कृषि सुधारों से संबंधित तीन नए केंद्रीय कृषि कानून लागू होने के बाद देश के कई हिस्सों में अशांति है। किसानों का आरोप है कि इन कानूनों के बाद कृषि उपज मंडियां खत्म होती जाएंगी और एमएसपी व्यवस्था भी समाप्त हो जाएगी। आईआईएम अहमदाबाद में कृषि प्रबंधन केंद्र के अध्यक्ष और कृषि विशेषज्ञ प्रोफेसर सुखपाल सिंह मानते हैं कि नए अधिनियम न केवल मंडियों को किनारे लगा देंगे बल्कि इनसे बाहर फसल बेचने वाले किसानों के लिए जोखिम भी बढ़ जाएगा। संजीव मुखर्जी के खास बातचीत में उन्होंने कहा कि मंडियों का मौजूदा स्वरूप भी आदर्श नहीं है। प्रमुख अंश: हम सभी जानते हैं कि कृषि उपज विपणन समितियां (एपीएमसी) आदर्श बाजार नहीं रह गई हैं और कुछ वर्षों से वहां कई दिक्कतें पैदा हो गई है। आपको उनमें कौन सी बड़ी कमियां नजर आती हैं? सैद्धांतिक रूप से तो एपीएमसी लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई ऐसी संस्था होनी चाहिए, जिसमें कई हितधारक हों। कर्नाटक, गुजरात और महाराष्टï्र जैसे बड़े कृषि राज्यों में ऐसा ही है और वहां नियमित रूप से चुनाव भी होते हैं। पंजाब इकलौता राज्य है, जहां एपीएमसी के चुनाव दशकों से नहीं हुए हैं और सभी पद नामांकन के जरिये भरे जाते हैं। पहली समस्या तय मानकों को नहीं मानने की है। जैसे अधिकतर एपीएमसी में फलों-सब्जियों की खुली नीलामी होती ै। कई राज्यों में अनाज मंडियों में भी ऐसा हेाता है। कुछ राज्यों में ज्यादातर उपज खरीदे जाने पर खरीदार से तगड़ा शुल्क वसूल लिया जाता है। विभिन्न एपीएमसी में सुविधाओं की भी कमी है। मात्र 15 प्रतिशत में शीतगृह हैं, 22 प्रतिशत में ग्रेडिंग की सुविधा, 29 प्रतिशत में सुखाने की सुविधा, 49 प्रतिशत में तौलने की सुविधा और 66 फीसदी में ढके हुए प्लेटफॉर्म हैं। केवल 65 प्रतिशत में शौचालय और 38 फीसदी में ही किसानों के लिए रेस्ट हाउस हैं। मात्र 32 फीसदी मंडियों में कैंटीन है। ज्यादातर एपीएमसी कारोबार के लिए नए लाइसेंस जल्द जारी नहीं करतीं, इसलिए बाजार चुनिंदा कारोबारियों और कमीशन एजेंटों की मु_ïी में है। पंजाब जैसे राज्यों में किसानों को कर्ज ही फसल बिक्री की शर्त पर दिया जाता है, इसलिए किसानों के पास किसी और को उपज बेचने का विकल्प नहीं रह जाता। इन वजहों से किसानों को उपज का सही दाम नहीं मिल पाता। कहा जा रहा है कि कुछ राज्यों ने एपीएमसी का इस्तेमाल कमाई के जरिये के तौर पर किया है और वहां लगने वाले कर घटाकर उचित सीमा पर लाए जाने चाहिए। आपके हिसाब से राज्यों की मंडियों में कर की आदर्श दर क्या होनी चाहिए? पूरे देश में एक दर तो नहीं हो सकती क्योंकि हर राज्य की मंडियों में इमारत और बुनियादी ढांचे के रखरखाव पर खर्च अलग-अलग होता है। इसमें दोराय नहीं कि कुछ राज्यों में बाजार शुल्क और उपकर बहुत अधिक हैं। बिचौलियों का कमीशन भी ज्यादा है। लेकिन यह तो खरीदार तय करेंगे कि उन्हें किस राज्य में उपज खरीदनी है। कुछ राज्यों तो किसानों से भी कमीशन लिया जाता है जो गलत है क्योंकि विनियमित बाजार में विक्रेता