कथ्य की ताकत | |
साप्ताहिक मंथन | टी. एन. नाइनन / 02 05, 2021 | | | | |
लोगों का कोई समूह अगर चुनी गई सरकार को किसी बात के लिए मजबूर करने की कोशिश करे तो यह उतना ही गलत है, जितना कानून-व्यवस्था के नाम पर सरकार का अपने ही नागरिकों के खिलाफ हो जाना। दोनों ही बातें चर्चा और विचार-विमर्श के जरिये किसी नतीजे पर पहुंचने की सामान्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया खत्म होने का संकेत देती हैं। लोगों के पास विरोध करने का अधिकार है। लेकिन अगर विरोध करने वाले हर हाल में अपनी ही बात मनवाने पर आमादा हो जाएं और सरकार राजमार्ग पर कीलें ठुकवाना तथा बैरिकेड के साथ-साथ कंक्रीट की दीवारें चुनवाना शुरू कर दे तो इसका स्पष्ट मतलब है कि प्रतिनिधि लोकतंत्र और भी संकट में फंस गया है।
सरकार का रुख अब उतना सख्त नहीं है, जितना साल भर पहले नए नागरिकता कानूनों पर था। बेमन से ही सही, उसने कृषि विपणन के नए कानूनों को ठंडे बस्ते में डालने का प्रस्ताव दिया है और तब तक विवादित बिंदुओं पर ठंडे दिमाग से बात हो सकती है। लेकिन टकराव में अंतरराष्ट्रीय स्वर आ जाने के बाद सबसे अच्छा रास्ता तो यही है कि मामला वापस संसद में भेज दिया जाए, जो नए कानूनों पर बहस करने के लिए सही मंच है। ऐसा नहीं होता है तो टकराव और भी बढ़ेगा, जो कोई नहीं चाहेगा।
समझौता होने की गुंजाइश बनी हुई है। कई तरह से नए कानून बहुत पहले बन जाने चाहिए थे। वास्तव में कृषि सुधार का भविष्य उन्हीं पर टिका है। लेकिन जब किसानों को चिंता हो कि कानून उनका नुकसान कर सकते हैं तो उनकी प्रतिक्रिया तथ्यों से तय नहीं होती बल्कि इस बात से तय होती है कि उन्हें क्या लग रहा है। उन्हें राष्ट्रविरोधी कहना जवाब नहीं है।
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री रॉबर्ट शिलर ने 2019 में एक पुस्तक 'नैरेटिव इकनॉमिक्स: हाउ स्टोरीज गो वायरल ऐंड ड्राइव मेजर इकनॉमिक इवेंट्स' प्रकाशित की। शिलर मानते हैं कि अर्थशास्त्री तथ्य और आंकड़े देखते हैं, लेकिन अक्सर लोगों के आर्थिक फैसले घटनाओं से प्रभावित होते हैं। उदाहरण के लिए महामंदी की यादों ने लोगों को बाद के जीवन में अधिक बचत करने के लिए प्रोत्साहित किया। महामारी भी शायद भविष्य के आर्थिक व्यवहार पर इसी तरह लंबे अरसे तक असर डालती रहेगी। इस समझ के साथ किसान आंदोलन के लिए गढ़ी जा रही बातें देखिए। पहली बात, देश को अन्न खिलाने वाले मेहनतकश किसान खतरे में पड़ी अपनी मामूली सी आजीविका बचाने के लिए लड़ रहे हैं। इस तरह की कहानी से देश और विदेश के लोगों में सहानुभूति उमड़ आती है। ऐसे मामलों में जैसा अक्सर होता है, नए कानूनों का समर्थन कर रहे 'जमीन से कटे विशेषज्ञों' को खारिज कर दिया गया है।
सरकार के खिलाफ दूसरी कहानी यह गढ़ी गई है कि वह पूंजीपतियों के लिए काम कर रही है। किसानों को संदेह है कि उद्योगपति पहले अधिक कीमतें देकर और एक बार अपना दबदबा कायम होने के बाद किसानों को चूसकर कृषि बाजार पर कब्जा करना चाहते हैं। असमान ताकत और सलाह मशविरा नहीं किए जाने की भावना षड्यंत्र के ऐसे सिद्घांतों को बढ़ावा देती है। जवाब में सरकार ने भी दो तरह की बातें कही हैं। पहली बात, दिल्ली के आसपास के बहके हुए किसान ही विरोध कर रहे हैं और बाकी जगहों पर किसान चुप हैं। यह बात एक हद तक सच भी है मगर फ्रांस की क्रांति में पेरिस ही गतिविधियों का केंद्र था। और सत्तारूढ़ पार्टी ने ही यह विचार आगे बढ़ाया है कि दिल्ली सल्तनत की स्थापना का मतलब 800 वर्ष का विदेशी शासन था। मगर उस समय भी दक्षिण में चेर और चालुक्य वंशों का शासन था। दिल्ली प्रतीक है और यह लड़ाई भी तंजावुर, गोदावरी के किनारे या कहीं और नहीं जीती जाएगी।
सरकार ने दूसरा और ज्यादा गंभीर आरोप यह लगाया कि आंदोलन में अलगाववादी तत्त्व घुस गए हैं और पत्रकारों पर भी नपे-तुले तरीके से राष्ट्रद्रोह का आरोप लगाया जा रहा है। इससे बहस कृषि कानूनों से हटकर राष्ट्रवाद पर पहुंच जाती है और यह हमेशा सरकार का पसंदीदा मैदान रहा है। लेकिन ट्विटर पर एकता की अपील करते क्रिकेटर तीन विदेशी युवतियों के खिलाफ बेकार की लड़ाई नहीं जीत पाएंगे। इसलिए अब सरकार पर अडिय़ल दिखने का खतरा मंडराने लगा है।
अगर वह आगे बढऩा चाहती है तो उसे वैसी ही विश्वसनीयता हासिल करनी होगी, जैसी मनमोहन सिंह सरकार को 2011-12 में भ्रष्टाचार के मामले में करनी थी। और भरोसा केवल किसानों का नहीं बल्कि दूसरे नागरिकों का भी करना होगा, जिन्हें लगने लगा है कि दिल्ली में बैठी सरकार उनका प्रतिनिधित्व नहीं करती। इसका मतलब है कि बेशक संसद के दोनों सदनों में पलड़ा भारी होने के कारण सरकार बिना किसी दिक्कत के कानून लागू करा सकती है मगर उसे कानूनों की व्यापक स्वीकार्यता के लिए कोशिश करनी चाहिए। देश भर में फैल रहे इसी कथ्य या इसी बात को संभालने की उसे जरूरत है।
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