एक केंद्रीय मंत्री का साक्षात्कार पिछले दिनों काफी चर्चा में रहा। उस साक्षात्कार में भविष्य के नीतिगत विचार और कानूनों की झलक मिलती है। मंत्री ने इस्पात और सीमेंट क्षेत्र की कीमतों में अनुचित इजाफे की शिकायत करते हुए कहा है कि इन दोनों क्षेत्रों के लिए अलग-अलग नियामक बनाकर इनके कारोबार का प्रबंधन किया जा सकता है और कारोबारियों की सांठगांठ से निपटा जा सकता है। कारोबारियों की ऐसी एकजुटता से निपटने के लिए प्रतिस्पर्धा अधिनियम 2002 के रूप में एक कानून है और भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग के रूप में इसके प्रवर्तन के लिए एक एजेंसी भी है। यदि धारणा ऐसी है कि यह कानून और आयोग अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर सके हैं तो इसके उत्तर में पहले तो परीक्षण किया जाना चाहिए कि आखिर कमी कहां रह गई है। यदि कोई कमी हो तो उसे दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। नए नियामक की मांग भारत में आजमाए जाने वाले चिरपरिचित फॉर्मूले की तरह है: आप मुझे समस्या दिखाइए और मैं एक कानून बना दूंगा, मुझे बाजार की समस्या दिखाइए और मैं नया नियामक बना दूंगा।
यदि पुराने अनुभवों से सबक लिया जाए तो किसी खास उद्योग के लिए नया क्षेत्रीय नियामक बनाने से प्रतिस्पर्धा को नुकसान पहुंचाने वाले आचरण से लडऩा मुश्किल होता है। कहा जाता है कि ये नियामक उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करेंगे। वैसे ही जैसे पूंजी बाजार नियामक का लक्ष्य निवेशकों की रक्षा का होता है और बीमा नियामक पॉलिसीधारकों की रक्षा करता है। उनके द्वारा नियमित किए जाने वाले संस्थान गलत प्रतिस्पर्धा से संरक्षित नहीं किए जाते। ऐसे में यदि क्षेत्र के बड़े कारोबारी एक साथ मिलकर ऐसी शर्तें तय कर देते हैं जो अन्य प्रतिस्पर्धियों के लिए पूरी तरह अव्यावहारिक हों तो उस स्थिति में इस बात की काफी संभावना है कि संरक्षितों के हित के लिए नवाचार करने के इच्छुक कारोबारियों को ही निगरानी के दायरे में डालने की मांग की जाएगी। क्षेत्रवार नियामकों के साथ यह जोखिम रहा है कि वे अपने नियमों में कमजोर भाषा का इस्तेमाल करेंगे। मिसाल के तौर पर अच्छे आचरण और पेशेवर आचरण तथा व्यवस्थित प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने की मांग। परंतु उनके पास ऐसे वक्तव्यों के अलावा करने को कुछ खास नहीं होता और वे व्यवस्थित रूप से संहिताबद्ध प्रतिस्पर्धा कानून का विकल्प नहीं बन पाते। जब भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग, प्रतिस्पर्धा कानून के प्रवर्तन में शामिल हो जाता है तो विनियमित संस्थाओं की स्वाभाविक दलील यही होती है कि एक क्षेत्रीय नियामक है जो विशेषज्ञ है और पहले उसे इस मसले से निपटना चाहिए। प्रतिस्पर्धा आयोग को अक्सर अपने हाथ बांधने पड़ते हैं और नियम उल्लंघन के आरोपित क्षेत्रीय नियामक और प्रतिस्पर्धा आयोग के बीच टकराव की स्थिति निर्मित कर देते हैं जबकि कथित उल्लंघन वाला आचार जारी रहता है और उसका स्वरूप बदलता रहता है। दूरसंचार नियमों के उल्लंघन