देश के समाचार प्रसारक बने राष्ट्रीय शर्म का सबब | मीडिया मंत्र | | वनिता कोहली-खांडेकर / December 31, 2020 | | | | |
टेलीविजन सीरीज शेटलैंड के पुलिस अधिकारी चुपचाप रहते हैं। वे हॉलीवुड की शैली में गाली-गलौज करते हुए दरवाजे नहीं तोड़ते। वे सामान्य जैकेट पहनते हैं, स्थानीय लोगों के साथ तालमेल रखते हैं और फिर हत्यारों और बलात्कारियों को पकड़ते हैं। यह पुरस्कृत वेबसीरीज स्कॉटलैंड के उत्तर में स्थित एक द्वीप पर आधारित एक अवसादग्रस्त, बेचैन करने वाली लेकिन मोहक कहानी है। इसका पाश्र्व संगीत शेटलैंड में व्याप्त दुख और शांति की भावना को घनीभूत करता है। भारतीय मीडिया और मनोरंजन जगत की स्थिति भी अभी कुछ ऐसी ही है। अब तक के सबसे मुश्किल वर्षों में भी करीब 1,82,200 करोड़ रुपये के मीडिया और मनोरंजन उद्योग ने किसी तरह खड़े रहने का दम दिखाया। हालांकि इस दौरान रोजगार भी गए और क्षेत्र के राजस्व में 20 से 30 फीसदी की गिरावट आने की बात कही जा रही है। इस क्षेत्र का कारोबार पूरी तरह पटरी पर वापस आने में वर्षों का समय लगेगा।
बीते वर्ष यानी 2020 पर नजर डालें तो सबसे पहले यही नजर आता है। दूसरी बात यह कि समाचार मीडिया और उसके साथ पेशेवर पत्रकारिता में भी गिरावट आई है। सन 1992 में प्रबंधन की डिग्री लेने के बाद मैं पत्रकारिता में आ गई। मेरे माता-पिता इस निर्णय से हतप्रभ थे। उन्होंने मेरे लिए किसी विदेशी बैंक या उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र की नौकरी का स्वप्र देखा था जिसमें ढेर सारा वेतन हो। उनकी चिंता मेरी वित्तीय स्वायत्तता को लेकर थी। मैं कारोबारी पत्रकारिता में थी इसलिए जल्दी ही मेरा वेतन अच्छा हो गया। इसमें उदारीकरण का भी योगदान था। मुझे यह काम रास आया। पत्रकारिता जैसा दूसरा कुछ भी नहीं है। यहां नए-नए लोगों से मिलने का अवसर होता है, शोध और विश्लेषण होता है तथा हर खबर में काफी कुछ सीखने को होता है। कम से कम मेरे साथ तो ऐसा ही हुआ। अन्स्र्ट ऐंड यंग के साथ एक छोटे कार्यकाल के अलावा मैं 25 वर्षों से कारोबारी पत्रकारिता कर रही हूं और प्रसन्न हूं। यही कारण है कि समाचार मीडिया की स्थिति देखकर मुझे दुख और शर्मिंदगी होती है। बात केवल गलत और भ्रामक सूचना देने वाले समाचार चैनलों की नहीं है बल्कि कई समाचार पत्र और वेबसाइट भी अपनी राह से भटक चुके हैं। उनकी नजर जमीनी मुद्दों पर नहीं है। वे न उन्हें लेकर शोध कर रहे हैं और न ही देश को जरूरी आंकड़ों से अवगत करा रहे हैं। इसके बजाय उन्होंने गलत खबरों, फर्जी वीडियो, मनचाहे आंकड़ों और तथ्यों को छिपाते हुए निर्णयों को आकार देने का प्रयास किया।
