मध्यम आय समूहों में उपभोक्ता धारणा में सुधार असरदार | श्रम-रोजगार | | महेश व्यास / January 28, 2021 | | | | |
भारतीय अर्थव्यवस्था कोविड महामारी के दौरान लगाए गए लॉकडाउन की मुश्किलों से अपेक्षा से बेहतर ढंग से उबर रही है। एक साल पहले की तुलना में दूसरी तिमाही में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 7.5 फीसदी की दर से संकुचित हुई है जबकि पहली तिमाही में संकुचन 23.9 फीसदी का था। अपेक्षा से बेहतर रिकवरी सच होने के साथ अबूझ भी है। आखिर यह नाटकीय रिकवरी क्यों हुई है? निश्चित रूप से ऐसा किसी सरकारी खर्च या वृद्धि को प्रोत्साहन देने से नहीं हुआ। निजी क्षेत्र के निवेश में भी कोई बढ़त नहीं देखी गई है।
जहां सरकार ने कई योजनाओं की घोषणा की वहीं अप्रैल-नवंबर में उसका व्यय एक साल पहले की समान अवधि के मुकाबले 4.7 फीसदी अधिक रहा। यह बीते पांच वर्षों में सालाना वृद्धि का न्यूनतम स्तर है। वास्तविक संदर्भ में, केंद्र सरकार का व्यय इस दौरान सिकुड़ा ही है। सूचीबद्ध कंपनियों की शुद्ध परिसंपत्ति सितंबर 2020 में साल भर पहले की तुलना में 5.9 फीसदी बढ़ चुकी थी। लेकिन यह वास्तविक संदर्भों में ऋणात्मक है और 2016 के बाद सबसे कम है।
अगर सरकार और कारोबारी इकाइयों की वजह से ऐसा नहीं हुआ है तो फिर रिकवरी की इबारत लिखने का काम पारिवारिक स्तर पर ही हो सकता है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था की तीव्र रिकवरी की पहेली को अधिक पेचीदा बना देता है। यह रिकवरी काफी हद तक मुनाफे की वजह से है, न कि पारिश्रमिक के चलते। कंपनियों ने इस मुनाफे का निवेश क्षमता बढ़ाने में नहीं किया अन्यथा नए रोजगार पैदा होते और पारिश्रमिक भी बढ़ता। फिर क्या घर-परिवार रिकवरी प्रक्रिया को गति दे सकते हैं? ऐसा तभी मुमकिन है जब परिवारों को एक समांगी समूह न मानकर अमीर एवं अन्य के बीच बांट दिया जाए।
अमीर परिवारों की आय में लॉकडाउन के दौरान गिरावट नहीं दिखने की आंशिक वजह यह है कि ब्याज एवं लाभांश के रूप में होने वाली पूंजीगत आय काफी हद तक सुरक्षित थी और खुद पूंजी भी शेयर बाजार में असामान्य प्रदर्शन कर रही थी। यह साफ होता जा रहा है कि भारत में आवाजाही बढऩे का मतलब संक्रमण में वृद्धि नहीं है। अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए परिवारों के योगदान की व्याख्या लॉकडाउन के शुरुआती दौर में धनी परिवारों को हुई बचत और संक्रमण के घटते डर के रूप में की जा सकती है।
सवाल है कि इस अप्रत्याशित रिकवरी को कौन सी चीज कायम रख सकती है? सरकारी खर्च में वृद्धि पर ही निर्भर नहीं रहा जा सकता है। लॉकडाउन के शुरुआती दौर में सर्वाधिक जरूरी होने पर भी सरकार ने खर्च करने से परहेज कर अचंभित किया था। नवंबर में सरकारी खर्च में हुई वृद्धि के बारे में बहुत बातें की जा रही हैं। लेकिन अर्थव्यवस्था में फिर से जान डालने की कोशिश कर रही सरकार के लिए यह नाकाफी है। कॉर्पोरेट क्षेत्र के पास भी क्षमता विस्तार का कोई कारोबारी कारण नहीं दिख रहा है।
