प्रदूषण की आर्थिक कीमत | संपादकीय / December 30, 2020 | | | | |
देश में वायु प्रदूषण को नियंत्रित कर पाने में नाकामी हाथ लगने के कारण देश को हर वर्ष 37 अरब डॉलर मूल्य की आर्थिक क्षति पहुंच रही है। यह देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का करीब 1.4 प्रतिशत है। इतना ही नहीं करीब 16.7 लाख लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रदूषित हवा के चलते अपनी जान गंवा बैठते हैं। मौत का यह आंकड़ा दुनिया में सर्वाधिक है और यहां तक कि यह कोविड-19 के कारण हुई मौतों से भी ज्यादा है। आर्थिक और स्वास्थ्य से जुड़ी तथा उत्पादकता संबंधी यह क्षति देश की तेज आर्थिक वृद्धि की आकांक्षा की राह रोक सकती है। ये चौंकाने वाले खुलासे स्वास्थ्य संबंधी पत्रिका द लैंसेट में प्रकाशित किए गए हैं। इसमें यह भी कहा गया है कि यदि वायु प्रदूषण की समस्या से सही ढंग से नहीं निपटा गया तो यह हमारे बच्चों और भविष्य की पीढिय़ों के लिए बहुत बुरा होगा। आने वाली पीढिय़ों में हृदय रोग, मधुमेह और श्वसन संबंधी बीमारियों की आशंका अधिक होगी। यहां तक कि बच्चों की बुद्धिमता भी प्रभावित हो सकती है। इसके बावजूद वायु प्रदूषण से लड़ाई हमारी प्राथमिकता में नहीं है।
अंदाजा लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण की समस्या के लिए उत्तर भारत के भारी प्रदूषण वाले राज्य अधिक जवाबदेह हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) इसका गढ़ है। इस समूचे क्षेत्र में व्याप्त हवा वर्ष भर अत्यधिक प्रदूषित रहती है और ठंड के दिनों में तो हालात अत्यधिक खराब हो जाते हैं। यही वह समय है जब स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले पार्टिकुलेट मैटर यानी पीएम 2.5 और पीएम10 समेत तमाम प्रदूषक तत्त्व जमीन के करीब रहते हैं और हमारे इर्दगिर्द की हवा में मिलकर दमघोंटू माहौल बना देते हैं। अक्टूबर और नवंबर के महीनों में एनसीआर के आसपास के इलाकों में फसल अवशेष जलाए जाते हैं जिससे धुआं तथा अन्य प्रदूषक तत्त्व उत्पन्न होते हैं। इससे इस इलाके की हवा और प्रदूषित हो जाती है। परंतु स्थानीय कारक मसलन धूल, वाहनों से होने वाले प्रदूषण और कचरा जलाने से होने वाले प्रदूषण पर भी नियंत्रण रखने की आवश्यकता है।
चूंकि प्रदूषण के कारण होने वाला आर्थिक नुकसान अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग होता है इसलिए भारत को विशिष्ट प्रदूषण नियंत्रण नीतियां तैयार करने की आवश्यकता है। ऐसे में सरकार के कुछ हालिया कदम बेहतर नजर आते हैं। सरकार ने दिल्ली और उसके आसपास के राज्यों में हवा की गुणवत्ता का प्रबंधन करने के लिए अधिकारप्राप्त आयोग की स्थापना, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण (ईपीसीए) तथा इसके तहत तीन अन्य समितियों और कार्यबल की नियुक्ति की है। लेकिन हकीकत में गत 5 नवंबर को एक अध्यादेश द्वारा गठित यह आयोग युद्ध स्तर पर काम करने में नाकाम नजर आया है। अब तक कुछ सामान्य आदेश जारी किए गए हैं। इसमें भी पानी की फुहारेदार सिंचाई, सड़कों पर यांत्रिक तरीके से झाड़ू लगाने और विनिर्माण और इमारतों को ध्वस्त करने पर धूल को नियंत्रित रखने जैसे आदेश प्राय: कागजों पर ही रह गए।
यही वजह है कि पिछले कुछ समय में इस इलाके की हवा की गुणवत्ता बहुत ही खराब रही है। हवा को साफ करने के लिए जिस प्रकार के आपात उपायों की आवश्यकता थी वे देखने को नहीं मिले हैं। पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने आश्चर्य जताया है कि यदि ऐसा ही होना है तो हर राज्य की भागीदारी वाली इतनी बड़ी संस्था का गठन क्यों किया गया। आयोग अपनी प्रासंगिकता तभी साबित कर पाएगा जब वह नए विचार पेश करता है और प्रदूषण के स्रोत पर रोक लगा सकता है। केवल पुराने कदमों को दोहराने से सफलता नहीं मिलेगी।
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