सामूहिक प्रतिरोधकता से आएगी सामान्य स्थिति! | अजय शाह / December 29, 2020 | | | | |
सामूहिक प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाने पर टीके की जरूरत भी कम हो जाएगी। लेकिन इसकी पुष्टि के लिए सीरो सर्वेक्षण के आंकड़े जरूरी हैं। बता रहे हैं अजय शाह
अर्थव्यवस्था को सामान्य करने के लिए जरूरी है कि उपभोक्ता फिर से विवेकाधीन खर्च को लेकर परंपरागत व्यवहार करने लगें। जहां हम सभी कोविड के टीके को लेकर उत्साहित हैं, वहीं टीके का ताककवर असर दिखना अभी दूर है। आने वाले छह महीनों में हालात सामान्य करने का अधिक आसन्न स्रोत सामूहिक प्रतिरोधक क्षमता है। बेहतर आंकड़े लोगों के सुधरे हुए आचरण के लिहाज से अहम हैं। इसके अलावा सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रयासों में अधिक समझदारी दिखाने से भी मदद मिलेगी। अर्थव्यवस्था के संदर्भ में कई चीजें आज अधिक सामान्य नजर आने लगी हैं। उदाहरण के तौर पर सीएमआईई के परिवार सर्वे में इस साल के शुरू में रोजगार दर शहरी भारत में करीब 37 फीसदी थी। लेकिन महामारी की वजह से लागू हुए सख्त लॉकडाउन के दौरान अप्रैल में यह 24.37 फीसदी तक लुढ़क गई थी। हालांकि सुधार के साथ नवंबर में यह 34.52 फीसदी पर पहुंच गई। लेकिन समग्र आर्थिक हालात अब भी संकटपूर्ण हैं। मसलन, उपभोक्ता धारणा सूचकांक 100 की आधार-रेखा से गिरकर मई में 36.83 पर आ गया था। नवंबर 2020 तक भी यह 46 के स्तर तक ही पहुंच पाया है। अधिकांश परिवार अब भी जनवरी-मार्च 2020 के स्तर वाला खर्च नहीं कर रहे हैं। इसकी वजह से वृहद-आर्थिक स्तर पर मांग में कमी की स्थिति पैदा हुई है।
मार्च महीने में परिवारों ने स्वास्थ्य एवं आर्थिक कारणों से जुड़े विवेकाधीन खर्च में काफी कटौती की। लोगों ने घरों से बाहर निकलने से परहेज शुरू कर दिया और वे पारस्परिकता पर केंद्रित सेवाओं के उपभोक्ता बनने लगे। यह अर्थव्यवस्था के लिए एक अच्छी पहल होगी जब इससे जुड़ी स्वास्थ्य चिंता वाला अवयव कम होगा और परिवार फिर से अधिक खर्च करने लगें। हालांकि इससे हमारी आर्थिक समस्याओं को मुकम्मल जवाब नहीं मिलने वाला है। आर्थिक अनिश्चितता और बैलेंसशीट से जुड़े तनाव परिवारों और फर्मों दोनों की मांग पर दबाव डाल रहे हैं। लेकिन अगर स्वास्थ्य चिंताएं तस्वीर से हटा दी जाती हैं तो उससे खपत को प्रोत्साहन मिलेगा जिससे अर्थव्यवस्था के मांग संबंधी पहलू को मदद मिलेगी।
उपभोक्ता व्यवहार किस तरह सामान्य होंगे जब सेहत पर ही खतरा मंडरा रहा हो? एक व्यक्ति के लिए हालत सामान्य होने का मतलब है कि उसे टीका लग जाए। यह एक समुचित स्थिति है लेकिन अप्रैल 2021 तक बड़े पैमाने पर कोविड टीकाकरण शुरू होने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। यहां पर हमें एक और पक्ष पर काम करना होगा और वह महामारी के प्रसार से संबंधित है। कोविड-19 का प्रसार तेजी से होता रहा है। तीन सीरो-सर्वेक्षण अध्ययन जनसंख्या के उस हिस्से को बताते हैं जिन्हें महामारी ने अपनी चपेट में लिया था और अब उनके भीतर ऐंटीबॉडी विकसित हो चुकी हैं।
मनोज मोहनन एवं अन्य ने एक शोध-पत्र के सिलसिले में 15 जून से 29 अगस्त के बीच कर्नाटक में विधिवत सांख्यिकीय नमूना इक_ा किया था। उन्हें पता चला कि कर्नाटक की करीब आधी आबादी में ऐंटीबॉडी मौजूद हैं। निशांत कुमार की टीम ने 5-10 अक्टूबर के दौरान दक्षिण मुंबई की झुग्गी बस्तियों में ऐसा ही सर्वेक्षण किया था जिससे पता चला कि करीब 75 फीसदी झुग्गीवालों में ऐंटीबॉडी मौजूद हैं। इसी तरह 15 अक्टूबर से 5 नवंबर के दौरान नागपुर में नगर निगम की तरफ से किए गए एक अध्ययन से पता चला कि करीब आधा शहर ऐंटीबॉडी से लैस हो चुका है। हालांकि ये आंकड़े अब मायने नहीं रखते हैं। 15 जून-29 अगस्त के दौरान आधे कर्नाटक में ऐंटीबॉडी मौजूद होने का मतलब है कि उस समय महामारी उग्र रूप में थी। इसके 100 दिन बीतने के बाद भी मात्रात्मक आंकड़े काफी अधिक होंगे।
