बजट निर्माण: चुनौतियों के बावजूद सुनहरा मौका | शंकर आचार्य / December 25, 2020 | | | | |
कोविड महामारी से जुड़ी अनिश्चितताओं के दौर में तैयार हो रहा अगला बजट तमाम चुनौतियों के साथ अवसर भी लेकर आया है। विस्तार से बता रहे हैं शंकर आचार्य
वित्त वर्ष 2021-22 के लिए बजट महज पांच हफ्ते बाद संसद में पेश किया जाएगा। यह बजट देश एवं स्वतंत्र भारत के किसी भी वित्त मंत्री के समक्ष मौजूद सबसे मुश्किल संदर्भ में तैयार किया जा रहा है। अर्थव्यवस्था अब भी कोविड महामारी की चपेट में है और पहली तिमाही में लगाए गए सख्त लॉकडाउन के दुष्प्रभावों के असर बाकी हैं। देश भर में कोविड संक्रमण के मामले 97 लाख के पार हो चुके हैं। सरकारी अनुमानों के मुताबिक पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 24 फीसदी का अप्रत्याशित संकुचन देखा गया और दूसरी तिमाही में हालात तेजी से बेहतर होने पर भी वृद्धि दर 7.5 फीसदी ऋणात्मक रही। खुदरा महंगाई दर कई महीनों से छह फीसदी से ऊपर बनी हुई है। कुल रोजगार दर (कामकाजी उम्र वाली आबादी के प्रतिशत के तौर पर रोजगार) पहली तिमाही के 31 फीसदी के बेहद स्तर से बेहतर होने के बावजूद दूसरी तिमाही में 38 फीसदी से कम रही। अब भी यह 2016-17 के 43 फीसदी स्तर से काफी नीचे है। इसका मतलब है कि आज के समय में करीब 5 करोड़ कम लोगों को रोजगार मिला हुआ है। केंद्र का राजकोषीय घाटा सही ढंग से दर्ज होने पर जीडीपी का करीब 8 फीसदी रहने के आसार हैं और अगर राज्यों के घाटे को भी जोड़ दें तो संयुक्त घाटा करीब 12-13 फीसदी तक रह सकता है। इसका मुख्य कारण वर्ष की पहली छमाही में राजस्व में आई तीव्र गिरावट है। उत्पाद निर्यात वृद्धि अब भी ऋणात्मक बनी हुई है और मासिक डॉलर स्तर भी 2011-12 से नीचे हैं। भुगतान संतुलन में चालू खाता महज इसलिए अधिशेष स्थिति में है कि आयात कम हुआ है और कच्चे तेल के दाम गिरे हैं।
इसके अलावा वास्तविक जीडीपी एवं मुद्रास्फीति जैसी प्रमुख वृहद-आर्थिक राशियों के परिपथ को लेकर वर्ष 2020-21 की दूसरी छमाही एवं 2021-22 में काफी अनिश्चितता रहने की आशंका जिम्मेदार बजट-निर्माण को बेहद चुनौतीपूर्ण बना रही है। वित्त मंत्रालय एवं भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) दोनों को ही उम्मीद है कि आर्थिक बहाली की मौजूदा प्रक्रिया से तीसरी एवं चौथी तिमाही में वास्तविक जीडीपी क्रमश: 0.1 फीसदी एवं 0.7 फीसदी रहेगी। ये दोनों ही संस्थान वर्ष 2019-20 में गैर-जरूरी तौर पर आशावादी अल्पावधि वृद्धि पूर्वानुमान के दोषी रहे हैं। वहीं वित्त मंत्रालय ने चालू वित्त वर्ष की पहली छमाही को लेकर यही काम किया है जबकि आरबीआई ने चुप्पी साधे रखी। इन पूर्वानुमानों को बाद में आए सरकारी आंकड़ों ने बेकार साबित कर दिया।
मेरे विचार में जीडीपी के स्तर में रिकवरी की प्रक्रिया चालू वित्त वर्ष की दूसरी छमाही में भी जारी रहेगी लेकिन तीसरी एवं चौथी तिमाहियों में वृद्धि दर के अब भी ऋणात्मक ही बने रहने की आशंका है। भले ही आरबीआई को वर्ष 2020-21 की दूसरी छमाही में जीडीपी वृद्धि दर धनात्मक 0.4 फीसदी रहने की उम्मीद है लेकिन मुझे अब भी 2-4 फीसदी की ऋणात्मक वृद्धि की ही आशंका है। इसका मतलब है कि आरबीआई इस वित्त वर्ष में वास्तविक जीडीपी में 7.5 फीसदी की गिरावट का अनुमान लगा रहा है, वहीं मेरी नजर में यह आंकड़ा 9-10 फीसदी रह सकता है। ऐसा होने पर बजट निर्माण में आधार वर्ष की अनुमानित जीडीपी के स्तर में अंतर आ जाएगा। वास्तव में, निम्न आधार होने से वर्ष 2021-22 में रिकवरी की प्रक्रिया मजबूत होने की संभावना है। अगर आरबीआई के मुद्रास्फीति अनुमानों को मानें तो वास्तविक वृद्धि 10-11 फीसदी और नॉमिनल जीडीपी वृद्धि 15-16 फीसदी रह सकती है।
