बजट में संतुलन जरूरी | संपादकीय / January 31, 2021 | | | | |
गत शुक्रवार को संसद में पेश की गई आर्थिक समीक्षा में यह आशा जताई गई है कि अर्थव्यवस्था अगले वित्त वर्ष में वापसी कर लेगी और चालू वर्ष में 7.7 फीसदी की गिरावट के बाद हम 11 फीसदी की वृद्धि दर हासिल कर लेंगे। महंगाई को समायोजित किए बगैर अर्थव्यवस्था में 15.4 फीसदी की दर से वृद्धि होगी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण सोमवार को पेश किए जाने वाले बजट में इन आंकड़ों का इस्तेमाल कर सकती हैं। समीक्षा में जताए गए अनुमान भी अन्य व्यापक अनुमानों जैसे ही हैं। उदाहरण के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने अगले वित्त वर्ष में भारत के 11.5 फीसदी की दर से विकसित होने का अनुमान जताया है। तेज गिरावट के बाद तेज सुधार के अनुमानों के बावजूद अगले वर्ष सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वर्ष 2019-20 के स्तर से केवल 2.4 फीसदी अधिक रहने का अनुमान है।
कोविड संक्रमण के नए मामलों में तेज गिरावट और टीकाकरण की शुरुआत के कारण आर्थिक गतिविधियों में तेजी आने की आशा है लेकिन इस झटके से पूरी तरह उबरने के लिए उसे समर्थन की आवश्यकता होगी। ऐसे में बजट का सबसे अहम पहलू यह होगा कि सरकार किस हद तक राजकोषीय माध्यमों से अर्थव्यवस्था की मदद करने की इच्छुक है। समीक्षा में सक्रिय प्रतिचक्रीय राजकोषीय नीति की मांग की गई। समीक्षा में यह भी कहा गया कि आर्थिक संकट या वृद्धि में धीमेपन के समय सरकार को समझदारी बरतते हुए ऋण या राजकोषीय व्यय को लेकर थोड़ी शिथिलता बरतनी चाहिए। समीक्षा में कहा गया कि वृद्धि से ऋण में स्थायित्व आता है। बुनियादी विचार यह है कि यदि सरकारी ऋण की लागत वृद्धि दर से कम हो तो वृद्धि को गति देने वाली नीति कम ऋण-जीडीपी अनुपात वाली होगी।
इसमें कोई संशय नहीं है कि सरकार को गहन चक्रीय मंदी या गिरावट के समय अर्थव्यवस्था की सहायता करनी चाहिए। परंतु भारत के लिए बेहतर होगा कि वह इस राह पर सावधानीपूर्वक कदम बढ़ाए। इसकी कई वजह हैं। चालू वर्ष के दौरान सरकार ने अपेक्षाकृत सतर्कता भरा रुख अपनाकर अच्छा किया है। हालांकि चालू वर्ष में सरकार का ऋण-जीडीपी अनुपात बढ़कर 90 प्रतिशत तक होने का अनुमान है। निश्चित तौर पर सरकार की ओर से चालू वर्ष में ज्यादा व्यय न कर पाने की वजहों में से एक यह भी है कि सरकार पहले ही काफी ज्यादा घाटे में है। चूंकि कोविड संकट के आगमन के पहले ही अर्थव्यवस्था तेजी से गति खो रही थी इसलिए यह कतई जरूरी नहीं है कि उच्च सरकारी व्यय से वृद्धि में स्थायी बढ़ोतरी देखने को मिलेगी। ब्याज भुगतान को लेकर बढ़ी हुई प्रतिबद्धता के कारण व्यय की गुणवत्ता पर असर पड़ सकता है और आने वाले वर्षों में वृद्धि प्रभावित हो सकती है। इसके अलावा जैसा कि आर्थिक समीक्षा का दूसरा खंड दर्शाता भी है, ब्याज दर और वृद्धि के अंतर के अनुकूल होने के बावजूद सरकार का व्यय सन 2011-12 में जीडीपी के 67.4 फीसदी से बढ़कर 2019-20 में 73.8 फीसदी पर पहुंच गया। ऋण के स्तर को कम करने के लिए उच्च आर्थिक वृद्धि की आवश्यकता होगी जो मध्यम अवधि में शायद संभव नहीं हो।
यह बात ध्यान देने लायक है कि भारत में आमतौर पर विस्तारवादी राजकोषीय नीति को वापस लेना मुश्किल रहा है। इसके अलावा केंद्र और राज्य सरकारों ने बीते वर्षों में बजट से इतर भी काफी देनदारी तैयार की है जिसे कभी न कभी चुकाना होगा। ऐसे में एक ओर जहां सरकार के लिए जरूरी है कि वह अर्थव्यवस्था को एक अप्रत्याशित झटके से बचाए, वहीं उसे अपने बहीखातों का भी ध्यान रखना चाहिए क्योंकि वहां भी जोखिम बढऩे का खतरा है। सोमवार के बजट को इस पैमाने पर भी कसा जाएगा कि वित्त मंत्री किस हद तक संतुलन साधती हैं।
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