टेलीविजन पत्रकार माइक और कैमरे के साथ राजनेता बन गए हैं। पत्रकार शब्द को उन्होंने जिस तरह आभाहीन किया और जिस घृणा का पात्र बना दिया है वह देखना दुखद है। गुर्राने वाले और हर विषय पर निर्णय सुनाने वाले टेलीविजन एंकर अब लोकप्रिय पत्रकारिता का उदाहरण बन चुके हैं। गत जुलाई में ब्रिटेन में एक पैनल में रहते हुए मैंने उन सवालों का जवाब देने की कोशिश की थी कि आखिर भारतीय समाचार चैनल ऐसे क्यों हैं? इस सवाल के जवाब मैंने इस स्तंभ में दिए हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इसमें गलत पैसा शामिल है राजनीतिक स्वामित्व सरकारी प्रशासक निष्पक्ष नहीं है और मीडिया मालिकों के ऐसे कारोबारी हित हैं जो उनकी संपादकीय स्वतंत्रता से टकराते हैं। देश के समाचार प्रसारकों ने देश के लोगों को बांट दिया है और वे राष्ट्रीय शर्म का विषय बन गए हैं। उन्होंने लोगों को सिनेमा जैसे राष्ट्रीय गौरव से दूर कर दिया है।
सन 2020 ने भारतीय सिने जगत को भी काफी नुकसान पहुंचाया। जून में अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या केे बाद फिल्मी सितारों, निदेशकों और अन्य लोगों को खलनायक की तरह पेश किया गया। कुछ लोगों ने मुझसे कहा कि अब वे बॉलीवुड के बजाय केवल ओटीटी की सामग्री देखेंगे। विडंबना यह है कि ओटीटी को पूरी सामग्री फिल्म उद्योग से ही मिलती है। कुछ लोगों के गांजा पीने के कारण पूरे उद्योग की छवि नहीं खराब की जा सकती। यह तो वैसा ही है जैसे कुछ खराब चिकित्सकों के कारण पूरे चिकित्सा समुदाय को या कुछ गलत कारोबारियों के कारण पूरे कारोबारी समुदाय को दोष देना। वंशवाद का आरोप बार-बार दोहराया जताा है लेकिन उसमें दम नहीं है। भारतीय सिनेमा पूरी तरह काबिलियत को तवज्जो देता है। वहां कोई आरक्षण नहीं है। आपके पिता अमिताभ बच्चन हों या यश चोपड़ा, अगर आप में प्रतिभा नहीं है तो आप अपनी जगह नहीं बना पाएंगे। जबकि शाहरुख खान, आयुष्मान खुराना या पंकज त्रिपाठी जैसे बाहरी अभिनेता अपनी प्रतिभा के दम पर जगह बना लेते हैं।
समाचार चैनल उस सिने जगत को समाप्त करने में लगे हैं जो 100 साल से अधिक समय से बिना किसी सरकारी मदद के खड़ा है। वे आपको यह नहीं बताएंगे कि विश्व स्तर पर केवल दो सिने उद्योग हॉलीवुड की ताकत का सामना कर सके और वह है भारतीय और कोरियाई सिनेमा। हमारे सिने उद्योग का 85 फीसदी राजस्व भारतीय फिल्मों से आता है। हमारे टेलीविजन दर्शकों में एक चौथाई, कुल बिकने वाले संगीत में 70 फीसदी तथा ओटीटी की लगभग सारी मूल सामग्री फिल्म उद्योग से आती है। यहां 70 लाख लोगों को रोजगार मिलता है और इसे कई प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं। दिल्ली क्राइम को मिला एमी अवार्ड इस कड़ी में सबसे ताजा है। यह देश की ताकत का नमूना है और इसकी विविधता को दुनिया भर में सराहा जाता है।
बावजूद तमाम आरोपों के यह उद्योग अपना काम करता रहेगा। हजारों ऐसे पत्रकार हैं जो बिना चीखे-चिल्लाए आपको सही खबर देते हैं। कई बार उन्हें पुलिस पकड़ती भी है और प्रताडि़त भी किया जाता है लेकिन वे अपना काम करते रहेंगे। इसी तरह रेडियो, टेलीविजन, ओटीटी, फिल्म जगत से जुड़े लोग भी अपना काम करते रहेंगे। सन 2021 ऐसा ही होगा। शेटलैंड के अधिकारियों की तरह अपना काम करते रहिए, बिना किसी आशा, शोहरत या सम्मान के।
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