हकीकत से बेखबर नए कृषि कानून | नितिन देसाई / January 21, 2021 | | | | |
कृषि उत्पादों के विपणन से संबंधित नए कानून खाद्य प्रसंस्करण कंपनियों एवं खुदरा चेन कंपनियों के लिए किसानों से सीधे संपर्क साधना आसान बनाने के मकसद से बनाए गए लगते हैं। आक्रोशित किसान भारी विरोध कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये कानून उनके हित में नहीं हैं। हालांकि कई अर्थशास्त्री इनके समर्थन में खड़े दिखे हैं। उनका मानना है कि मुक्त बाजार-आधारित व्यवस्था होने से कृषि उत्पादों की कीमतें मांग-आपूर्ति संतुलन को बेहतर ढंग से परिलक्षित करेंगी और फसलों के पैटर्न में अधिक तार्किकता आएगी।
लेकिन इस दलील में वितरणकारी आयाम को नजरअंदाज कर दिया गया है। कृषि विपणन प्रणालियां ऐसी होनी चाहिए कि उत्पादक एवं उपभोक्ता दोनों के ही लिए वाजिब कीमतें हों और बिचौलियों को साधारण मुनाफा ही मिले। राष्ट्रीय स्तर पर खाद्य एवं पोषण सुरक्षा के लिहाज से भी यह समरूप होना चाहिए। भारतीय संदर्भ में इसकी संभावना नहीं है कि कृषि उत्पादों में मुक्त बाजार होने से ऐसा हो पाएगा। इसकी वजह यह है कि कृषि उत्पादों का बाजार विनिर्मित उत्पादों के बाजार से काफी अलग है।
1. कृषि बाजारों में विक्रेता लाखों की संख्या में हैं जबकि थोक खरीदारों की संख्या सीमित है। वहीं विनिर्मित उत्पादों के आम बाजार में खरीदारों की संख्या लाखों में है और विक्रेताओं की संख्या सीमित है।
2. कृषि बाजारों में आपूर्ति फसली मौसम पर काफी निर्भर है जबकि मांग में इस मौसम के हिसाब से फर्क नहीं आता है। ऐसे में भंडारण की क्षमता रखने वाले बड़े खरीदारों को बढ़त मिल जाती है क्योंकि उनके पास अधिक खरीद के लिए वित्तीय संसाधन भी होते हैं।
3. कृषि उत्पादों की मांग के वक्र में लोच नहीं होती है और इसमें तीखी ढलान भी होती है, लिहाजा बंपर फसल होने पर कीमतें तेजी से गिरती हैं। वहीं फसल कम होने पर मांग रहने से इनकी कीमतों में तेजी से उछाल भी आती है।
मांग एवं आपूर्ति के इस मौसमी पहलू में असंतुलन के चलते कृषि उत्पादों खासकर जल्दी खराब होने वाले खाद्य उत्पादों की कीमतों में साल भर में बड़ी उठापटक होती है। मार्च 2020 से पहले के 10 वर्षों के मासिक औसत पर नजर डालें तो उफान एवं गर्त के बीच मूल्य अंतर दिखाई देता है। सब्जियों के मामले में यह अंतर 23 फीसदी है और टमाटर, प्याज एवं आलू की कीमतों में यह फर्क क्रमश: 65.6 फीसदी, 40.4 फीसदी और 35.6 फीसदी तक देखने को मिला है। (स्रोत: भारत के प्रमुख आर्थिक संकेतकों में सीजन का असर, आरबीआई बुलेटिन, दिसंबर 2020)।
किसानों एवं थोक खरीदारों की बाजार ताकत में असंतुलन एक उपभोक्ता के चुकाए हुए मूल्य एवं उत्पादक को मिलने वाली कीमत के बीच के बड़े फासले से साफ नजर आता है। आरबीआई के सर्वे में यह फर्क 28 फीसदी से लेकर 78 फीसदी तक दिखा है। कृषि बाजारों में हस्तक्षेप न केवल विक्रेताओं बल्कि उपभोक्ताओं के हितों को संरक्षित करने के लिए भी जरूरी है। (भारत में आपूर्ति शृंखला गतिकी एवं खाद्य मुद्रास्फीति, आरबीआई बुलेटिन, अक्टूबर 2019)।
मुक्त बाजारों से इतर देखें तो बुनियादी तौर पर हरेक कृषि उत्पाद बाजार के लिए तीन विकल्प मौजूद हैं...
