष्ट्रीय आय तथा कल्याण में शुद्ध लाभ संभव होता है। परिसंपत्ति के मुद्रीकरण से सरकार को निरंतर राजस्व मिलना तय होता है। सरकार ने दो विरोधाभासी नीतियों को अपनाने का वादा किया है जिससे संकेत मिलता है कि वह राजस्व की कमी दूर करने के तरीकों को लेकर संशय में है।
जमीन के मुद्रीकरण की संभावना को लेकर काफी उत्साह है क्योंकि अभी भी जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा सरकार और सरकारी उपक्रमों के पास है। इनमें से कई जमीन ऐसे इलाकों में हैं जो बाजार मेंं बहुत अच्छी कीमत दिला सकती हैं। आशा है कि जमीन का मुद्रीकरण ऐसी जमीन की सीधी बिक्री से जुड़ी कुछ और दिक्कतों को दूर करेगा। मिसाल के तौर पर परिसंपत्ति बेचने के आरोप। ऐसे मामलों में कुछ समस्याएं जमीन के इस्तेमाल में बदलाव से जुड़ी भी होती हैं। उदाहरण के लिए इन जमीन केे स्वामित्व की स्थिति पूरी तरह स्पष्ट नहीं होती। दूसरा, संबंधित जमीन मेंं से कुछ को लेकर राज्य सरकारों के पास भी अधिकार होंगे। खासतौर पर अंतिम उपयोग को लेकर। ऐसे में यदि उन्हें उनका हिस्सा न मिले तो वे गतिरोध उत्पन्न कर सकती हैं। चाहे जो भी हो, कीमत तय करना जटिल होगा और इसके लिए ऐसी एजेंसी तैयार करनी होगी जहां प्रबंधन के लिए विशेषज्ञ मौजूद हों। बिना ऐसी स्वतंत्र क्षमता के विकास के सरकार मुद्रीकरण का उचित प्रबंधन नहीं कर पाएगी।
एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब तलाश करना होगा: क्या यह परिसंपत्तियों के निजीकरण की तुलना में अधिक उपयोगी इस्तेमाल है? भारतीय हवाई अड्डों के मामले ने हमेंं दिखाया है कि यह सरकारी प्रबंधन से अधिक उत्पादक है। दूसरा सवाल है: क्या यह देश में बुनियादी ढांचे को वित्तीय सहायता प्रदान करने की समस्या का स्थायी हल है? इसका उत्तर स्पष्ट नहीं है क्योंकि व्यवस्था के मुताबिक सरकार को पहले निर्मित बुनियादी ढांचे का चयन और गुणवत्ता निर्धारण करना होता है। भारत में इसके अपेक्षित परिणाम नहीं मिले हैं। परिसंपत्ति मुद्रीकरण कार्यक्रम का क्रियान्वयन न केवल राजस्व उत्पादन की दृष्टि से अहम होगा बल्कि यह भविष्य में बुनियादी ढांचे के लिए व्यवहार्य मॉडल भी हो सकता है।
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