नई बोतल में पुरानी शराब | संपादकीय / February 09, 2021 | | | | |
ढांचागत विकास के लिए धन मुहैया कराने के मकसद से इस साल के केंद्रीय बजट में विकास वित्त संस्थान (डीएफआई) के गठन की एक अहम घोषणा की गई है। भले ही उद्योग जगत इस निर्णय की मांग पहले से करता रहा है लेकिन इसके साथ कुछ बड़ी समस्याएं भी जुड़ी हुई हैं। डीएफआई ढांचे को भारत में पहले भी आजमाया जा चुका है लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पेश आने वाली समस्याओं- निर्देशित ऋण आवंटन, खराब जोखिम आकलन एवं निगरानी से प्रभावित होने की वजह से नाकाम होना पड़ा था। अगर सरकार ने फिर से डीएफआई बनाने का फैसला किया है तो उसे कम-से-कम प्रोत्साहन समस्याओं को न्यूनतम करना चाहिए और प्रस्तावित संस्थान में संरचनात्मक मजबूती लाने की कोशिश करनी चाहिए। वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में वादा किया था कि नए डीएफआई का प्रबंधन पेशेवर ढंग से किया जाएगा। अधिकतर प्रेक्षकों ने इसका यही मतलब निकाला था कि इसमें निजी क्षेत्र को बड़ी एवं संभवत: नियंत्रक हिस्सेदारी मिलेगी और प्रबंधन का चयन उसी के हिसाब से किया जाएगा। इस परिप्रेक्ष्य से देखें तो नया डीएफआई बनाने की दलील में काफी दम है: इसमें सरकार का हिस्सा होने से भारत में दीर्घावधि के लिए ढांचागत वित्त में वैश्विक पूंजी के प्रवेश से जुड़ा जोखिम कम करने में मदद मिलेगी। अलग से गठित निकाय से यह भी सुनिश्चित हो सकेगा कि ढांचागत क्षेत्र के लिए उधारी जुटाने को भारत में सरकारी कर्ज को लेकर जताई जा रही चिंताओं का बंधक नहीं बनाया जाएगा।
हालांकि, अब यह सामने आ चुका है कि सरकारी नियंत्रण वाली इंडिया इन्फ्रास्ट्रक्चर फाइनैंस कंपनी (आईआईएफसीएल) ही नए डीएफआई के बीज रूप में काम करेगी। करीब 10,000 करोड़ रुपये की चुकता पूंजी वाली आईआईएफसीएल को बजट में अलग से किए गए 10,000 करोड़ रुपये के प्रावधान से भी मदद मिलेगी। आईआईएफसीएल के फंसे हुए कर्ज के लिए वित्तीय प्रावधान किए जाएंगे और फिर बहीखाते को नई कंपनी के सुपुर्द कर दिया जाएगा। यह एक ऐसा विचार है जिसे अफसरशाहों ने दुर्भाग्य से अपनाया हुआ है। अगर आईआईएफसीएल वह काम कर सकती थी जो सरकार नई डीएफआई के जरिये कराना चाहती है तो वह पहले से ही वैसा कर रही होती और फिर से सरकारी दखल देने की कोई जरूरत ही नहीं होती। प्रस्तावित समाधान उपहास का विषय बन सकता है। आईआईएफसीएल को बेलआउट कर उसे नया नाम देना और फंसे कर्ज का भी इंतजाम होने पर शायद नई कंपनी भी पुरानी कंपनी की गलतियां दोहराने लगेगी।
यह देख पाना मुश्किल है कि दीर्घावधि पूंजी का कोई भी निजी पूल ऐसे संस्थान के साथ कारोबार क्यों और कैसे करना चाहेगा? यह समझने वाली बात है कि निजी क्षेत्र से धन जुटाए जाते समय एक शुरुआती समयबद्ध व्यवस्था के तौर पर नए डीएफआई के पास सरकार की बहुलांश हिस्सेदारी बनी रहे। लेकिन महज तीन वर्षों के भीतर 5 लाख करोड़ रुपये का वित्त जुटाने के वित्त मंत्री के महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य को पूरा करने के लिए जरूरी होगा कि निजी क्षेत्र सुगमता से पैसे लगाए और सरकारी हिस्सेदारी को घटाकर अल्पांश कर दिया जाए। सरकार की बहुलांश हिस्सेदारी होने से डीएफआई के पास बाजार से जरूरी कौशल वाले लोगों को नियुक्त करने लायक समुचित लचीलापन भी नहीं रह पाएगा। इसलिए संस्थान की शुरुआती संरचना बनाए जाते समय इसका ध्यान रखना चाहिए। यह काम सभी तरह के पुराने बोझ से मुक्त होने के साथ शुरू होना चाहिए और आईआईएफसीएल जैसे संस्थानों से जुड़ा कोई भी समस्याग्रस्त सांस्थानिक इतिहास नहीं होना चाहिए। वित्त मंत्रालय को नए विकास वित्त संस्थान के बारे में अपने मसौदा कानून के बारे में जल्द पुनर्विचार करना चाहिए। सिर्फ नई बोतल में पुरानी शराब होने पर इसका स्वाद अतीत की तरह फिर से कड़वा ही होगा।
|