शेयर बाजारों के जोखिम भरे नियमन की आशंका | के पी कृष्णन / February 10, 2021 | | | | |
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने स्टॉक एक्सचेंजों एवं डिपॉजिटरी के नियमन के मानकों एवं मौजूदा स्वामित्व की समीक्षा के लिए 6 जनवरी को एक विमर्श पत्र जारी किया। बाजार अर्थव्यवस्था में स्टॉक एक्सचेंज एवं डिपॉजिटरी जैसे बाजार ढांचागत संस्थानों (एमआईआई) की असामान्य हैसियत होती है। जहां वित्तीय बाजारों में कारोबार के लिए तमाम नियम-कायदे हैं, वहीं एमआईआई को खुद ही नियम बनाने एवं उनका संचालन करना होता है। एक कारगर वित्तीय प्रणाली की स्थापना के लिए एमआईआई का सुगम एवं सौहार्दपूर्ण संचालन एक पूर्व-शर्त है। असल में 1991 के बाद भारत में वित्त व्यवस्था की तमाम उपलब्धियां एमआईआई के परिदृश्य निर्माण में की गई कोशिशों का ही नतीजा हैं।
क्या हम एमआईआई को महज कारोबार तक ही सीमित मान सकते हैं? आखिर एमआईआई किन वजहों से खास हैं? यहां पर एक छोटी समस्या है और एक बड़ी समस्या है। छोटी समस्या यह है कि एक्सचेंजों में स्वाभाविक तौर पर एकाधिकार की प्रवृत्ति देखी जाती है। अधिकांश देशों में ढेरों काम एक मुख्य एक्सचेंज के मातहत ही अंजाम दिए जाते हैं। ऑर्डर वही दिए जाते हैं जहां ऑर्डर होते हैं और ऑर्डर के लिए प्रतिस्पद्र्धा करने वाले कई एक्सचेंजों का होना मुश्किल है। बड़ी समस्या यह है कि एमआईआई नियमन की अगली कतार में होते हैं। यह अपने-आप में नियामक होते हैं जो नियम बनाने का काम करते हैं, उन नियमों को लागू करते हैं और सेबी के बनाए हुए कुछ नियमों को भी लागू कराते हैं। निगरानी की पहली कतार में शामिल एमआईआई बाजार निष्ठा में बड़ी भूमिका निभाते हैं।
एक एमआईआई के अंशधारकों को कारोबार की मात्रा के अनुपात में राजस्व मिलता है। दुर्भाग्य की बात है कि एमआईआई प्रबंधक बाजार निष्ठा को तिलांजलि देकर टर्नओवर बढ़ाने का मकसद कई तरीकों से हासिल कर सकते हैं। ऐसी स्थिति की कल्पना कीजिए जिसमें कुछ गलत बातें हो रही हैं, मसलन कोई फर्जी खबर है, या फिर स्टॉक पर नजर गड़ाए बैठा कोई गिरोह है या फिर वह जोड़-तोड़कर स्टॉक अपने कब्जे में करना चाहता है। बाजार निष्ठा के लिहाज से देखें तो प्रबंधकों को इसमें दखल देने की जरूरत है लेकिन टर्नओवर में बढ़ोतरी के लिहाज से देखने पर यह समस्या खास नहीं है। प्रबंधक नियम बनाने एवं उनके क्रियान्वयन को लेकर सुस्ती बरत सकते हैं जिससे भारी पैमाने पर ट्रेडिंग को मदद मिल सकती है। इस टर्नओवर में शीर्ष 20 प्रतिभूति फर्मों की बड़ी हिस्सेदारी होती है और प्रबंधक चाहें तो अधिक टर्नओवर के लिए उनके खिलाफ नियम प्रवर्तन में सुस्ती बरत सकते हैं।
नब्बे के दशक में हमने बंबई स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) में कई समस्याएं देखी थीं जो इन मुद्दों को रेखांकित करती हैं। उस समय बीएसई का नियंत्रण स्टॉक ब्रोकरों के हाथों में होता था जिन्हें शेयरों की खरीद-फरोख्त और एक्सचेंज में किए जाने वाले कार्यों के लिए राजस्व मिलता था। इन ब्रोकिंग फर्मों के पास बीएसई का प्रबंधकीय नियंत्रण भी होता था। बाजार निष्ठा को तिलांजलि देकर भी अगर वे अधिक टर्नओवर हासिल कर पाने में सफल हो जाते थे तो उन्हें विशेष प्रोत्साहन मिलता था। इसके नतीजे कभी-कभी बहुत खराब एवं खतरनाक भी होते थे। वैकल्पिक तौर पर उस शेयरधारक के बारे में सोचिए जो एक्सचेंज का टर्नओवर ऊपर जाने पर लाभ कमाने या बाजार पूंजीकरण की सोच रखता है। अगर इस शेयरधारक को एक्सचेंज के प्रबंधन में ठीकठाक असर हासिल है तो फिर हम 'उच्चाधिकार-प्राप्त प्रोत्साहनों' की समस्या में फंसते हैं। एक एक्सचेंज के मुनाफे या बाजार पूंजीकरण में बड़ी रकम शामिल होती है। जब प्रबंधक-सह-शेयरधारक को बड़े प्रोत्साहन मिलते हैं तो इससे टर्नओवर के पक्ष और बाजार निष्ठा के विरोध में पूर्वग्रह पैदा होने लगता है।