के एक कथित मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा निर्णय दिया जिसके अनचाहे परिणाम सामने आए। न्यायालय ने पाया कि उल्लंघन के आरोप दरअसल दूरसंचार नियमन के उल्लंघन के आरोप हैं। ऐसे में दूरसंचार नियामक प्राधिकरण के नियमों का उल्लंघन हुआ है या नहीं, यह निर्णय भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग पर छोडऩे के बजाय यह उचित समझा गया कि पहले प्राधिकरण स्वयं यह जांच और आकलन कर ले कि कोई उल्लंघन हुआ है या नहीं। इसके बाद ही प्रतिस्पर्धा आयोग परिदृश्य में आए। यह बात तार्किक नजर आती है लेकिन इस निर्णय का यह अर्थ लगाया गया कि यह कर संबंधी कानून का प्रावधान होने के बावजूद एकदम अलग है।
अब यह एक नजीर बन गई है और जब भी प्रतिस्पर्धा आयोग किसी मामले की जांच करता है तो यह दलील दी जाती है कि जब एक क्षेत्रीय नियामक मौजूद है तो प्रतिस्पर्धा आयोग को तब तक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए जब तक कि क्षेत्रीय नियामक इस मसले पर अंतिम निर्णय नहीं ले लेता। न्यायिक क्षेत्राधिकार की ऐसी चुनौतियों को अलग-अलग अदालतोंं में अलग-अलग स्तर पर सफलता मिली। क्षेत्रीय नियामकों के द्वारा अंतिम निर्णय लेने से मामला समाप्त नहीं होता। क्षेत्रीय नियामक के ऊपर की अपील पंचाट को भी इस पर एक नजर डालनी होती है। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय उस पंचाट की अपील पर एक नजर डालता है।
यदि प्रतिस्पर्धा आयोग को अंतिम अदालत के अपनी बात कह चुकने के बाद ही अपना प्राथमिक नजरिया बनाने की इजाजत होती तो इसका अर्थ यह है कि संसद द्वारा प्रतिस्पर्धा कानून के तहत दी गई रियायत बरकरार है। यानी प्रतिस्पर्धा कानून के तहत मिले संरक्षण काफी हद तक प्रभावी ढंग से समाप्त होते हैं। जिन क्षेत्रों में लाइसेंसशुदा नियामक नहीं बल्कि टैरिफ नियामक के रूप में सीमित नियमन है वे ऐसी दलील सामने रखने के लिए जाने जाते हैं जिनमें कहा जाता है कि क्षेत्रीय नियामक को उन मामलों में वरीयता हासिल है जहां प्रतिस्पर्धा आयोग ऐसे गलत आचरण की पड़ताल करता है जो शुल्क से संबंधित नहीं है। एक संभावना इससे भी अधिक खतरनाक है। यदि किसी को इस्पात या सीमेंट नियामक बनाना हो तो यह संभावना है कि ऐसे नियामक वित्तीय क्षेत्र के नियामकीय मॉडल पर काम करें। बल्कि सच तो यह है कि किसी भी नए नियामक को सेबी जैसा नियामक बनाना चलन में है। ऐसे मामलों में एक बार पंजीयन की शुरुआत होने के बाद निगरानी का पालन करना होगा। भला आचरण की जांच और कैसे होगी। ऐसे में कहा जा सकता है कि लाइसेंस और इंसपेक्टर राज की वापसी जैसी स्थितियां बनेंगी।
पहले से काम कर रहे विनिर्माताओं को यह रास आएगा। वे ऐसी नियामकीय व्यवस्था को लेकर पर्याप्त चिंताएं जता सकेंगे जिसमें प्रतिभागियों को लेकर कड़ाई न हो। इस प्रकार वे नए प्रतिभागियों की राह में प्रतिस्पर्धात्मक बाधाएं खड़ी करके उनकी राह रोक सकेंगे। ऐसे में इस तरह की इच्छा प्रकट करते वक्त सावधानी बरतनी चाहिए।
(लेखक अधिवक्ता एवं स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)