टीका: मुआवजे के नियम होंगे अलग! | गीतिका श्रीवास्तव / January 08, 2021 | | | | |
टीकों को मंजूरी देने के मामले में भारत एक तरह से अनजान इलाके में दस्तक दे चुका है। इससे पहले कभी भी किसी बीमारी का टीका इतनी जल्दी नहीं बना था और न ही औषधि नियामकों ने इतनी जल्दबाजी में उन्हें मंजूरी ही दी थी। लेकिन कोविड-19 महामारी के कहर ने सबको टीकों के विकास की दिशा में तत्परता से कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया। जानकारों का कहना है कि भारत में इस्तेमाल के लिए दोनों टीकों को अलग तरह की मंजूरी मिलने का मतलब है कि टीका लगने के बाद किसी तरह का प्रतिकूल असर होने पर उसके मुआवजे की व्यवस्था दोनों टीकों के लिए अलग हो सकती है।
एस्ट्राजेनेका एवं ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी के संयुक्त प्रयासों से विकसित कोविशील्ड टीके का उत्पादन पुणे की कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) बड़े पैमाने पर कर रही है। कोविशील्ड को भारत में इस्तेमाल की मंजूरी कुछ दिन पहले ही मिली है। इसी तरह स्वदेशी कंपनी भारत बायोटेक के कोवैक्सीन टीके को क्लिनिकल परीक्षण मोड में 'आपात इस्तेमाल' की ही मंजूरी मिली है। सरकार ने साफ किया है कि कोवैक्सीन टीके का इस्तेमाल तीसरे चरण के परीक्षणों का ही विस्तारित रूप है।
कानूनी जानकारों का मत है कि क्लिनिकल परीक्षण वाले कोवैक्सीन टीके की खुराक लेने वाले लोग किसी परेशानी की स्थिति में मुआवजा पाने के हकदार होंगे। इंडसलॉ के पार्टनर कार्तिक गणपति कहते हैं, 'अगर किसी दवा का इस्तेमाल परीक्षण का हिस्सा है तो फिर वॉलंटियर औषधि नियमन कानून के अनुरूप मुआवजा पाने के लायक होगा। इस मुआवजे के तहत इलाज पर होने वाला खर्च और मौत की स्थिति में वित्तीय मुआवजा भी शामिल होगा।'
औषधि नियमों के मुताबिक, दवा का प्रायोजक किसी टीके से नुकसान होने की स्थिति में पीडि़त का मेडिकल खर्च देने के लिए उत्तरदायी होगा। दवा या टीके से होने वाले नुकसान की गंभीरता के अनुपात में ही मुआवजे की राशि तय होती है। मसलन, स्थायी विकलांगता, मौत या अस्पताल में इलाज से ठीक हो सकने वाली स्थिति के लिए अलग-अलग मुआवजा होता है। अगर औषधि लेने के बाद किसी व्यक्ति को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है तो एक आचार समिति समुचित मुआवजे के बारे में अपनी राय देती है।
दूसरी तरफ पूर्ण इस्तेमाल की अनुमति प्राप्त कोविशील्ड टीके से किसी तरह की मुश्किल पैदा होने पर क्षतिपूर्ति व्यवस्था एकदम अलग हो सकती है। वरिष्ठ अधिवक्ता और सिप्ला एवं ग्लेनमार्क के वैश्विक वकील रह चुके मुरली नीलकांतन कहते हैं, 'टीके के निर्माण एवं बिक्री के लिए सीरम इंस्टीट्यूट को दी गई मंजूरी में क्लिनिकल परीक्षण का कोई जिक्र नहीं है। यानी इस टीके का इस्तेमाल सरकार के टीकाकरण कार्यक्रम में किया जाएगा और अब यह परीक्षण का हिस्सा नहीं है। इसका मतलब है कि सीरम का टीका लगवाने वाले लोगों को परीक्षण वॉलंटियर नहीं माना जाएगा और न ही उन्हें नई औषधि नियम 2019 के तहत इलाज एवं मुआवजे का संरक्षण ही मिलेगा।'