क्या अमीर परिवारों के दम पर यह रिकवरी बनी रह सकती है? या फिर रिकवरी की प्रक्रिया में अन्य परिवार भी शामिल हो सकते हैं? त्योहारी मौसम के बाद भी रिकवरी प्रक्रिया कायम रहना यह दर्शाता है कि रिकवरी को गति देने वाले पहलू रुकी हुई मांग एवं त्योहारी मांग से कुछ अलग भी हैं। रिकवरी की निरंतरता रोजगार दायरे में विस्तार, परिवारों के आय स्तर में वृद्धि और व्यक्तिगत एवं अर्थव्यवस्था के लिहाज से रिकवरी संबंधी सकारात्मक अवधारणा पर निर्भर करेगी। इन बिदुओं को संक्षेप में उपभोक्ता धारणा कहा जाता है।
उपभोक्ता धारणा का सूचकांक आय में बदलाव पर परिवारों की राय, गैर-जरूरी या टिकाऊ उत्पादों की खरीद के इरादे में बदलाव, भविष्य में व्यक्तिगत आय के बारे में लोगों की धारणा में आए अंतर और भविष्य में अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन को लेकर परिवारों की सोच को शामिल करता है। सितंबर-दिसंबर 2015 तिमाही में 100 के आधार अंक वाला उपभोक्ता धारणा सूचकांक 2018 में 100 से थोड़ा ऊपर रहा था। वर्ष 2019 में सूचकांक का औसत 106 रहा और लॉकडाउन होने के पहले तक उसी के करीब रहा। लेकिन लॉकडाउन के समय अप्रैल 2020 में यह 45.7 के स्तर तक लुढ़क गया था। मई, जून एवं जुलाई के महीनों में भी यह सूचकांक 43 के नीचे ही रहा। इसमें सुधार का सिलसिला अगस्त से शुरू हुआ और सितंबर तिमाही खत्म होने तक सूचकांक 45.2 हो गया। दिसंबर तिमाही में यह और सुधार के साथ 52.7 पर पहुंच गया।
उपभोक्ता धारणा सूचकांक में सुधार आय समूहों के आधार पर बंटा हुआ है जो लॉकडाउन के बाद 'के'-आकार वाली अटपटी रिकवरी को बयां करता है। हम पांच आय समूहों पर गौर करते हैं- जिनकी आय साल भर में 1 लाख रुपये से कम है, जिनकी आय 1 लाख से 2 लाख रुपये के बीच है, जिनकी आय 2 लाख से 5 लाख रुपये के बीच है, जिनकी आय 5 लाख से 10 लाख रुपये के बीच है और जो साल भर में 10 लाख रुपये से अधिक कमाते हैं। 'के' आकार वाली रिकवरी सितंबर में समाप्त दूसरी तिमाही में सबसे ज्यादा नजर आई।
जून 2020 में इन पांचों आय समूहों का उपभोक्ता धारणा सूचकांक 38 से 42 के संकीर्ण दायरे तक सीमित रहा था। सितंबर आने तक यह फासला 4 अंक से बढ़कर 22 अंक का हो गया। सबसे कम आय वर्ग वाले परिवारों में सूचकांक 31 था जबकि 10 लाख से अधिक आय वर्ग में यह 53 अंक था। उसके बाद से फासले कम हुए हैं।
सबसे कम आय वाले परिवारों की स्थिति भी सुधरी है और सर्वाधिक आय वाले परिवार दिसंबर तक अपने कुछ लाभ बरकरार रखे हैं। तीसरी तिमाही में दो आय समूहों को फायदा हुआ है- 2 लाख से 5 लाख और 5 लाख से 10 लाख रुपये वाले परिवार।
यह साफ नहीं है कि मध्यम आय समूहों में उपभोक्ता धारणा क्यों सुधरी है? लेकिन उनकी रिकवरी खासी असरदार रही है। इस आय समूह पर नजर रखनी होगी क्योंकि रिकवरी प्रक्रिया के लिए यह एक अहम कुंजी है।
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