निरर्थक विरोध | संपादकीय / January 10, 2021 | | | | |
गत सप्ताह केंद्र सरकार और विरोध प्रदर्शन कर रहे किसानों के बीच वार्ता का एक और दौर बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गया। दोनों पक्षों के बीच अगली बैठक 15 जनवरी को होगी। इस बीच सर्वोच्च न्यायालय नए कृषि कानूनों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सोमवार को सुनवाई करेगा। सरकार ने अपनी ओर से सभी मुद्दों को हल करने की इच्छा जताई है और वह नए कृषि कानूनों पर प्रावधान दर प्रावधान चर्चा के लिए भी तैयार दिखी है। परंतु प्रदर्शनकारी किसान ऐसी कोई चर्चा नहीं चाहते। वे नए कानून वापस लिए जाने की मांग कर रहे हैं। यह ऐसी मांग है जिसे सरकार पूरा नहीं कर सकती और उसे करना भी नहीं चाहिए।
प्रदर्शनकारी किसान खुद को सही मानकर गलती कर रहे हैं। नए कृषि कानूनों में ऐसा कुछ गलत नहीं है कि उन्हें पूरी तरह वापस लिया जाए। किसानों की मांग में जो निरंकुशता है वह बेवकूफाना भी है और खतरनाक भी क्योंकि देश के कृषि क्षेत्र को बदलाव की आवश्यकता है। उसे पंजाब और हरियाणा की गेहूं-धान की खेती की संस्कृति से उबारने की भी आवश्यकता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनन अनिवार्य बनाने से इन फसलों की परिणति भी चीनी जैसी होगी। कीमतें असंगत हो जाएंगी और अधिशेष उपज का निर्यात असंभव हो जाएगा। इतना ही नहीं इससे निजी आंतरिक कारोबार और समग्र मांग भी प्रभावित होगी। चूंकि सरकार मौजूदा सरकारी खरीद का स्तर नहीं बढ़ा सकती इसलिए किसानों की अधिशेष फसल बच जाएगी क्योंकि मूल्य समायोजन मुश्किल होगा। कानूनन न्यूनतम कीमत तय होने से बाजार को मुश्किल पेश आएगी। इसके अलावा गेहूं-धान की खेती के इस चक्र में पानी की कमी से जूझते इलाकों में भी पानी और रसायनों की भारी खपत होती है। पर्यावरण पर इसका बहुत बुरा असर होगा। फसल चक्र के सही नहीं होने से इस क्षेत्र के बंजर होने का खतरा भी है।
यकीनन किसानों को आय समर्थन और सुरक्षा ढांचा चाहिए लेकिन तथ्य यह है कि देश के अधिकांश किसान पहले ही बाजार से जुड़े हैं। एक अनुमान के मुताबिक 10 फीसदी से भी कम किसान अपनी फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेचते हैं। सरकार के लिए यह संभव नहीं है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ देश भर के किसानों को दे। कुछ लोगों के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में एकत्रित हो जाने से वह चंद राज्यों में ऐसी खेती को भी बढ़ावा नहीं दे सकती जिसमें स्थायित्व नहीं है। इससे राजकोष और अर्थव्यवस्था दोनों पर बोझ आएगा। शायद सरकार मामले के प्रबंधन में चूक की हो और उसने इन कानूनों को बिना समुचित संसदीय विमर्श के पारित किया लेकिन विपक्षी दलों को भी अब पीछे हट जाना चाहिए।
कृषि क्षेत्र को स्पष्ट रूप से सुधार की आवश्यकता है। अन्य बातों के अलावा उत्पादन के प्रबंधन में भारी निवेश की जरूरत है जो निजी क्षेत्र से आएगा। इस संदर्भ में शायद विपक्षी दलों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि कृषि उपज भंडारण की सीमा तय होने से किसानों को क्या लाभ है। इसी तरह अनुबंधित खेती का कानूनी ढांचा किसानों को कैसे नुकसान पहुंचाएगा। न्यूनतम समर्थन मूल्य के मामले में सरकार कह चुकी है कि नीतियों में तब्दीली नहीं की जाएगी। सरकार को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत दायित्व निभाने के लिए हर वर्ष 5.5 करोड़ टन अनाज खरीदना ही है। तमाम कमियों के बाद भी लगता नहीं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था निकट भविष्य में समाप्त होगी। परंतु कीमतों को कानूनी गारंटी की बात उचित नहीं। इन विषयों पर बिना प्रतिरोध की धमकी के बहस होनी चाहिए। सरकार अधिक से अधिक यही कर सकती है कि कानूनों को फिलहाल स्थगित कर विशेषज्ञों को निर्णय करने दे।
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