बाजार में रकम और शेयरों की तेजी में नहीं सीधा संबंध | |
देवाशिष बसु / 02 08, 2021 | | | | |
पिछले महीने मैंने लिखा था कि लोग कोविड-19 के झटके के बाद वर्ष 2020 में बाजार की चाल से इतने हैरान दिखे कि पर्याप्त अनुभव होने के बाद भी वे यह नहीं समझ पाए कि आखिर ऐसी कौन सी बातें हैं जो बाजार को लगातार ऊपर और नए स्तरों पर ले जा रही हैं। शेयरों के दाम में उतार-चढ़ाव का एक सबसे सामान्य कारण आय वृद्धि हो सकती है। जब तक आय वृद्धि से जुड़ी संभावनाएं बेहतर होती हैं तब तक शेयर ऊपर भागता रहता है। अगर किसी कंपनी की आय उम्मीद से अधिक रहती है तो शेयर एक झटके से ऊपर भागता है, जिसे 'अर्निंग सरप्राइज' (अप्रत्याशित तेजी) कहा जाता है।
मई के अंत में जब बाजार ऊपर जाने लगा तो ऐसे हालात नहीं थे। आय वृद्धि न केवल निचले स्तर पर थी, बल्कि भविष्य में हालात भी जटिल होते प्रतीत हो रहे थे। उस समय अगर किसी ने अप्रत्याशित तेजी का अनुमान लगाया होता तो शायद लोग उसे मानसिक रूप से अंसतुलित करार देते। यह इसलिए भी समझना जरूरी है क्योंकि हम अक्सर अपनी राय भूल जाते हैं, खासकर हाल में कही गई बातें हमारे जेहन से उतर जाती है उसके बाद जो कुछ होता है उसे हम दुरुस्त करने की कोशिश करते हैं। मसलन लोग ऐसा कहते सुने जा सकते हैं कि उन्हें इस बारे में पता था या उन्हें ऐसा होने की उम्मीद थी। कई कारोबारियों ने मुझसे कहा कि मुझसे एक अहम पहलू छूट गया है, जो बाजार में तेजी का एक प्रमुख कारण है। उनके अनुसार बाजार में भरपूर मात्रा में उपलब्ध रकम मौजूदा तेजी को हवा दे रही है। मोटे तौर पर इसे आसानी से उपलब्ध या आसान रकम कह सकते हैं। आम तौर पर जब रकम की मारामारी नहीं होती है तो जोखिम भरी परिसंपत्तियों में तेजी देखी जाती है। लोगों का मानना है कि आसान रकम ने अमेरिकी बाजार सहित दूसरी जोखिम भरी परिसंपत्तियों को ऊपर ले जाने में अहम भूमिका निभाई है। मोटे तौर पर रकम की उपलब्धता और बाजार में तेजी का परस्पर संबंध कुछ इस तरह समझाने की चेष्टा की गई है।
अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरें लंबे समय से लंबे स्तर पर रखी हैं और वित्तीय प्रोत्साहनों और ऑपरेशन ट्विस्ट के जरिये वित्तीय प्रणाली में भरपूर नकदी डाल दी है। अत्यधिक एवं सस्ती रकम उपलब्ध होने से जोखिम भरी परिसंपत्तियों जैसे शेयर, सोना एवं आभासी मुद्राओं (क्रिप्टो करेंसी) आदि में निवेश खासा बढ़ गया है। सभी को लग रहा है कि बाजार में आसानी से उपलब्ध रकम ही बाजार में तेजी की प्रमुख वजह है।
अब सवाल यह उठता है कि बाजार में तेजी की क्या यही एकमात्र वजह है? वैसे भी अर्थशास्त्र एवं वित्त में पुरानी सोच अक्सर गलत साबित होती है। इनमें वे सिद्धांत भी शामिल हैं जो वित्त की पढ़ाई के दौरान बताए जाते हैं। अगर आप थोड़ी भी दिमागी कसरत करें तो यह मालूम पड़ जाएगा कि आसानी से उपलब्ध रकम और शेयर कीमतों के बीच संबंध कमजोर है। उदाहरण के लिए हम जापान पर विचार कर सकते हैं जो आसान रकम के लिहाज से मौजूदा हालात को समझने में हमारी मदद कर सकता है। यूरोप का भी उदाहरण दिया सकता है।
आसान रकम के असफल 25 वर्ष