जिस वक्त आबादी के 75 फीसदी हिस्से में ऐंटीबॉडी विकसित हो जाएगी, हम महामारी के प्रसार पर लगाम लगाने वाली सामूहिक प्रतिरोधक क्षमता (हर्ड इम्यूनिटी) हासिल कर लेंगे। जब जनसंख्या के तीन-चौथाई हिस्से में ऐंटीबॉडी मौजूद हैं तो अगर बाकी बची चौथाई आबादी में से कोई शख्स बीमार पड़ता है तो भी वायरस के पास किसी अन्य को संक्रमित करने का मौका ही नहीं रह जाएगा। संक्रमण में बढ़त के बाद गिरावट आनी शुरू हो जाती है। अप्रैल 2021 तक टीकाकरण अभियान तेजी पकड़ सकता है लेकिन उस समय तक यह महामारी भारत की आबादी के एक अच्छे-खासे हिस्से को अपनी चपेट में ले चुकी होगी।
अगर किसी व्यक्ति को यह पता है कि उसके भीतर ऐंटीबॉडी मौजूद हैं और वह काफी हद तक सुरक्षित है तो फिर वह सामाजिक गतिविधियों में बढ़चढ़कर हिस्सा लेने लगता है। दक्षिण मुंबई की झुग्गी बस्तियों के 75 फीसदी निवासियों के लिए हर्ड इम्यूनिटी जैसी स्थिति बनने के बाद अब इस महामारी से डरने की कोई जरूरत नहीं है और न ही उन्हें टीके का इंतजार करने की जरूरत है। एक हद तक सामान्य मानवीय प्रवृत्तियों के नतीजे अच्छे ही रहेंगे। हम सभी अपने आसपास के लोगों के संक्रमण, अस्पताल में भर्ती होने और उनकी मौत से जुड़ी खबरों को लेकर काफी संवेदनशील होते हैं। जब भी हम अपने किसी परिचित के बीमार होने के बारे में सुनते हैं तो हम एहतियाती उपाय तेज कर देते हैं। सामूहिक प्रतिरोधक क्षमता की तरफ प्रगति जारी रहने से आसपास के लोगों की बीमारी, अस्पताल में भर्ती कराने या मौतों के बारे में अब कम सुनने को मिलता है। इससे भरोसा पैदा हो रहा है और हम सामाजिक गतिविधि को सामान्य बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।
इस स्थिति में सीरो-प्रधानता के बारे में बेहतर सूचना प्रणाली अहम फर्क पैदा कर सकती है। हरेक नगर निगम को साप्ताहिक आंकड़े जारी करने की जरूरत है जो शहर की आबादी के एक वैज्ञानिक सांख्यिकीय सर्वेक्षण पर आधारित हों। यह आंकड़ा तमाम सामाजिक-आर्थिक हिस्सों से संबंधित होना चाहिए ताकि औसत सीरो-प्रधानता के बारे में प्रासंगिक जानकारी मिल सके। इससे आम लोग बेहतर ढंग से निर्णय कर पाएंगे जो सामान्य स्थिति बहाल करने में मदद करेगा। सुरक्षा के क्षेत्र में 'सुरक्षा रंगमंच' नाम की एक शब्दावली है। इसका आशय नीति-निर्माताओं को ऐसा मंच देने से है जहां वे दर्शकों को सुरक्षात्मक कदमों के बारे में अवगत करा सकें। लोगों को सुरक्षा का अधिक अहसास कराए जाने के मकसद से यह काम अंजाम दिया जाता है चाहे इन कदमों से सुरक्षा बढ़ाने में कोई मौलिक अंतर न आए।
सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी इसी तरह की समस्या पाई जाती है। वर्ष 2020 के पूरे साल में भारत के तमाम सरकारी प्राधिकारियों की एक नजर दुष्प्रचार पर टिकी रही और वे लोगों को यह यकीन दिलाने की कोशिश में लगे रहे कि महामारी पर काबू पाया जा रहा है। इस शुरुआती रिकवरी के दौरान बेहतर होगा कि सुरक्षा-रंगमंच जैसी घोषणाओं से परहेज किया जाए। आंकड़े तैयार करना, साक्ष्य पेश करना और तथ्यों पर आधारित तार्किक निर्णय लेना खास तौर पर अहम है। कड़े कदमों की घोषणा से अमूमन महामारी पर लगाम लगाने में कोई मदद नहीं मिलेगी और इनसे महामारी खत्म होने के बाद की रिकवरी भी बाधित होगी क्योंकि लोग आंकड़ों को लेकर भयभीत होंगे।
सारांशत: भारत में तमाम लोगों के लिए आचरण सामान्य होने की प्रक्रिया टीका आने से पहले ही जारी है। टीके से बाकी संदेहों को दूर करने में मदद मिलेगी लेकिन बीमारी के प्रसार एवं सामूहिक प्रतिरोधक क्षमता के उभार से तुलना करने पर इसमें थोड़ा विलंब होगा। देश में बड़े पैमाने पर टीका लगाने की समस्या उतनी बड़ी नहीं है जितनी बनाई जा रही है। आज की जरूरत है कि हर शहर में वैज्ञानिक सर्वेक्षणों के जरिये तैयार सीरो-प्रधानता आंकड़े हर हफ्ते जारी किए जाएं।
(लेखक एक स्वतंत्र स्कॉलर हैं)
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