बजट-निर्माण की तमाम अनिश्चितताओं से परे प्रमुख चुनौतियां एवं अवसर क्या हैं? पहला, यह बजट आंकड़ों को मानक लेखांकन परंपराओं के अनुरूप लाने का एक सुनहरा मौका है। साल की शुरुआत में इसी समाचारपत्र में प्रकाशित एक लेख में मैंने कहा था कि बजट आंकड़ों की हेराफेरी हाल के वर्षों में गंभीर समस्या बनकर उभरी है। ठीक ढंग से दर्ज होने पर केंद्र का राजकोषीय घाटा वर्ष 2017-18, 2018-19 और 2019-20 में जीडीपी का करीब 5 फीसदी रहा था। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले बजट में पारदर्शिता की तरफ कुछ बड़े कदम उठाए और बजट से इतर खर्च एवं उनके वित्तीय प्रावधान पर कुछ विवरण भी दिए लेकिन उन्हें घाटे में शामिल करने से परहेज ही किया। यह बजट इन सभी खामियों को दूर करने का एक मौका है। शायद इसलिए कि हर किसी को इस साल भारी घाटा होने की आशंका है, लिहाजा घाटे के 8 फीसदी से अधिक होने पर भी घाटे से जुड़े तमाम आंकड़ों को सामने लाने का यह माकूल मौका है।
दूसरा, केंद्र एवं राज्यों का साझा घाटा मिलकर जीडीपी के 12-13 फीसदी होने की स्थिति इस साल से आगे नहीं बरकरार रखी जा सकती है। ऐसा होने पर जीडीपी एवं सरकारी ऋण का अनुपात 85-90 फीसदी के अभूतपूर्व स्तर तक जा सकता है। जीडीपी एवं राजस्व की स्थिति तेजी से सुधरने से वर्ष 2021-22 आगामी वर्षों में अपरिहार्य राजकोषीय मजबूती के लिए बड़े नकद भुगतान का सबसे अच्छा मौका है। अगले साल नॉमिनल जीडीपी विस्तार 15-16 फीसदी रहने के अनुमानों के मद्देनजर संबद्ध राजस्व वृद्धि इतनी होनी चाहिए कि केंद्र के घाटे में जीडीपी के करीब 5 फीसदी संकुचन की गुंजाइश बनी रहे, जब तक कि जीडीपी एवं व्यय का अनुपात मोटे तौर पर पिछले साल के बराबर बना रहे। इससे उधारी कार्यक्रम को तर्कसंगत स्तर पर लाया जा सकेगा और आरबीआई द्वारा अप्रत्यक्ष घाटा प्रावधान के मौजूदा उच्च स्तर में भी कटौती हो सकेगी। ऐसा संकुचन हुए बगैर मुद्रास्फीति काबू से बाहर जा सकती है और जीडीपी एवं सरकारी ऋण का अनुपात बुनियादी वित्तीय स्थायित्व को दरकिनार करते हुए असल में खतरनाक स्तर तक जा सकता है।
तीसरा, यह मुमकिन है कि जरूरी असलियतों की वजह से अगले साल सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं रक्षा पर बढऩे वाले जरूरी खर्च को समायोजित करने के लिए व्यय अनुपात वर्ष 2019-20 के स्तर से थोड़ा ऊपर जा सकता है। वैसे में घाटे को जीडीपी के 5 फीसदी स्तर पर सीमित रखने के लिए इन कदमों के बारे में सोचा जा सकता है: व्यक्तिगत आयकर छूट सीमा में बड़ी कटौती, कॉर्पोरेट टैक्स पर साल में एक बार अधिभार लगे, सभी मंत्रालयों में सरकारी फीस एवं उपयोग शुल्क बढ़ाने के व्यवस्थागत प्रयास कर जीडीपी के बरक्स गैर-कर राजस्व अनुपात में जारी गिरावट रोकी जा सके और सरकारी स्वामित्व वाली अतिरिक्त जमीन की बिक्री के लिए एक बड़ा कार्यक्रम चलाया जाए।
चौथा, आयात शुल्क दरों में वृद्धि नहीं की जानी चाहिए। अगर हम पूर्व एशिया एवं दक्षिण-पूर्व एशिया की वैश्विक एवं क्षेत्रीय आपूर्ति शृंखलाओं में बढ़ी हुई भागीदारी से पैदा होने वाली निर्यात मांग वृद्धि से लाभान्वित होना चाहते हैं तो फिर आगामी बजट में बड़े नकद भुगतान कर आयात शुल्क दरों को 2017 के स्तर पर लाने की जरूरत होगी। क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी (आरसेप) समझौते में शामिल होने से काफी फायदा होता लेकिन कुछ असरदार संरक्षणवादी उत्पादक समूहों के साथ हमारी राजनीति का संभावित गठजोड़ इसे काफी दूर कर देता है।
(लेखक इक्रियर में मानद प्रोफेसर एवं भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं)
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