फिर वही कहानी | संपादकीय / December 28, 2020 | | | | |
सरकार ने शुरुआती दौर में 'मेक इन इंडिया' के तहत विनिर्माण गतिविधियों को देश में आकर्षित करने का जो प्रयास किया उसे अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल सकी। शायद यह भी एक वजह है कि सरकार ने हाल में विशेष चिह्नित क्षेत्रों में 'उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन' (पीएलआई) जैसी सन 1970 के दशक की शैली की औद्योगिक नीति संबंधी घोषणाएं कीं। अर्थशास्त्रियों ने चेतावनी दी है कि निवेश को इस तरह प्रोत्साहन देने की कोशिशें देश में इससे पहले भी हो चुकी हैं और उस वक्त इसके खतरनाक परिणाम देखने को मिले थे। ऐसे प्रयासों के चलते प्रतिस्पर्धा में कोई सुधार होने के बजाय राजकोष को स्थानीय नुकसान पहुंचा था। दुख की बात है कि इस दिशा में शुरुआती संकेत भी मिलने लगे हैं।
मोबाइल हैंडसेट निर्माताओं का प्रतिनिधित्व करने वाली एक संस्था ने कहा है कि उसके सदस्य पीएलआई योजना के अधीन सन 2020-21 में अपने लक्ष्य हासिल करने से चूक सकते हैं लेकिन उन्हें दंडित नहीं किया जाना चाहिए। यह सही है कि महामारी के कारण वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में आपूर्ति शृंखलाएं पूरी तरह बाधित रहीं, वहीं यह भी सच है कि ऐसा सभी क्षेत्रों के साथ हुआ। उन कंपनियों को कोई विशेष सहायता नहीं दी गई जो एक मौजूदा योजना के तहत पहले ही चिह्नित हैं। यदि पीएलआई जैसी व्यवस्थाओं का लाभार्थियों द्वारा निरंतर इस्तेमाल नहीं होने देना है तो उन्हें कड़े लक्ष्यों को लेकर काम करना चाहिए, न कि बदलते हुए लक्ष्यों के साथ। संभावना यह है कि सरकार इस मामले में समझौता करेगी और उसके बाद अन्य मामलों में भी समझौते करने होंगे। आखिरकार उसे पांच वर्ष के बाद भी बार-बार लक्ष्य आगे बढ़ाने होंगे। तमाम सब्सिडी के साथ हमारा यही अनुभव रहा है। खासकर ऐसी सब्सिडी के साथ जो निजी क्षेत्र को दी गई हैं।
इस बीच विभिन्न क्षेत्रों द्वारा योजनाओं के लिए लॉबीइंग भी बढ़ती जाएगी। औद्योगिक नीति का बुनियादी लक्ष्य वे क्षेत्र थे जिन्हें कुछ वर्ष पहले विशेष पैकेज मिला था। यह पैकेज इसलिए दिया गया था क्योंकि इनमें एसएमई का दबदबा रहा है और वे श्रम केंद्रित क्षेत्र रहे हैं। चमड़ा उद्योग, रत्न उद्योग और वस्त्र उद्योग इसके उदाहरण हैं। परंतु अब इसका दायरा निराशाजनक लेकिन ऐसे तरीके से आगे बढऩे लगा है जिसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। मौजूदा कारोबारी पीएलआई इसलिए चाहेंगे ताकि वे पहले से नियोजित निवेश को सस्ता कर सकें। विभिन्न क्षेत्रों के 'प्रभारी' अफसरशाह चाहेंगे कि उनके प्रभार वाले क्षेत्र पीएलआई व्यवस्था का हिस्सा बनें। यह विस्तार घटित होना शुरू हो चुका है।
मूल पीएलआई क्षेत्रों में नवंबर में एलईडी लाइट और वातानुकूलक क्षेत्रों को शामिल किया गया। ऐसी कोई वजह नहीं है कि एलईडी लाइट जैसा उद्योग जिसकी उपभोक्ताओं में इतनी अधिक मांग है और जिसमें उतनी अधिक तकनीक की आवश्यकता नहीं है, उसे ऐसी केंद्रित औद्योगिक नीति का हिस्सा बनाया जाए। यदि कार्बन उत्सर्जन में कमी के कारण इसे शामिल किया गया है तो यह विचित्र है कि इसे कार्बन उत्सर्जन करने वाले वातानुकूलकों के साथ केंद्रित क्षेत्र में रखा गया। इस बीच मौजूदा कारोबारी शिकायत कर रहे हैं कि पीएलआई योजना नए निवेश के लिए लाभदायक है और उसमें बदलाव होना चाहिए ताकि उन्हें भी लाभ मिले। उनकी मांग है कि केवल निर्यातकों के लिए नहीं बल्कि समस्त मूल्य शृंखला के लिए ब्याज अनुदान की व्यवस्था हो। सरकार ने जिस तरह की नीति पेश की है उसमें ऐसी घटनाएं चौंकाने वाली नहीं हैं। यदि सरकार वास्तव में विनिर्माण क्षेत्र में निवेश सुधारना चाहती है तो उसे ऐसा नियामकीय और कर माहौल बनाना होगा ताकि ऐसे निवेशक सहज रह सकें। प्रत्यक्ष सब्सिडी और चुनिंदा क्षेत्रों का चयन केवल अफसरशाहों और निहित हितों की पूर्ति के काम आता है। हमारा दशकों का अनुभव यह साबित करता है।
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