इन समस्याओं को दूर करने के लिए वित्तीय आर्थिक नीति समुदाय 'न्यूनाधिकार-प्राप्त प्रोत्साहन' की अवधारणा लेकर सामने आया। इसका सार यह था कि कोई समर्पित शेयरधारक न हो, शेयरधारक या शेयर दलाली में लिप्त प्रबंधकों से परहेज हो और प्रबंधकों के लिए शेयर स्वामित्व या स्टॉक विकल्पों से बचा जाए। यह ढांचा भारतीय एमआईआई के स्वामित्व का दायरा तय करता है जो कि व्यक्तियों और घरेलू या विदेशी संस्थानों के लिए 5 फीसदी शेयरधारिता सीमा से अधिक न हो। वहीं चुनिंदा श्रेणी के संस्थानों को 15 फीसदी शेयरधारिता स्वामित्व तक की अनुमति होती है। ऐसा इसलिए किया गया है कि स्वामित्व कुछ गिने-चुने हाथों में ही केंद्रित न रहे।
इस सोच ने ही नैशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) और बीएसई के शेयरधारिता ढांचे की नींव रखी थी। कमोडिटी की दुनिया में उसके बाद हुई घटनाओं ने भी इस रवैये को सही साबित किया।
इस संदर्भ में ही हमें सेबी के हालिया चर्चा पत्र को देखना चाहिए जो स्टॉक एक्सचेंज एवं डिपॉजिटरी के स्वामित्व एवं शासन मानकों की समीक्षा के लिए लाया गया है। अधिक इकाइयों के प्रवेश को मुमकिन बनाना ही इसका मकसद है ताकि इस क्षेत्र में प्रतिस्पद्र्धा बढ़ाई जा सके। इसे संभव बनाने के लिए एमआईआई के नियामकीय ढांचे में निम्नलिखित बदलाव की बात कही गई है:
(1) निवासियों एवं विदेशी प्रवर्तकों को शुरुआती दौर में शेयरधारिता में अधिक स्वामित्व दिया जाए जो समय के साथ धीरे-धीरे कम होता जाए।
(2) निवासी एवं विदेशी व्यक्ति/ इकाइयां मौजूदा एमआईआई के विलय एवं अधिग्रहण कर सकें लेकिन सेबी की अनुमति जरूरी होगी।
इसके अलावा एमआईआई की वैधानिक समितियों को अधिक विविधतापूर्ण बनाने के लिए शासन मानकों में बदलाव का प्रस्ताव भी रखा गया है।
फिलहाल एमआईआई द्वारा एकाधिकारपूर्ण ढंग से कीमतें तय करने पर चिंताएं हैं। ये चिंताएं वाजिब हैं और इन पर ध्यान देने की जरूरत है। हालांकि एमआईआई द्वारा वसूले जाने वाले शुल्क उनके उपभोक्ताओं की गतिविधियों की तुलना में कम मूल्य के हैं और बहुत अधिक मार्क अप होने पर भी इससे अर्थव्यवस्था को होने वाला नुकसान छोटा होता है।
इसके उलट बाजारों में हुए बड़े घोटालों ने अर्थव्यवस्था को भारी क्षति पहुंचाई है और उनसे बचना बेहद जरूरी है। ऐसी नियामकीय प्रणालियां हैं जिनके जरिये एमआईआई बढ़-चढ़कर कीमतें तय कर सकें। इनमें सहकारी मॉडल से साम्यता रखने वाला मॉडल सबसे अहम है जिसमें एमआईआई की शेयरधारिता का बड़ा हिस्सा एक्सचेंज के सबसे बड़े ग्राहक यानी संस्थागत निवेशकों के पास होता है। इन संगठनों को एमआईआई से मिलने वाले मामूली लाभांश की तुलना में बाजार निष्ठा के साथ महंगे लेनदेन से अधिक हासिल होगा।
शेयरधारिता में कमी और एमआईआई के प्रबंधकों को कम प्रोत्साहन देने की संकल्पना उस सजग सोच पर आधारित है जहां हम संकेंद्रित स्वामित्व से होने वाले लाभों के बरक्स शेयर बाजार घोटाले के अर्थव्यवस्था पर पडऩे वाले व्यापक असर को साधते हैं। यहां हमें यह सवाल पूछना होगा कि क्या हम नियमन लागू करने में अधिक भरोसा रखते हैं ताकि नागरिक एवं बाजार इससे इत्तफाक रखें कि एमआईआई के प्रबंधक अधिक प्रोत्साहन मिलने पर नियामकीय हितों के टकराव से निपट पाएंगे?
(लेखक भारत सरकार के पूर्व सचिव और एनसीएईआर में प्रोफेसर हैं)
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