नागरिकता संशोधन कानून तथा कृषि विपणन कानूनों के खिलाफ विरोध, कोविड-19 टीके को लेकर संदेह तथा आर्थिक नीति को लेकर आंतरिक मतभेद की खबर बाहर आने जैसे तमाम मामले बताते हैं कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार अति आत्मविश्वास की शिकार है। यह संयोग भर नहीं कि सन 1984 के बाद लोकसभा में दूसरी सबसे बड़ी जीत हासिल होने के एक साल के भीतर ही सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए थे। नौ दौर की वार्ता, तमाम रियायतों की घोषणा और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर समिति के गठन के बावजूद किसान प्रदर्शनकारियों का कड़ा रुख बताता है कि सरकार और शासितों के बीच मतभेद बहुत बढ़ चुके हैं।
कानूनों का इरादा भले ही सुधारवादी है लेकिन सरकार ने जिस तरह हड़बड़ी में इन कानूनों को पारित किया उससे उनके सारे लाभ पीछे छूट गए। पहले इन्हें अध्यादेश के रूप में पेश किया गया था। इसके पश्चात सरकार ने संसद में भारी बहुमत का लाभ उठाते हुए मॉनसून सत्र में इन्हें पारित कर दिया। कोविड-19 के कारण वैसे भी यह सत्र बहुत अल्पकालिक था और कानूनों पर अधिक बहस न हो सकी। बाद में किसानों ने राष्ट्रीय राजधानी की सीमाओं का घेराव किया तब सरकार ने दावा किया कि उसने कृषि क्षेत्र की लॉबीज के साथ व्यापक चर्चा के बाद कानून बनाए हैं।
इसके बाद उसने प्रमुख किसान नेताओं के खिलाफ सुरक्षा एजेंसियों को लगा दिया। अब कृषि मंत्रालय ने सूचना का अधिकार अधिनियम के अधीन एक आवेदन के उत्तर में स्वीकार किया है कि उसके पास ऐसी बातचीत का कोई रिकॉर्ड नहीं है। ऐसे उदाहरण सरकार में भरोसा बढ़ाने वाले नहीं हैं। सरकार की ओर से लगातार यह आश्वासन दिया गया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रहेगा। अनुबंधित कृषि के मामलों में अदालती सुनवाई की व्यवस्था देने के लिए कानूनों में संशोधन की बात कही गई लेकिन किसानों को सरकार की बातों पर विश्वास नहीं है।
भरोसे की यह कमी 2019 में भी सामने आई थी जब नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ देशव्यापी प्रदर्शन हुए। पूर्वी दिल्ली का शाहीन बाग इसका प्रतीक बन गया था। आश्वासन दिया गया था कि मुस्लिमों को नागरिकता नहीं गंवानी होगी लेकिन सत्ताधारी दल तथा उसके तमाम अनुषंगी संगठनों की मुस्लिम विरोधी छवि के चलते इन आश्वासनों को तवज्जो नहीं मिली। दोनों प्रदर्शनों ने दिखाया कि सार्थक विपक्षी दल की अनुपस्थिति का यह अर्थ नहीं कि अपने हित दांव पर लगे होने पर भी नागरिक पहल नहीं करेंगे। कोविड-19 टीकाकरण अभियान के मामले में कई राज्यों का बहुत अधिक इच्छा नहीं दिखाना बताता है कि उन्हें भारत बायोटेक की कोवैक्सीन को मंजूरी दिए जाने पर भरोसा नहीं है।
इस टीके का तीसरे चरण का परीक्षण भी पूरा नहीं हुआ है। यह टीका तब लगाया जा रहा है जब टीका लगवाने वाला व्यक्ति एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करता है। जाहिर है आबादी का बड़ा हिस्सा ऐसे टीके पर भरोसा नहीं करेगा। केंद्रीय मानक औषधि नियंत्रण संस्थान ने विषय विशेषज्ञ समिति की बैठकों के ब्योरे जारी किए हैं जो बताते हैं समिति पहले कोवैक्सीन को लेकर सशंकित थी लेकिन बिना किसी स्पष्टीकरण के दो दिन बाद इसे मंजूरी दे दी गई। किसी सरकारी प्रतिनिधि ने इस विषय में स्थिति साफ नहीं की। विश्वास की कमी सरकार के भीतर भी घर कर गई है।
हवाई अड्डों पर अदाणी समूह के एकाधिकार को लेकर नीति आयोग और वित्त मंत्रालय के पूर्वग्रह के बारे में मीडिया में खबरें बाहर आना उस सरकार के लिए उल्लेखनीय है जिसने खुलकर और आक्रामक तरीके से मीडिया को नियंत्रित करने का प्रयास किया है। मोदी सरकार अभी भी लोकप्रिय हो सकती है लेकिन ये घटनाएं बताती हैं कि गैर राजनीतिक विपक्ष भी उतना ही ताकतवर हो सकता है जितना कि राजनीतिक विरोध।