देश में पर्यावरण को सुरक्षा और धर्म की चुनौती | श्याम सरन / December 24, 2020 | | | | |
राष्ट्रीय सुरक्षा और धर्म जलवायु परिवर्तन संबंधी प्रयासों पर अतिरिक्त निषेध साबित हो सकते हैं। बता रहे हैं श्याम सरन
भारत के पर्यावरण, इसकी समृद्ध जैव-विविधता एवं अनमोल पारिस्थितिकीय संपदा की लगातार खराब होती हालत के बारे में हर दिन और भी ज्यादा चेतावनी भरी खबरें लेकर आता है। इसकी नदियां प्लास्टिक कचरे से भरी हुई हैं और वे खतरनाक रसायनों से प्रदूषित हैं। हमारे शहरों की हवा जहरीली एवं खतरनाक हो चुकी है और इस अंधेरी सुरंग का कोई अंत नहीं दिख रहा है। हम एक बवंडर के मुहाने पर पहुंच गए हैं जो हमारे लोगों को एक घुमावदार पेच में निगलने का खतरा पैदा करता है जिससे बचने का कोई रास्ता नहीं है। और महात्मा गांधी की भविष्यदर्शी चेतावनी को दोहराएं तो हम जल्द ही धरती को टिड्डियों जैसे हाल में छोड़ सकते हैं।
पूरी दुनिया को चपेट में ले चुकी यह महामारी जीवाश्म ईंधन जलाने, खनिजों के उत्खनन एवं जल्दी खत्म न होने वाले पारिस्थितिकीय निशान छोडऩे वाले कच्चे माल पर आधारित आर्थिक गतिविधियों की एक ही परिपाटी जारी रहने के खतरनाक दुष्प्रभावों को जोरदार ढंग से रेखांकित करती है। कृषि क्षेत्र का भी तकनीकों के इस्तेमाल से औद्योगीकरण हो रहा है जिससे अधिक उपज की चाह में मृदा एवं हवा में विषाक्त तत्त्वों की मात्रा बढऩे का चक्र बनता है। इस बात की क्षीण संभावना ही है कि कोविड महामारी हमें आर्थिक वृद्धि बहाली के उस रास्ते की तरफ ले जाएगी जो हरा-भरा एवं पारिस्थितिकी के लिहाज से टिकाऊ है। हालांकि आज हमें भारत में जो कुछ भी देखने को मिलता है उससे हम भविष्य को लेकर काफी फिक्रमंद हो जाते हैं। सामान्य से कम पर्यावरणीय नियमन के लिए तीव्र रिकवरी की जरूरत को एक दलील बताया जाने लगा है।
किसानों का मौजूदा विरोध-प्रदर्शन गहरे स्तर पर हमें मंडरा रहे पारिस्थितिकीय संकट से रूबरू कराता है। पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश भारत की हरित क्रांति का गढ़ रहे हैं। गेहूं एवं चावल जैसी खाद्यान्न फसलों की उपज में जल्द वृद्धि के पीछे 'सघन कृषि विकास कार्यक्रम' रूपी रणनीति का योगदान रहा था। इसमें अधिक उपज वाली किस्मों की बुआई और रासायनिक उर्वरकों, पानी एवं कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल पर जोर रहता था। यह रणनीति उर्वरक, पानी एवं बिजली जैसे कृषि इनपुट की हरदम बढ़ती जाने वाली सब्सिडी के जरिये ही बनी रह सकती थी।
न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) व्यवस्था किसान को एक तरह का बीमा देने के लिए इस रणनीति का एक अहम घटक बना। यह रणनीति अब असरहीन हो चुकी है और इसके प्रतिफल में लगातार गिरावट आ रही है। खासकर पारिस्थितिकीय एवं सामाजिक प्रभाव तो खतरनाक स्तर तक पहुंच रहे हैं। धान की कटाई के बाद पराली जलाने की घटना भी इसी की एक कड़ी है। संबंधित राज्य धान और गन्ने की खेती के मुफीद नहीं होने के बावजूद सब्सिडी पर मिलने वाले बिजली-पानी के नाते ही ऐसा कर पाते हैं। इसके साथ ही ऊंचे भाव की गारंटी भी वहां के किसानों के लिए इन फसलों को आकर्षक बनाती है। इस वजह से किसान पारिस्थितिकी के लिहाज से अधिक मुफीद फसल परिपाटी एवं अधिक टिकाऊ तरीके अपनाने में हिचकते हैं। वजह यह है कि संक्रमण के दौरान उन्हें रोकने की कोई भी कोशिश नहीं की गई है। इस बीच इन राज्यों में कैंसर एवं अन्य स्वास्थ्य संबंधी मसले हावी हैं और बेहद कम विकल्प ही नजर आने से वहां के युवाओं में एक तरह की हताशा एवं निराशा का भाव गहरा चुका है।
