सरकार को तीन महीने के भीतर मध्यस्थता के दो अंतरराष्ट्रीय मामलों में हार का सामना करना पड़ा है। इस बार उसे ऊर्जा क्षेत्र की कंपनी केयर्न पर अतीत से प्रभावी कर दावे के मामले में पराजय मिली है। भारत से कहा गया है कि वह केयर्न को 8,000 करोड़ रुपये चुकाए। यह राशि उस राजस्व राशि के बराबर है जो केयर्न को इसलिए गंवानी पड़ी थी क्योंकि कर अधिकारियों ने कंपनी की परिसंपत्तियां जब्त करके बेच दी थीं और उसके लाभांश और ब्याज तक को जब्त कर लिया था। इससे पहले सरकार को इसी वर्ष सितंबर में वोडाफोन के खिलाफ भी अतीत की तिथि से लागू कराधान के मामले में मध्यस्थता का मामला गंवाना पड़ा था। केयर्न मामले में मध्यस्थता पीठ में भारत सरकार द्वारा नामित मध्यस्थ समेत सभी मध्यस्थों ने एकमत से यह निर्णय दिया कि कर मांग भारत और ब्रिटेन के बीच द्विपक्षीय निवेश संधि का उल्लंघन है। सवाल यह है कि अब सरकार क्या करेगी। एक समझदारी भरा रास्ता यह हो सकता है कि अतीत की किसी तिथि से कर वसूलने का प्रयास यदि उचित भी है तो भी वह शुरुआत से ही कानूनी और जनसंपर्क दोनों ही स्तरों पर एक बड़ी नाकामी है। पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने यह यह बात कई मौकों पर स्वीकार भी की थी। ऐसे में यह बात अजीब है कि स्पष्ट रुख का उल्लेख करने के बावजूद सरकार लगातार ऐसी पुरानी कर मांग को लगातार लागू करती रही है जबकि वह चाहे तो इस प्रक्रिया को रोककर सकारात्मक रुझान का लाभ ले सकती है। इस मामले में सरकार ने कहा है कि वह विकल्पों का अध्ययन कर रही है। इकलौता विकल्प यही है कि वह संधि के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता से बड़ी अदालतों पर भरोसा करे। सिंगापुर स्थित अपील संस्था में अपील करना भी खतरनाक और गलत कदम होगा और सरकार को उसे प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए। विवाद निस्तारण के मामलों में भारतीय न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता कमजोर है। यह बात देश में वैश्विक पूंजी निवेश की राह का बड़ा रोड़ा है। यदि सरकार मध्यस्थता संबंधी निर्णयों को पलटने के लिए घरेलू अदालतों की मदद लेती है तो एक बार फिर नकारात्मक रुझानों का बोलबाला हो जाएगा। अब वक्त आ गया है कि सरकार सौजन्यतापूर्वक यह स्वीकार कर ले कि वह कानूनी लड़ाई हार चुकी है। उसे ऐसे कदम उठाने चाहिए कि भविष्य में ऐसी स्थितियां न बनें। द्विपक्षीय निवेश संधियों के खिलाफ कदम उठाने के बजाय उसे यह स्वीकार करना चाहिए कि ये सुसंगत विदेशी निवेश नीति के अहम घटक हैं। उसे सार्वजनिक रूप से एक बार फिर यह प्रतिबद्धता जतानी चाहिए कि वह अतीत से लागू होने वाले कर संशोधनों का दोबारा इस्तेमाल नहीं करेगी और अतीत में जब्त धनराशि की वापसी में देरी करने का प्रयास गलत था। सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मध्यस्थता निर्णय का मान रखते हुए केयर्न और वोडाफोन दोनों को संतुष्ट किया जाए। वोडाफोन मामले में सिंगापुर में अपील करने की मियाद गुरुवार को समाप्त हो रही है और सरकार को इसे चुपचाप बीत जाने देना चाहिए। अब वक्त आ गया है कि अतीतगामी कर व्यवस्था को बंद किया जाए। इसने पहले ही निवेश के केंद्र के रूप में देश की प्रतिष्ठा को काफी क्षति पहुंचाई है। निवेश के अनुकूल कारोबारी माहौल होने से आर्थिक गतिविधियों में सुधार होगा और सरकार को अधिक से अधिक राजस्व मिलेगा। आशा की जानी चाहिए कि कर अधिकारियों की हार न स्वीकार करने और मामले को कानूनी रूप से लंबा खींचने की प्रवृत्ति पर वित्त मंत्रालय के राजनेता अंकुश लगाएंगे।