- थोक खरीद एवं वितरण में सार्वजनिक क्षेत्र की सीधी एवं बड़ी भागीदारी
- निजी क्षेत्र के थोक विक्रेताओं एवं वितरकों पर निर्भरता के साथ ही जरूरी होने पर सार्वजनिक इकाइयां बाजार निगरानी एवं हस्तक्षेप भी करें। और
- किसानों की सहकारी समितियों या उत्पादक कंपनियों को उपभोक्ता तक वैल्यू चेन में हिस्सेदारी मिले।
वर्तमान में कृषि उत्पादों की सार्वजनिक खरीद कमोबेश धान एवं गेहूं तक ही सीमित है जो फसली उपज के कुल मूल्य का महज 23 फीसदी ही है। इसमें बड़ा हिस्सा पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश का है। हालांकि विकेंद्रीकरण की कोशिश से थोड़ा लाभ हुआ है और धान की सरकारी खरीद में ओडिशा, मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ का भी हिस्सा बढ़ा है। विकेंद्रीकरण के सिद्धांत का विस्तार करते हुए गारंटी कीमत पर फसलों की खरीद में राज्यों को मदद देना भी विकल्प हो सकता है।
निजी खरीद पहले से ही खाद्य तेल, फल एवं सब्जियां, मसाले और कपास जैसी कई कृषि जिंसों की विपणन का प्रमुख जरिया बनी हुई है। यहां पर असली जरूरत कीमतों की बड़ी उठापटक वाले बाजारों में संगठित एवं नियमित दखल देने की है। आलू, प्याज एवं टमाटर जैसे उत्पादों के बाजार में तो यह बेहद जरूरी है।
न तो सार्वजनिक और न ही निजी खरीद का विकल्प किसानों को उपभोक्ता तक पहुंचने वाली वैल्यू चेन में हिस्सेदारी देता है। इस काम को केवल सहकारी समितियों एवं किसान उत्पादन कंपनियों के माध्यम से ही अंजाम दिया जा सकता है। यह तीसरा तरीका कृषि क्षेत्र का सबसे जरूरी काम पूरा कर सकता है जो कि किसानों को प्रमुख अनाजों के बजाय अधिक मूल्य वाली फसलों की खेती की तरफ प्रोत्साहित करने का है। देश में इन फसलों की मांग तेजी से बढ़ रही है।
दुग्ध सहकारी समितियों की भारतीय व्यवस्था इस तीसरे तरीके का बेहतरीन उदाहरण है। यह तीन स्तरों- खरीद के लिए ग्रामीण स्तरीय सहकारी समितियां, प्रसंस्करण के लिए जिला स्तरीय दुग्धपालक संगठन और दूध एवं दुग्ध उत्पादों के विपणन के लिए राज्य स्तरीय महासंघ पर काम करता है। यह ढांचा किसानों को समूची मूल्य शृंखला में हिस्सेदारी देता है। इसकी जड़ें गुजरात में खेडा के किसानों और एक एकाधिकारवादी निजी कंपनी के बीच 1940 के दशक में कीमतों को हुए टकराव में निहित हैं।
आज भारत दुनिया में सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक बन चुका है और डेरी क्षेत्र के कुल उत्पादन का मूल्य चावल एवं गेहूं के सम्मिलित मूल्य से करीब 50 फीसदी अधिक है। दूध की प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपलब्धता 1968-69 के 112 ग्राम से बढ़कर 2018-19 में 394 ग्राम तक पहुंच चुकी है। दूध एवं दुग्ध उत्पादों का बाजार स्थिर है जो बदलते मौसम के साथ कीमतों में पडऩे वाले महज 0.6 फीसदी फर्क से जाहिर भी होता है। दुग्ध सहकारी समितियां एवं उनके राज्य स्तरीय महासंघ (गुजरात का अमूल एक स्थापित ब्रांड बन चुका है) आज बाजार के अगुआ हैं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तुलना में प्रसंस्कृत दुग्ध उत्पादों के बाजार की बड़ी हिस्सेदारी रखते हैं।
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए कोई भी एक विकल्प आदर्श नहीं हो सकता है। सार्वजनिक क्षेत्र की खरीद करने वाली एजेंसियां, निजी क्षेत्र के थोक विक्रेता खरीदार और सहकारी एवं किसान उत्पादक कंपनियों तीनों की ही जरूरत है। सार्वजनिक खरीद व्यवस्था फसली पैटर्न में बदलाव या तकनीकी उन्नति के मकसद से हरेक राज्य में कीमत की गारंटी देने के लिए अलग-अलग रूपों में चलाई जा सकती है। जल्द खराब होने वाले उत्पादों के लिए सहकारी समितियों या किसान उत्पादक कंपनियों को बढ़ावा दिया जा सकता है ताकि प्रसंस्करण कर कचरे को कम किया जा सके। निजी थोक विक्रेता अभी की तरह बाकी क्षेत्रों में काम जारी रख सकते हैं।
तीनों विकल्पों की प्रासंगिकता का मतलब है कि केंद्र को यह मानना होगा कि कृषि उत्पादों के विपणन का तरीका संविधान एवं व्यावहारिक कारणों से राज्यों पर ही छोड़ देना चाहिए। भारत में कृषि अर्थशास्त्र की विविधताओं को ध्यान में रखते हुए ऐसा करना जरूरी भी है।
केंद्र कृषि उत्पादों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार संबंधी नीति के मामले में प्रभावी भूमिका निभा सकता है। हालांकि इस मामले में उसका अब तक का प्रदर्शन बहुत उत्साह नहीं जगाता है। वह कई बार निर्यात पाबंदियों में ढील देने या आयात को मंजूरी देने में गलती कर जाता है। कृषि उत्पादों में मुक्त व्यापार बंदिशों वाले मौजूदा वैश्विक परिवेश में मुमकिन नहीं दिखता है। लेकिन ऐसी नीति संभव है जो कृषि उत्पाद निर्यात के लिए मुक्त व्यापार की इजाजत दे और केवल अपवाद रूप में ही बंदिशें लगाए।
भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था की विविधता दर्शाने वाली और छोटे किसानों एवं कम आय वाले उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखते वाली कृषि विपणन व्यवस्था बनती है तो वह सक्षमता, समता एवं राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से कारगर भी होगी।
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