यह स्वीकार करना होगा कि अब भी बढ़ रही आबादी से पर्यावरण पर दबाव पडऩा तय है। हमने तथाकथित जनांकिकी लाभांश को एक जड़-वस्तु बना दिया है लेकिन वास्तविकता यह है कि अगर हाथों को काम नहीं मिलता है तो भी अपना वजूद बचाने के लिए मुंह को निवाले का इंतजार तो रहता ही है। जंगल के पेड़ों को काटकर खाली हुई जमीन पर कुछ फसलें उगाई जाएंगी या कुछ आवास बनाए जाएंगे। घर का चूल्हा जलाने के लिए जंगल काटे जाएंगे। इस जरूरत को समझा जा सकता है और जलवायु परिवर्तन संबंधी कोई भी कदम बहुपक्षीय मंचों की तरह घर पर भी समानता के सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए।
नवीकरणीय ऊर्जा को प्रोत्साहन या ऊर्जा सक्षमता बढ़ाने जैसे कदमों से टिकाऊ विकास नहीं हासिल हो सकता है, जब तक कि इसे एक बड़ी पारिस्थितिकीय चुनौती का अंग न मान लिया जाए। कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों को अलविदा कह कार्बन उत्सर्जन में कटौती करना प्रशंसनीय हो सकता है लेकिन इस दौरान अगर राजमार्ग बनाने के लिए सैकड़ों एकड़ में फैले जंगलों को काटा जाता है तो समूचा लाभ गंवा दिया जाएगा। एक पनबिजली परियोजना से स्वच्छ ऊर्जा पैदा हो सकती है लेकिन सुरम्य जंगलों, नदी-तटीय जीवन के नुकसान और परियोजना-जनित कचरों के ढेर के संदर्भ में इसके एवज में क्या कुछ गंवाया जा चुका है?
हमारी संकटग्रस्त पारिस्थितिकी के संरक्षण में अब हमें दो अन्य चुनौतियों का भी सामना करना है। पहली चुनौती राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी विमर्श से संबंधित है। दूसरी चुनौती धार्मिक भावना से जुड़ी अनिवार्यता है। ऐसी खबरें हैं कि चीन के साथ बढ़ी तनातनी को देखते हुए सैन्य विमानों को भी जगह देने के लिए देहरादून हवाई अड्डे के रनवे का विस्तार किया जाएगा। इसके लिए पहले से ही संकटग्रस्त राजाजी नैशनल पार्क के सैकड़ों हेक्टेयर क्षेत्र को साफ करना होगा। मैंने देखा है कि बाध्यकारी सैन्य जरूरतों की पूर्ति के लिए हिमालय क्षेत्र की कमजोर पारिस्थितिकी को कितना नुकसान हो चुका है? पूर्वी लद्दाख में चीन के हालिया अतिक्रमण को देखते हुए आगे भी ऐसा देखने को मिलेगा।
राष्ट्रीय सुरक्षा की मांग इतनी सशक्त है कि वह विकल्प मौजूद होने की स्थिति में भी तमाम पारिस्थितिकीय चिंताओं को दरकिनार कर सकती है। फिर धार्मिक भावनाएं भी हैं जिनका इस्तेमाल पर्यावरणीय चिंताओं को दरकिनार करने की एक दलील के तौर पर किया जा सकता है। सुनने को मिलता है कि हरिद्वार में लगने वाले कुंभ मेले में आने वाले श्रद्धालुओं के लिए बड़े जंगल काटने पड़ सकते हैं। विषाक्त रासायनिक पेंट से चमक रहीं हजारों मूर्तियां नदियों एवं समुद्र में विसर्जित की जाती हैं जिनसे भारी प्रदूषण फैलता है। इसे रोकने की कोशिश भी नहीं की जाती है क्योंकि ऐसा करने से लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत हो सकती हैं। चार-धाम तीर्थ परियोजना में भारत के सबसे दुर्गम एवं प्राचीन पहाड़ी क्षेत्रों में से एक जगह पर पहले ही चार लेन वाला राजमार्ग बनाने का प्रस्ताव है। पवित्र पूजास्थलों तक श्रद्धालुओं को सीधे ले जाने की मंशा से प्रस्तावित इस परियोजना को लेकर गर्व का अहसास है। इसके खिलाफ उठने वाली कुछ आवाज को सुरक्षा संबंधी दलीलें देकर अब शांत कराया जा रहा है। इसके मुताबिक हमें अपने सीमावर्ती क्षेत्रों में भारी सैन्य वाहन ले जाने के लिए इन राजमार्गों की बहुत जरूरत है। जब किसी परियोजना के साथ सुरक्षा एवं धार्मिक भावना दोनों का मेल हो जाए तो फिर उसका विरोध करने का साहस भला कौन दिखा पाएगा?
वैसे अचानक पैदा होने वाली राष्ट्रीय सुरक्षा जरूरतों को पूरा करना जरूरी है और पर्यावरणीय आग्रहों को परे रखना भी इसका अंग हो सकता है। लेकिन यह एक अपवाद होना चाहिए, पूर्ण प्रतिबंध नहीं। धार्मिक भावनाओं के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है। उद्धार के लिए सबके दरवाजे तक पहुंचना जरूरी नहीं है।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव एवं सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सीनियर फेलो हैं)
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