कोविड टीके में अगुआई सही मगर अंध-देशभक्ति नहीं | |
जमीनी हकीकत | सुनीता नारायण / 02 08, 2021 | | | | |
ठीक एक साल बाद दुनिया कोविड-19 के खिलाफ जारी जंग में अगले निर्णायक चरण की तरफ बढ़ रही है। टीके आ चुके हैं और लोगों को लगाए भी जा रहे हैं। कई समृद्ध देशों ने साल के मध्य तक अपनी समूची जनसंख्या को कोविड टीके लगाने का लक्ष्य रखा है। उनका कहना है कि पूर्ण टीकाकरण हो जाने के बाद वे पुरानी स्थिति की ओर लौट सकते हैं। लेकिन इसके लिए हमें रिकवरी के इस अहम चरण में अपने वैज्ञानिक एवं राजनीतिक नेतृत्व की तरफ से गहन आत्म-परीक्षण की जरूरत है। एक तरफ यह वायरस नए रूप में सामने आ रहा है और उसके बारे में कोई भी अंदाजा लगा पाना मुश्किल होता जा रहा है और हम अब भी बहुत कुछ नहीं जानते हैं। मसलन यही साफ नहीं है कि वायरस से सुरक्षा देने वाली ऐंटीबॉडी कुछ महीनों से अधिक चलेगी या नहीं।
अगर ऐसा होता है तो फिर सामूहिक प्रतिरोधकता यानी हर्ड इम्युनिटी भी जादुई नहीं होगी। दिल्ली में हुए सीरो सर्वे से यह सामने आया है कि 50 फीसदी से भी अधिक आबादी में ऐंटीबॉडी मौजूद हैं। दूसरी तरफ वायरस की नई किस्म खुद को तेजी से फैलाने के लिए हमारी प्रतिरोधक क्षमता में कमजोर बिंदुओं की पहचान के लिए तेजी से सीख रही है। कोरोनावायरस की ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील में सामने आई नई किस्में अधिक संक्रामक पाई गई हैं क्योंकि ऐंटीबॉडी उन्हें पहचान ही नहीं पा रहीं। इस तरह वायरस एवं इंसानों के बीच एक जंग छिड़ चुकी है।
इन सबके बीच वैश्विक स्तर पर नेतृत्व पिछले साल की गलतियों से कुछ सीख ही नहीं रहा है। पहला, यह महत्त्वपूर्ण है कि हम अंतर-निर्भरता के सिद्धांत को समझें। इसका मतलब है कि हमें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि टीका दुनिया में हर किसी को उपलब्ध हो, किफायती हो और सबकी पहुंच में हो। टीका वितरण में असमता का मतलब है कि वायरस हमारे बीच बना रहेगा और अपना रूप बदलकर शरीर के भीतर पहुंचने के नए तरीके तलाशता रहेगा। शायद उन नई किस्मों के प्रति हमारा शरीर सुरक्षित भी न हो। यह भी साफ है कि आर्थिक लागत उस स्थिति में प्रलयंकारी होगी जहां वैश्विक जनसंख्या का बड़ा हिस्सा असुरक्षित बना हुआ है। लेकिन अब भी दुनिया में गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा है और हरेक देश में अलग संघर्ष हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा मध्य जनवरी में आयोजित करीब 2,800 वैज्ञानिकों के वर्चुअल सम्मेलन में इस तरफ ध्यान दिलाया गया था कि टीका उपलब्धता की खाई कितनी गहरी एवं गंभीर है। अभी तक दुनिया भर में करीब 3 करोड़ टीका खुराकें ही लगाई गई हैं जो अधिकतर उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में हैं। सबको आसानी से टीका मुहैया कराने के लिए चलाई गई डब्ल्यूएचओ की कोवैक्स पहल में गरीब देशों को टीके की आपूर्ति के लिए जरूरी फंड का प्रावधान नहीं है। समस्या के मूल में सिर्फ पैसे की कमी ही नहीं है। वैज्ञानिक सहयोग का भी पूरी तरह अभाव है। दुनिया