असम विधानसभा ने आर्थिक रूप से कमजोर समूहों एवं व्यक्तियों को जबरन वसूली एवं अधिक ब्याज वाले कर्ज की मुश्किलों से बचाने के लिए असम सूक्ष्म वित्त संस्थान (धन उधारी नियमन) विधेयक 2020 को हाल ही में पारित कर दिया। राज्य में सूक्ष्म उधारी देने वाली एजेंसियों के नियमन के लिए एक प्रभावी व्यवस्था बनाना भी इस कानून का मकसद है।
आखिर यह कानून बनाने की जरूरत क्यों पड़ी? ऊपरी असम के डिब्रूगढ़, तिनसुकिया, जोरहाट एवं शिवसागर जिलों के चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों का कर्ज में डूबे रहना और कुछ साहूकारों का वसूली के लिए जोर-जबरदस्ती वाले तौर-तरीके आजमाना इसका प्रमुख कारण है।
वर्ष 2019 में वामपंथी किसान संगठन किसान मुक्ति संग्राम समिति और छात्र संगठन ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) ने इस मुद्दे को उठाया था और इसे लेकर प्रदर्शन भी किया था। किसान मुक्ति संग्राम समिति के नेता अखिल गोगोई को दिसंबर 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ प्रदर्शनों में भूमिका के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था और तब से वह कैद में ही हैं। लेकिन असम में विधानसभा चुनाव नजदीक आने के साथ ही राज्य सरकार ने इस मुद्दे को स्थानीय प्रदर्शनकारियों से अपने हाथ में लेने की कोशिश की है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने पहले ही चुनावी वादे के तौर पर किसान कर्ज माफी और महिलाओं को सूक्ष्म-वित्त ऋण देने की घोषणा की हुई है।
इस विधेयक की मुख्य बातें क्या हैं?
ठ्ठ कर्जदाताओं को ऋण पर वसूली जाने वाली ब्याज दरों और बकाया कर्ज की किस्तों एवं फंसे कर्ज की वसूली के बारे में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की तरफ से तय मानकों का पालन करना होगा।
(आरबीआई मानकों के तहत 500 करोड़ रुपये के ऋण पोर्टफोलियो वाला एक सूक्ष्म-वित्त संस्थान (एमएफआई) 10 फीसदी अंकों तक की ब्याज दर रख सकता है जबकि इससे छोटे आकार वाले एमएफआई के लिए तय ब्याज दर 12 फीसदी है। कर्ज पर ब्याज की दर आरबीआई द्वारा तिमाही आधार पर तय आधार दर के औसत के 2.75 गुना से अधिक नहीं होनी चाहिए। मौजूदा वक्त में आधार दर 7.96 फीसदी होने का मतलब है कि कोई भी एमएफआई 21.89 फीसदी से अधिक ब्याज नहीं वसूल सकता है। वैसे इन कर्जों पर ब्याज दर तय करने के लिए बैंक स्वतंत्र हैं।)
- एक उधारकर्ता को दो कर्जदाताओं से अधिक संस्थानों से कर्ज लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए और अधिकतम कर्ज सीमा 1.25 लाख रुपये है। चाय बागान कर्मियों के लिए यह सीमा कम है। कई जरियों से कमाई करने वाले लोग 50,000 रुपये तक कर्ज ले सकते हैं जबकि अन्य के लिए यह सीमा 30,000 रुपये ही है।
- बाढ़ एवं अन्य प्राकृतिक आपदाओं के समय ब्याज के भुगतान पर न्यूनतम तीन महीनों का स्थगन जरूर दिया जाना चाहिए।
- कर्ज राशि में तीन अवयवों-ब्याज, प्रसंस्करण शुल्क एवं बीमा प्रीमियम का ध्यान रखा जाना चाहिए और सभी कर्ज गैर-जमानती होने चाहिए।
- सभी कर्जदाताओं को पारदर्शी तरीके से कर्ज देने एवं बकाया वसूली सुनिश्चित करने के लिए एक निष्पक्ष व्यवहार संहिता का अनुसरण करना चाहिए। कर्जदारों के संरक्षण एवं विवादों के निपटान के लिए राज्य हरेक जिले में एक फास्ट-ट्रैक कोर्ट का गठन करना चाहता है।
इन प्रस्तावों को कोई भी चुनौती नहीं दे सकता है और असल में अधिकतर कर्जदाता पहले से ही इनका पालन कर रहे हैं। एमएफआई उद्योग ने पहली बार वर्ष 2006 में आचार संहिता तैयार की थी। आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले में पैदा हुए एक संकट ने राज्य सरकार को उस समय की दो बड़े एमएफआई की 50 शाखाओं को बंद करने के लिए मजबूर कर दिया था। ये एमएफआई ऊंची ब्याज दरें वसूल रहे थे और वसूली के लिए जोर-जबरदस्ती भी करते थे। वर्ष 2010 में आंध्र प्रदेश के एक कानून की वजह से करीब 65 लाख कर्जदारों ने 95 लाख सूक्ष्म ऋणों के पुनर्भुगतान में चूक कर दी जो कि पूरी दुनिया में किसी एक स्थान पर हुई सबसे बड़ी कर्ज चूक थी। इसके एक साल बाद इस आचार संहिता में कुछ बदलाव किए गए।
अंतरराष्ट्रीय वित्त कंपनी आईएफसी और लघु उद्योग विकास बैंक सिडबी भी अपने सुझावों के साथ सामने आए और आरबीआई से मान्यता-प्राप्त दो स्वनियामक निकायों एमएफआईएन और सा-धन ने इन्हें लागू किया था। इसे 2015 एवं 2019 में संशोधित किया गया ताकि सूक्ष्म कर्ज उद्योग के घटनाक्रम के साथ तालमेल बिठाया जा सके।
इसके अलावा सूक्ष्म-वित्त में सक्रिय यूनिवर्सल बैंकों, लघु वित्त बैंकों (एसएफबी) और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) की बढ़ती हिस्सेदारी के बीच दोनों स्व-नियामक संगठनों ने 2019 में 'जिम्मेदार उधारी की एक संहिता' बनाई जो सभी सूक्ष्म उधारकर्ताओं के करने एवं नहीं करने लायक बिंदुओं को रेखांकित करता है।
फिर समस्या कहां पर है?