हालांकि यह साफ नहीं है कि टीका बनाने वाली कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट को किस तरह की जमानत दी गई है। परंपरागत तौर पर किसी दवा को मंजूरी मिलने एवं जन-उपयोग के लिए जारी किए जाने के बाद प्रतिकूल असर झेलने वाले के पास टीका निर्माता को चुनौती देने के बहुत कम विकल्प ही होते हैं। ऐसी स्थिति में पीडि़त इस आधार पर अदालत का रुख करते हैं कि अमुक दवा या टीका नकली, मिलावटी, गलत लेबल वाला था या फिर उसके विनिर्माण में ही गड़बड़ी थी। ऐसे मामले औषधि एवं सौंदर्य उत्पाद अधिनियम के तहत दायर किए जाते हैं।
हालांकि अगर दवा के फॉर्मूले में किसी तरह की गड़बड़ी है तो फिर उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम या अपकृत्य कानून के तहत अपील की जा सकती है। लेकिन यह ताकतवर दवा कंपनियों के खिलाफ लंबे समय तक चलने वाली एवं महंगी सुनवाई होगी। इसके अलावा कार्य-कारण संबंध को साबित करने वाले पुख्ता सबूतों की भी जरूरत होगी।
लेकिन कोविड महामारी जैसी स्थिति में कुछ वकीलों ने ऐसे मानकों को थोड़ा नीचे लाने की भी बात कही है। गणपति कहते हैं, 'लोग सोचते हैं कि 'आपात' शब्द का मतलब यह है कि मुआवजे के लिए नुकसान साबित करने पर अधिक जोर नहीं देना होगा। इसका कारण यह है कि दवा को असल में पूर्ण अनुमति मिली ही नहीं थी।'
भारत सरकार ने भी कोवैक्सीन टीके की मंजूरी देते समय 'आपात इस्तेमाल' शब्दावली का इस्तेमाल किया है लेकिन कानून में इसका जिक्र नहीं है। इस तरह ऐसे शब्दों को शामिल कर शायद सरकार ने एक अनूठा रुख अपनाया है।
एक वकील ने अपना नाम जाहिर न करने की शर्त पर कहा, 'हर कोई अपनी जिम्मेदारी से बचना चाह रहा है। सरकार इस बात को लेकर फिक्रमंद हो सकती है कि अगर टीके को लेकर कुछ गलत होता है तो नागरिक प्रतिनिधिक मुकदमा दायर कर सकते हैं। मंजूरी देते समय आपात शब्द का इस्तेमाल इसीलिए किया गया है।'
काफी कुछ कोविशील्ड टीका के निर्माताओं के साथ सरकार के करार पर भी निर्भर करेगा। सीरम इंस्टीट्यूट के मुख्य कार्याधिकारी अदार पूनावाला ने पहले कहा था कि वह सभी टीका निर्माताओं को सभी तरह के कानूनी मुकदमों से जमानत दिए जाने के पक्ष में थे। लेकिन कई लोग इस विचार से सहमत नहीं हैं। इरा लॉ फर्म के पार्टनर आदित्य गुप्ता कहते हैं, 'दांव कभी भी इतने ऊंचे नहीं रहे हैं। लिहाजा निजी कंपनी पर भी बड़ी जिम्मेदारी डाली जानी चाहिए। बिक्री की मंजूरी के लिए आवेदन करने वाले शख्स को कानूनी मुकदमों से छूट नहीं दी जानी चाहिए।'
ब्रिटेन एवं ऑस्ट्रेलिया जैसे देश कुछ टीका निर्माताओं को मुकदमों से जमानत देने पर राजी हो गए हैं। अमेरिका पहले ही टीके पर शोध को बढ़ावा देने की कोशिश में टीका निर्माताओं को छूट देने वाला कानून बना चुका है। भारत सरकार भी कोवैक्स की 'नो-फॉल्ट' व्यवस्था अपना सकती है जिसमें किसी को भी कसूरवार ठहराए बगैर मुआवजे का जिक्र है।
गुप्ता कहते हैं, 'मुझे यही लगता है कि ये सारे मामले अदालत तक जाएंगे और तभी हम निश्चयपूर्ण जवाब जान पाएंगे।'
|