को यह दूसरा सबक भी सीखना होगा। इस जंग में दखल की रफ्तार एवं पैमाना दोनों ही पूर्व-शर्त हैं। निस्संदेह कोरोनावायरस की काट खोजने में पिछले साल हमें वैज्ञानिक चतुराई, नवाचार एवं उद्यम का असाधारण प्रदर्शन देखने को मिला। अब तीन-चार टीके इस्तेमाल में आ चुके हैं और कई दूसरे टीकों का विकास भी जारी है। सफलता इस पर निर्भर करेगी कि कितनी तेजी से इन टीकों को लगाया जा सकता है और इसके लिए यह जानना होगा कि टीका असरदार होने के साथ सुरक्षित भी है या नहीं। फिलहाल दुनिया के सभी औषधि नियामक टीकों का असर जांचने में लगे हैं। दवा कंपनियां टीकों का परीक्षण कर रही हैं लेकिन नए टीकों को मौजूदा प्रक्रिया पूरा करने में कई महीने लग जाएंगे। लेकिन दुनिया के पास इंतजार का अधिक वक्त नहीं है, लिहाजा इस काम में तेजी लानी होगी। सुरक्षा को लेकर किसी तरह का समझौता किए बगैर ऐसा किस तरह किया जा सकता है? यहां पर हमें नए सबक एवं वैश्विक सहयोग की जरूरत है। हमें टीकों के ट्रायल आंकड़ों का जायजा लेने के लिए दुनिया भर के औषधि नियामकों को एक साथ लाना होगा ताकि वे एक-एक कर फैसले न लें। मसलन, ऑक्सफर्ड एस्ट्राजेनेका टीके को ब्रिटेन और भारत में इस्तेमाल की मंजूरी दी जा चुकी है लेकिन यूरोपीय संघ, अमेरिका एवं डब्ल्यूएचओ की आंतरिक प्रक्रिया के तहत इसे मंजूरी नहीं मिली है। करीब 50 टीका उम्मीदवारों के क्लिनिकल परीक्षण नतीजों पर मुहर लगनी बाकी है। सवाल उठता है कि राष्ट्रीय वैज्ञानिक संसाधनों को वैश्विक स्तर पर क्यों नहीं लगाया जा सकता है?
यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि दवा मंजूरी प्रक्रिया पर पुनर्विचार जरूरी है। किसी भी नई दवा या टीके के क्लिनिकल परीक्षण काफी कठोर हैं और ऐसा होना भी चाहिए। लेकिन सच यह है कि कोविड-19 टीके के कई दूसरे उम्मीदवार भी इस्तेमाल के करीब होंगे। इन टीकों को कितनी जल्द मंजूरी मिल पाएगी? मसलन, तीसरे चरण के क्लिनिकल परीक्षण में लोगों को असली दवा एवं प्रायोगिक औषधि (प्लेसेबो) देने के विस्तृत नियमों की जरूरत होती है। यह सब वैश्विक सहयोग और संस्थानों के निर्णय-निर्माण में विश्वसनीयता होने पर ही संभव है।
सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि क्लिनिकल परीक्षणों के बारे में दवा कंपनियां पूरी जानकारी दें। इन आंकड़ों को पारदर्शी बनाने के साथ सार्वजनिक भी करना होगा। फिलहाल इनमें से कुछ भी नहीं होता है। जब भारत सरकार ने तीसरे चरण का क्लिनिकल परीक्षण पूरा नहीं कर पाए एक टीके के आपात इस्तेमाल की मंजूरी दी तो वह शायद गलत भी नहीं थी। लेकिन उसने सही ढंग से संवाद करने में गड़बड़ी कर दी और लोग यह समझे कि इस टीके का अभी परीक्षण ही नहीं हुआ है और सिर्फ घरेलू वैज्ञानिकों की क्षमता को दर्शाने के लिए इसे बाजार में लाया जा रहा है।
यह स्पष्ट है कि इस जंग को जीतने के लिए अधिक जानकारी, विश्वसनीयता वाले सशक्त संस्थानों एवं अधिक लोकतंत्र की जरूरत होगी। टीके पर अंध-देशभक्ति दिखाने से हम हमेशा के लिए हार जाएंगे।
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