आखिरकार सन 2014 में भारतीय अर्थव्यवस्था ने चीन की तुलना में तेज गति से वृद्धि हासिल करनी शुरू की और अगले तीन वर्ष तक यह सिलसिला जारी रहा। वर्ष 2018 में अनुमान जताया गया कि यह रैंकिंग सन 2020 तक जारी रहेगी। परंतु चीन बहुत जल्दी आगे निकल गया और दोनों देशों के बीच का अंतर बढ़ता गया। इस वर्ष भी चीन की अर्थव्यवस्था दो फीसदी की अनुमानित दर से बढ़ेगी जबकि भारत तीव्र मंदी से गुजर रहा है। डॉलर को लेकर रुपये और युआन के मूल्य में मामूली समायोजन के बाद अंतररराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का कहना है कि सन 2010-20 के बीच चीन की अर्थव्यवस्था 146 फीसदी विकसित हुई जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था इससे एक तिहाई यानी 52 फीसदी विकसित हुई। इसके बावजूद भारत की वृद्धि इतनी बुरी भी नहीं रही क्योंकि उसने चीन को छोड़कर दुनिया की हर उस अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ दिया जो लाख करोड़ डॉलर मूल्य वाली थी। दुनिया में इस आकार की अर्थव्यवस्था वाले 13 देश हैं जिनमें से सात की अर्थव्यवस्था बीते दशक में कमजोर हुई।
सन 2010-20 के बीच 39 फीसदी की वृद्धि के साथ अमेरिका ही भारत के बाद सबसे बेहतर देशों में रहा। यदि आर्थिक वृद्धि के आधार पर आंकें तो तमाम विपत्तियों, आर्थिक धीमेपन और अब मंदी के बावजूद भारत के लिए यह दशक अपेक्षाकृत बेहतर रहा है। दूसरी ओर यह बात ध्यान में रखना उचित होगा कि कुछ छोटी अर्थव्यवस्थाओं ने भी बेहतर प्रदर्शन किया है। बीते दशक के दौरान बांग्लादेश ने चीन से भी तेज वृद्धि दर्ज की जबकि वियतनाम का प्रदर्शन चीन जैसा रहा। प्रश्न यह है कि भविष्य कैसा होगा? संभवत: कार्ल माक्र्स ने कहा था कि पूंजीवादी व्यवस्था में अर्थव्यवस्थाओं में चरणबद्ध वृद्धि होती है और समय-समय पर आने वाले संकट इसमें बाधा उत्पन्न करते हैं। अब हकीकत यह है कि महामारी के बाद जहां भारत और शेष विश्व दोबारा हालात सुधारने के लिए संघर्षरत हैं वहीं उनके सामने ऐसी छोटी दिक्कतें भी आ रही हैं जो जल्दी ही बड़े संकट का रूप धारण कर सकती हैं। आर्थिक असमानता के बाद छिड़े 'ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट' अभियान के नौ साल बाद भी अगर असमानता इसी गति से बढ़ती रही तो पता नहीं कब कौन सा ज्वालामुखी फट पड़े? माक्र्स का एक और पूर्वानुमान कम खपत के कारण उत्पन्न संकट की बात करता है। वह सही प्रतीत हो रहा है कि क्योंकि कामगारों को बहुत कम वेतन-भत्ते मिलते हैं। मौजूदा हालात में पहले की तुलना में बहुत कम लोग, पहले से कमतर वेतन पर काम कर रहे हैं और अनिश्चितता भी पहले से अधिक है। जबकि शीर्ष एक प्रतिशत लोग बहुत अच्छी स्थिति में हैं। किसी को यह अंदाजा नहीं है कि वृद्धि के आकलन को लेकर जलवायु परिवर्तन अर्थशास्त्रियों की मानसिकता पर क्या असर डालेगा? अब तक आर्थिक वृद्धि पर इसके प्रभाव को लेकर गंभीर आकलन नहीं किया गया है।
अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन ने असमानता और जलवायु परिवर्तन को अपने एजेंडे में अहम स्थान दिया है। वक्त आ गया है कि भारत भी यह करे। यानी देर से ही सही प्राकृतिक पूंजी को अवमूल्यन आकलन में शामिल किया जाए और खनन, पंजाब-हरियाणा के किसानों द्वारा धान की खेती जैसे कदमों के आर्थिक प्रभाव का भी आकलन किया जाए। बढ़ती असमानता के कारण लोककल्याण बढ़ाना पड़ सकता है शायद न्यूनतम आय गारंटी देनी पड़े जो ऐसा राजकोषीय जाल साबित होगी जिससे बचना असंभव होगा। यानी वृहद आर्थिक नीति को लेकर रुख की समीक्षा आवश्यक है। हालांकि सच यह भी है कि पारंपरिक संदर्भों में वृद्धि के बिना तमाम अन्य लक्ष्य हासिल करना मुश्किल होगा। एशिया में शक्ति संतुलन बदल रहा है। चीन की अर्थव्यवस्था, भारत से 5.7 गुना है जबकि सन 2010 में वह भारत का 3.5 गुना थी। वह जल्द ही अमेरिका को पीछे छोड़ सकता है। पहले की तुलना मेंं समृद्ध चीन शोध एवं विकास पर अधिक खर्च करेगा। क्रय शक्ति समता के आधार पर डॉलर में आंकें तो यह अभी ही अमेरिका के समान खर्च कर रहा है। इनकी तुलना में भारत का व्यय बहुत कम है। इसका नतीजा भी नजर आ रहा है और अमेरिकी तकनीक को चीन तगड़ी चुनौती पेश कर रहा है। सैन्य शक्ति की बात करें तो चीन अपना तीसरा विमानवाहक पोत अवतरित करने वाला है और वह ऐसे कुल छह पोत तैयार करने की योजना में है। जानकारी के मुताबिक इनमें से दो हिंद महासागर के लिए हैं जहां भारत अपेक्षाकृत छोटे पोत तैनात करेगा। यह कहना मुश्किल है कि दोनों देशों के बीच चौड़ी होती खाई सैन्य विवाद में तब्दील होगी या एशिया के अधिकांश इलाकों का फिनलैंडीकरण होगा। फिनलैंडीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें एक ताकतवर मुल्क अपने कमजोर पड़ोसियों को सांकेतिक स्वतंत्रता और राजनीतिक व्यवस्था बनाए रखने देने के साथ अपनी विदेशी नीति का पालन करने को बाध्य करता है। अब से 10 वर्ष बाद दुनिया काफी अलग होगी।