जापान की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए पिछले 25 वर्षों से बैंक ऑफ जापान (बीओजे) वित्तीय तंत्र में अधिक से अधिक रकम झोंक रहा है। यह वर्ष1997 से अब तक नौ वित्तीय प्रोत्साहनों का सहारा ले चुका है, लेकिन आर्थिक वृद्धि को तेजी देने में ये प्रयास नाकाम रहे हैं। दिलचस्प बात है कि इतनी बड़ी रकम बाजार में आने से जायदाद और शेयर बाजार में उछाल आनी चाहिए थी, लेकिन परंपरागत सोच को धता बताकर परिसंपत्तियों की कीमतें अधिक नहीं उछल पाई हैं। हालांकि तब भी यह उम्मीद कायम रखी गई कि कभी न कभी यह प्रयोग सफल रहेग। इसका नतीजा यह हुआ कि जनवरी 2016 में ब्याज दरें शून्य से नीचे चली गईं। हालांकि इससे भी जोखिम भरी परिसंपत्तियों में तेजी और आर्थिक वृद्धि जैसी कोई बात नहीं दिखी। वास्तव में बॉन्ड बाजार बीओजे के सीधे हस्तक्षेप के बाद बाजार अस्थिर हो गया और जापान के सबसे बड़े निजी बैंक बैंक ऑफ तोक्यो-मित्सुबिशी यूएफजे ने कारोबार छोडऩे की धमकी दे डाली।
यह जानकर आपको हैरानी हो सकती है कि बीओजे उन कुछ गिने-चुने केंद्रीय बैंकों में शामिल है जो इक्विटी फंडों में निवेश करता है। यह पिछले कई वर्षों से ऐसा करता रहा है। निक्कई 225 में 90 प्रतिशत सूचीबद्ध शेयरों में बीओजे शीर्ष 10 शेयरधारकों में शुमार है। कोई केंद्रीय बैंक शेयर बाजार में किस तरह सीधे हस्तक्षेप कर सकता है यह उसकी एक मिसाल है। हालांकि बाजार में आसान रकम की उपलब्धता से कोई लाभ नहीं हुआ। निक्कई पिछड़ता गया। जापान ऐसा करने वाला अकेला नहीं है। यूरोपीय केंद्रीय बैंक (ईसीबी) ने भी वही किया जो अमेरिकी फेडरेल रिजर्व ने किया था। हालांकि वहां भी आर्थिक वृद्धि और शेयर कीमतों में तेजी नहीं दिख रही है।
स्वीडन, स्विटजरलैंड और डेनमार्क सभी ऋणात्मक ब्याज दरों के साथ प्रयोग कर चुके हैं लेकिन आर्थिक वृद्धि के मोर्चे पर उन्हें सफलता हाथ नहीं लगी है और न ही शेयरों में तेजी दिखी है। स्पष्ट है कि आसान रकम से आर्थिक वृद्धि या बाजार में तेजी का सीधा संबंध नहीं है। अमेरिका एक अपवाद हो सकता है। यहां भी एक और चौंकाने वाली बात है। वर्ष 2015 में जब अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने अपना बहीखाता समेटना शुरू किया था तो अमेरिकी शेयर बाजार धराशायी होना चाहिए था। ऐसा कुछ नहीं हुआ और कुछ महीनों बाद बाजार फिर उछला और सितंबर 2018 तक यह तेजी जारी रही। वास्तविकता यह है कि केवल एक कारक से बाजार ऊपर या नीचे नहीं जाता है और खासकर उस पर जिसे लेकर सभी लोग एकमत होते हैं।
केवल वैश्विक बाजारों में ही आसान रकम के असर की झलक दिखने की थोड़ी गुंजाइश बनती है। हालांकि उन बाजारों में भी ऐसी रकम और शेयरों में तेजी के बीच सीधा संबंध टिकाऊ नहीं हो सकता है। अब यह भी प्रश्न है कि भारतीय बाजार में आई तेजी को आसान रकम से कैसे जोड़ा जा सकता है? कई पेचीदे घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय कारक बाजार को उछाल देते हैं और ये हमेशा बदलते भी रहते हैं। यही वजह है कि बाजार पेचीदा और तेजी से उभरने वाली और हालात के साथ तालमेल बनाने वाली प्रणाली मानी कही जाती है।
ये कारक विभिन्न देशों में अलग-अलग और लगातार बदलने वाले होते हैं और कभी स्थिर नहीं रहते हैं। जब नए हालात बनते हैं तो बाजार उनसे तालमेल बैठा लेता है। हालांकि ये तमाम बातें हमारी अच्छानुसार हालात स्पष्ट करने के लिहाज से सरल नहीं होते हैं। हम सीधा एवं सरल उत्तर चाहते हैं, या यूं कहें तो एक स्पष्ट उत्तर चाहते हैं। मैं भी मानता हूं कि वित्तीय प्रणाली में उपलब्ध रकम शेयरों में जा सकती है, लेकिन इस मान्यता के पक्ष में सबूत पुख्ता नहीं हैं।
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