लोडिंग, अनलोडिंग, बैङ्क्षगग आदि के अलावा कोई कमीशन या शुल्क नहीं देते। सारा शुल्क और कमीशन खरीदार वहन करता है। नए कृषि कानूनों की काफी आलोचना हो रही है। कहा जा रहा है कि उनसे किसानों का जीवन जोखिम में पड़ जाएगा। आपको क्या लगता है, ये कानून एपीएमसी व्यवस्था की बुनियादी खामियां दूर कर पाएंगे या उनसे बचकर मंडियों को हाशिये पर डाल रहे हैं? वे न केवल एपीएमसी को दरकिनार कर रहे हैं बल्कि किसानों के लिए भी यह जोखिम की बात है कि वे थोक बाजार में सिर्फ पैन कार्ड वाले किसाी कारोबारी को अपनी उपज बेच दें। कानून के मुताबिक किसानों को जोखिम से बचाए बगैर किसी भी एजेंसी को अनुबंधित खेती शुरू करने की इजाजत मिल सकती है। एपीएमसी में जोखिम से सुरक्षा रहती है क्योंकि सभी खरीदारों और सुविधाप्रदाताओं के पास लाइसेंस होता है। किसी कारोबारी के डिफॉल्ट करने पर किसान को हर्जाना मिलता है। नई व्यवस्था में ऐसा कुछ नहीं है। ऐसे कानून के क्या नुकसान हो सकते हैं जो मंडियों को हाशिये पर डालकर कृषि उपज के व्यापार के लिए वैकल्पिक व्यवस्था बनाना चाहता हो? मैंने बताया है कि नई व्यवस्था में पर्याप्त जांच परख के बिना और किसानों के हितों का ध्यान रखे बगैर कारोबार की इजाजत है क्योंकि किसान किसी स्थानीय एजेंसी से संपर्क नहीं कर सकता। इसके उलट एपीएमसी में सभी लेनदेन अधिसूचित क्षेत्र में होते थे और अधिसूचित फसलों के लिए होते थे क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष खरीद और अनुबंधित कृषि की इजाजत होती थी। एमएसपी के मुद्दे ने भी देश भर के किसानों को उलझन में रखा है। क्या आपको लगता है कि एमएसपी की गारंटी के लिए मजबूत मंडी नेटवर्क जरूरी है, जैसा पंजाब और हरियाणा में दिखा है या एमएसपी दिलाने का कोई और तरीका हो सकता है? मंशा हो तो एमएसपी कहीं भी दिलाया जा सकता है, चाहे मौजूदा व्यवस्था हो या नई कारोबारी व्यवस्था। गन्ने के अलावा 23 फसलों के लिए एमएसपी घोषित है लेकिन खरीद कुछ ही राज्यों में होती है और कुछ ही फसलों की होती है। एमएसपी मिलना या न मिलना सरकारी नीति पर निर्भर करता है और सरकार की प्रत्यक्ष खरीद, बाजार हस्तक्षेप योजनाओं के इस्तेमाल या भावांतर भुगतान के जरिए ऐसा किया जा सकता है। इसके लिए एपीएमसी की आवश्यकता नहीं है। छत्तीसगढ़ और बिहार में पैक्स स्थानीय स्तर पर सरकार के लिए खरीद का काम कर रही हैं। अब कृषि उत्पादक संगठन या कंपनियां होंगी, जिनकी मदद से यह काम किया जा सकता है। इससे उन्हें भी मदद मिलेगी क्योंकि उनको कुछ सेवा शुल्क मिलेगा। क्या हमें एमएसपी प्रणाली पर दोबार विचार करने और उसे खपत की बदलती तस्वीर तथा मांग की बदलती प्राथमिकताओं के हिसाब से बदलने की जरूरत है? यदि गेहूं और धान के अलावा अन्य फसलों की खरीद के लिए भी एमएसपी लागू किया जाए तो पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में भी फसल में विविधता आएगी जो बहुत जरूरी है। इससे दलहन-तिलहन की उपज भी बढ़ेगी जो फिलहाल आयात किए जाते हैं। यह किसानों और सरकार दोनों के लिए फायदे का सौदा होगा।