-असम विधेयक राज्य में कारोबार के लिए सभी कर्जदाताओं के स्थानीय स्तर पर पंजीकरण की सिफारिश करता है। अगर कोई देनदार गड़बड़ी की शिकायत करता है तो अधिकरण कर्जदाता को नोटिस जारी करने के बाद उसका पंजीकरण रद्द कर सकता है। कोई भी एमएफआई किसी बैंक से पहले ही उधार ले चुके शख्स को पंजीकरण अधिकरण की अनुमति के बगैर कर्ज नहीं दे सकेगा।
-इसके अलावा सभी ऋण पुनर्भुगतान ग्राम पंचायत के दफ्तर या पंजीकरण अधिकरण द्वारा अनुशंसित सार्वजनिक स्थल पर किए जाने चाहिए।
लेकिन कोई भी कर्जदाता इन दोनों प्रावधानों को पसंद नहीं करेगा। पहला प्रावधान उधार लेने की प्रक्रिया को अफसरशाही अड़चनों में उलझा देगा और दूसरे प्रावधान से कर्ज वसूली के सियासी मामला बन जाने की आशंका है। तमाम व्यावहारिक कारणों से यह विधेयक कर्जदाताओं के दोहरे नियमन की बात करता है जिनकी अनुशंसा आरबीआई एवं राज्य दोनों कर चुके हैं।
क्या असम सरकार इसे लागू कर सकती है? विधेयक को देखें तो उधारी के मानक एमएफआई, एनबीएफसी और कंपनी अधिनियम 2013 के तहत पंजीकृत किसी भी इकाई के लिए लागू होंगे। भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) समेत तमाम सार्वजनिक बैंक कंपनी अधिनियम के दायरे में नहीं आते हैं, लिहाजा यह कानून उन पर लागू नहीं होगा। क्या ये मानक निजी क्षेत्र के बैंकों पर लागू होंगे जो बैंकिंग नियमन अधिनियम और आरबीआई अधिनियम के अलावा कंपनी अधिनियम से भी शासित होते हैं?
इसके बारे में कोई आखिरी नतीजा निकालने की कानूनी महारत मेरे पास नहीं है लेकिन यह एक जटिल मुद्दा है। पैसे उधार देना राज्य सूची का विषय है लेकिन बैंकों का नियमन केंद्रीय कानूनों से होता है। दोनों के बीच टकराव होने पर केंद्रीय कानून ही प्रभावी माने जाएंगे।
लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है। मसलन, स्थानीय पंजीकरण इतने बेहिसाब नहीं होते क्योंकि एक राज्य की दुकानों या प्रतिष्ठानों में एक बैंक शाखा हो सकती है। लेकिन कारोबारी नियमों को लेकर केंद्रीय एवं राज्य के कानूनों में टकराव होने पर केंद्रीय कानून ही प्रभावी होना चाहिए। उस हिसाब से पंचायत दफ्तरों में कर्ज की किस्तों को जमा करने को चुनौती दी जा सकती है क्योंकि ऐसे दफ्तर निजी बैंकों के लिए कारोबार की जगह नहीं हैं। इससे एमएफआई भले न बच पाएं लेकिन नकद किस्त लेने से डिजिटल समावेशन की मुहिम को झटका लगेगा।
क्या असम विधेयक 2010 के आंध्र प्रदेश कानून को ही दोहराएगा जिसने एमएफआई उद्योग को लगभग खत्म ही कर दिया था? इसका जवाब है नहीं। वर्ष 2010 में इस उद्योग का अधिकतम संकेंद्रण दक्षिणी राज्यों में ही था। उस समय आंध्र की हिस्सेदारी 25 फीसदी थी जबकि आज भी सूक्ष्म उधारी में असम का हिस्सा 5 फीसदी से भी कम है। राज्य में 23.18 लाख कर्जदारों ने 30 एमएफआई, 10 एनबीएफसी, 6 यूनिवर्सल बैंकों एवं 4 एसएफबी से कर्ज लिए हुए हैं। सितंबर में बकाया सूक्ष्म ऋण 11,087 करोड़ रुपये था जिसमें बैंकों की हिस्सेदारी 50 फीसदी से भी अधिक है। जिम्मेदार उधारी से यह संकट कम होगा, बशर्ते राज्य इसे चुनावों से पहले एक राजनीतिक मुद्दा न बनाए।
(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक एवं जन स्मॉल फाइनैंस बैंक के वरिष्ठ परामर्शदाता हैं)